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अभिवृद्धि एवं विकास Growth and Development 

विकास (DEVELOPMENT)

मानव जीवन एक निषेचित इकाई (fertilized cell) से आरम्भ होता है। यह इकाई माँ के गर्भ के वातावरण से निरन्तर अन्तक्रिया करता रहता है। जन्म के बाद बाहर के वातावरण से अन्तर्क्रिया आरम्भ हो जाती है, जिसके फलस्वरूप बालक की वृद्धि और विकास की प्रक्रिया गतिवान होती है। विकास की प्रक्रिया गर्भ से ही प्रारम्भ हो जाती है और जन्म के बाद शैशवास्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था तथा प्रौढ़ावस्था तक क्रमश: चलती रहती है। बालक के विकास के विभिन्न पक्षों व विकास को विभिन्न अवस्थाओं में घटित होने वाली प्रक्रिया के स्वरूप का ज्ञान अभिभावक तथा अध्यापक दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। बालक-बालिकाओं में होने वाले शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक आदि परिवर्तनों का ज्ञान अध्यापक की कार्यकुशलता में वृद्धि करता है तथा विभिन्न आयु के बालकों के लिए प्रशिक्षण, अनुदेशन और निरन्तर अभ्यास को सुनिश्चित किया जा सकता है।

अभिवृद्धि / वृद्धि एवं विकास (GROWTH AND DEVELOPMENT)

सामान्य बोलचाल की भाषा में अभिवृद्धि एवं विकास दोनों को एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है। किन्तु इन शब्दों के वास्तविक अर्थ में अन्तर होता है। अभिवृद्धि से तात्पर्य है-आकार, वजन, विस्तार जटिलता आदि की दृष्टि से बढ़ना। जबकि विकास का अर्थ है-व्यक्ति का एक अवस्था से दूसरी अवस्था में पदार्पण करना इस प्रकार अभिवृद्धि का स्वरूप परिमाणात्मक रहता है, जबकि विकास का स्वरूप गुणात्मक होता है।

वृद्धि / अभिवृद्धि और विकास की तुलना Comparison between growth and Development:- अभिवृद्धि और विकास में कई सारी समानताएं हैं, परंतु इन समानताएं के बावजूद भी ऐसे कई महत्वपूर्ण तथ्य हैं जिसके कारण अभिवृद्धि तथा विकास में तुलना की जा सकती है | अभिवृद्धि तथा विकास में तुलना निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर किया जा सकता है:-

वृद्धि / अभिवृद्धि और विकास की तुलना Comparison between growth and Development

वृद्धि / अभिवृद्धि विकास
जीवन पर्यंत वृद्धि नहीं होती | एक निश्चित आयोग के लगभग रुक जाती है | विकास का अर्थ जीवन पर्यंत एक व्यवस्थित और लगातार आने वाली परिवर्तन है |
परिपक्व अवस्था प्राप्त होते ही अभिवृद्धि रुक जाती है विकास कभी भी नहीं रुकता | परिपक्वता की अवस्था प्राप्त होने पर भी विकास नहीं रुकता |
अभिवृद्धि या वृद्धि का संबंध शारीरिक साथ-साथ मानसिक परिपक्वता से होता  है | विकास का संबंध वातावरण से भी होता है |
मात्रात्मक पहलू में परिवर्तन अभिवृद्धि के क्षेत्र में आता है यह मात्रात्मक पहलुओं का नहीं बल्कि गुणवत्ता और स्वरूप के परिवर्तन का संकेत देता है |
अभिवृद्धि में व्यक्तिगत भेद होता है | प्रत्येक बालक की वृद्धि समान नहीं होती | विकास की दर सीमा में अंतर होते हुए भी इस में समानता पाई जाती है |
एक बालक का भार व मोटापा बढ़ने के साथ -साथ यह आवश्यक नहीं है कि वह किसी कार्यात्मक-परिष्कार को प्राप्त कर ले |अभिवृद्धि के साथ विकास हो भी सकता है |  अभिवृद्धि के बिना विकास हो सकता है |कुछ बालों को के कद भार या आकार में वृद्धि ना होने पर भी वे भौतिक सामाजिक भावनात्मक या बौद्धिक पहलुओं में विशेष कार्य अनुभव वाले हो सकते हैं |
अभिवृद्धि से होने वाले परिवर्तन मापे जा सकते हैं | कार्य और व्यवहार में परिष्कार का संकेत देने वाला होने से विकास गुणात्मक परिवर्तन लाता है जिनका मापन करना बहुत कठिन होता है |
अभिवृत्ति मनुष्य की विकास प्रक्रिया का हिस्सा या एक पहलू है | विकास एक व्यापक और परिज्ञान वाला शब्द है | इसमें वृद्धि भी सम्मिलित रहती है तथा उन सभी परिवर्तनों को भी समाविष्ट करता है जो जीवधारी के अतिरिक्त स्तर पर होते हैं | यह शारीरिक बौद्धिक भावनात्मक सामाजिक और सौंदर्य बोध जैसे विकास के सभी पहलुओं को अपने से समाविष्ट करता है |
अभिवृद्धि एकाकी प्रक्रिया है जो शरीर के विभिन्न अंगों की उत्तरोंत्तर बढ़ रही समन्वित कार्य क्षमता में वृद्धि को इंगित करता है | विकास के परिणाम स्वरूप व्यक्ति में नवीन क्षमताएं प्रकट होती है, क्योंकि यह एक-बहुआयामी प्रक्रिया भी  है |


अभिवृद्धि तथा विकास की परिभाषाएँ (DEFINITIONS OF GROWTH AND DEVELOPMENT)

मेरीडिथ के अनुसार- "कुछ लेखक अभिवृद्धि का प्रयोग केवल आकार की वृद्धि के अर्थ में करते हैं और विकास का विभेदीकरण (विशिष्टीकरण) के अर्थ में।" 

"Some writers reserve the use of 'growth' to designate increments in size and of 'development' to mean differentiation." - Meridith 

हरलॉक के अनुसार- "विकास बड़े होने तक ही सीमित नहीं है वरन् इसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है। विकास के फलस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ तथा नवीन योग्यताएँ प्रकट होती हैं।"

"Development is not limited to growing larger. Instead, it consists of a progressive series of changes towards the goals of maturity. Development result new characteristics and new abilities on the part of the individual." - Hurlock

फ्रैंक के अनुसार-"अभिवृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओं में होने वाली वृद्धि से होता है, जैसे लम्बाई और भार में वृद्धि, जबकि विकास से तात्पर्य प्राणी में होने वाले सम्पूर्ण परिवर्तनों से होता है।" "Growth is regarded as multiplication of cells, as growth in height and weight, while development refers to the changes in organism as a whole." - Frank

गेसेल के अनुसार-"विकास, प्रत्यय से अधिक है। इसे देखा जाँचा और किसी सीमा तक तीन प्रमुख दिशाओं- शरीर अंग विश्लेषण, शरीर ज्ञान तथा व्यवहारात्मक, में मापा जा सकता है इस सब में व्यावहारिक संकेत ही सबसे अधिक विकासात्मक स्तर और विकासात्मक शक्तियों को व्यक्त करने का माध्यम है।"

"Development is more than a concept. It can observed, appraised and to some extent even measured, in three major manifestations: (a) anatomic, (b) physiologic, (c) behavioural. Behaviour signs, however, constitute a most comprehensive index of developmental status and developmental potentials,"- Gasell

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अभिवृद्धि और विकास में उपर्युक्त अन्तर होते हुए भी सामान्यत: इन दोनों शब्दों को एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है। यहाँ भी दोनों शब्दों को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया जा रहा है।


विकास के सिद्धान्त (PRINCIPLES OF DEVELOPMENT)

मनुष्य के विकास की प्रक्रिया गर्भावस्था से ही आरम्भ हो जाती है। गर्भावस्था से आरम्भ हुआ विकास जीवन पर्यन्त निरन्तर चलता रहता है। मनुष्य के अन्दर बहुत से परिवर्तन अवस्था परिवर्तन के साथ होते रहते हैं। ये परिवर्तन कुछ निश्चित सिद्धान्तों के अनुरूप होते हैं। व्यक्ति के विकास के अनेक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त हैं। मुख्य सिद्धान्तों का संक्षिप्त उल्लेख यहाँ किया जा रहा है।

1. निरन्तरता का सिद्धान्त (Principle of Continuity)- मानव विकास एक सतत् प्रक्रिया है जो जन्म से मृत्यु तक निरन्तर चलती रहती है तथा उसमें कोई भी विकास आकस्मिक ढंग से नहीं होता है, धीरे-धीरे होता है। स्किनर के अनुसार विकास प्रक्रियाओं की निरन्तरता का सिद्धान्त केवल इस तथ्य पर बल देता है कि व्यक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता। उदाहरणार्थ, मनुष्य की शारीरिक अभिवृद्धि आयु बढ़ने के साथ-साथ धीरे-धीरे बढ़ती है, एकदम नहीं और परिपक्वता प्राप्त करने के बाद रुक जाती है तथा जहाँ तक मनोशारीरिक क्रिया-अनुक्रियाओं की बात है, उनमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। इन परिवर्तनों में प्रगतिशील ऊर्ध्वगामी परिवर्तनों को विकास कहा जाता है और यह भी एकदम नहीं होता, जैसे-जैसे नए अनुभव होते हैं, वैसे-वैसे नई प्रतिक्रियाएँ होने लगती हैं, उनमें विकास होता रहता है।"

2. व्यक्तिगतता का सिद्धान्त (Principle of Individuality)- यद्यपि मानव विकास का एक समान प्रतिमान होता है किन्तु वंशानुक्रम एवं वातावरण की भिन्नता के कारण प्रत्येक व्यक्ति के विकास में कुछ भिन्नता भी होती है। जिस प्रकार कोई भी दो व्यक्ति पूर्णरूपेण एकसमान नहीं हो सकते हैं उसी तरह दो अलग-अलग व्यक्तियों का विकास भी पूर्णरूपेण एक तरह नहीं होता है। इसके अतिरिक्त बालकों और बालिकाओं के विकास में भिन्नता होती है। उदाहरणार्थ-बालिकाओं का शारीरिक विकास बालकों के शारीरिक विकास से बहुत अधिक भिन्न होता है।

3. परिमार्जिता का सिद्धान्त (Principle of Modifiability)- परिमार्जिता के सिद्धान्त के अनुसार बालक के विकास की दिशा और गति का परिमार्जन किया जा सकता है। इस सिद्धान्त का शैक्षिक निहितार्थ अत्यधिक महत्वपूर्ण है। शिक्षा का उद्देश्य है- बालक का सन्तुलित और सर्वांगीण विकास करना। शिक्षा और प्रशिक्षण के द्वारा बालक के व्यवहार को वांछित दिशा में अनुप्रेरित किया जा सकता है। बालक के विकास की दिशा और गति को परिमार्जित कर उसके व्यक्तित्व के व्यवस्थापन को बिगड़ने से बचाया जा सकता है।

4. विकास क्रम का सिद्धान्त (Principle of Development Sequence) - यद्यपि विकास की प्रक्रिया गर्भावस्था से मृत्यु पर्यन्त निरन्तर चलती रहती है परन्तु इस विकास का एक निश्चित क्रम होता है। सबसे पहले बालक का गामक और भाषा सम्बन्धी विकास होता है। बालक पहले क्रंदन करता है, फिर निरर्थक शब्दों का उच्चारण करता है, अन्त में सार्थक शब्दों और वाक्यों पर पहुँचता है। इसी प्रकार गामक विकास में बच्चा पहले-पहले हाथ-पैर पटकता है, फिर पलटता है, फिर बैठता है, उसके बाद खड़ा होता व चलता है।

5. सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धान्त (Principle of General to Specific Responses)- मनोवैज्ञानिकों ने यह भी स्पष्ट किया है कि मनुष्य का विकास सामान्य प्रतिक्रियाओं से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं की ओर होता है। हरलॉक के अनुसार-"विकास की सब अवस्थाओं में बालक की प्रतिक्रियाएँ विशिष्ट बनने से पूर्व सामान्य प्रकार की होती हैं।" उदाहरणार्थ, बालक पहले हर वस्तु मुँह में रखता है, उसके बाद अनुभव द्वारा केवल खाद्य पदार्थों को ही मुँह में रखता है। उसके बाद एक निश्चित समय में निश्चित ढंग से खाना सीख लेता है।

6. केन्द्र से निकट-दूर का सिद्धान्त (Proximo Distal Principle)- इस सिद्धान्त के अनुसार विकास का केन्द्र विन्दु स्नायुमंडल होता है। विकास की गति केन्द्र से दूरवर्ती भागों की ओर चलती है। पहले स्नायुमंडल का विकास होता है। फिर स्नायुमंडल के निकटवर्ती भाग हृदय, छाती आदि विकास होता है, अन्त में दूरवर्ती भाग पर एवं उनकी उंगलियों पर नियंत्रण होता है।

7. मस्तकाधोमुखी का सिद्धान्त (Cephalocaudal Principle)- इस सिद्धान्त के अनुसार विकास की क्रिया सिर से आरम्भ होकर पैरों की ओर जाती है अर्थात् विकास ऊपर से नीचे की ओर चलता है। गर्भ में पहले सिर विकसित होता है। गर्भ के बाद बालक सर्वप्रथम सिर को उठाता है, फिर धड़ और बाद में दूसरे अंगों जैसे पैरों का हिलाना-डुलाना सीखता है। बैठने के पश्चात् चलना, दौड़ना इत्यादि सीखता है।

8. एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of Integration)-विकास की प्रक्रिया एकीकरण के | सिद्धान्त का पालन करती है। इसके अनुसार बालक अपने सम्पूर्ण अंग को और फिर अंग के भागों को 'चलाना सीखता है। इसके बाद वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है। सामान्य से विशेष की ओर बदलते हुए विशेष प्रतिक्रियाओं और चेष्टाओं को इकट्ठे रूप में प्रयोग में लाना सीखता है। उदाहरण के लिए, एक बालक पहले पूरे हाथ को, फिर उंगलियों को और फिर हाथ एवं उंगलियों को एक साथ चलाना सीखता है।

9. परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Interrelation)- मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, भाषायी, संवेगात्मक, सामाजिक और चारित्रिक सभी प्रकार के विकास में पारस्परिक सम्बन्ध होता है, ये एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं और एक के साथ अन्य सबका विकास होता है। उदाहरण के लिए, जैसे-जैसे व्यक्ति के शरीर के बाह्य तथा आन्तरिक अंगों की वृद्धि होती है, उनका आकार व भार बढ़ता है वैसे-वैसे उसके शरीर के अंगों की कार्यक्षमता का विकास होता है तथा जैसे-जैसे उसके शरीर के अंगों, विशेषकर ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की कार्यक्षमता बढ़ती है वैसे-वैसे उसका मानसिक, भाषायी, संवेगात्मक, सामाजिक और चारित्रिक विकास भी होता है। हाँ, यह आवश्यक है इसके लिए उचित वातावरण और शिक्षा उपलब्ध हो।

10. समान प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of Uniform Pattern)- समान प्रजाति के विकास के प्रतिमानों में समानता पायी जाती है। प्रत्येक प्रजाति, चाहे वह पशु प्रजाति हो या मानव प्रजाति, अपनी प्रजाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करता है। संसार के समस्त भागों में मानव शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है।

11. वंशानुक्रम तथा वातावरण की अन्तः क्रिया का सिद्धान्त (Principle of Interaction of Heredity and Environment)- इस सिद्धान्त के अनुसार बालक के विकास में वातावरण और आनुवांशिकता दोनों का सापेक्षिक महत्व होता है, विकास दोनों की अन्तःक्रिया का परिणाम होता है। जैसे-किसी बीज में अन्तर्निहित क्षमताओं को प्रस्फुटित होने के लिए मिट्टी, खाद, पानी, हवा की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार बालक में आनुवांशिकता से जो क्षमताएँ उपस्थित होती हैं उन्हें अच्छे वातावरण द्वारा ही पूर्णरूप से विकसित किया जा सकता है अन्यथा वह भेड़िए द्वारा पालित बच्चे की तरह अविकसित रह जाएगा। सन् 1951 में भेड़िए द्वारा पालित एक बच्चा मिला, जिसे लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में रखा गया, इसका नाम रामू रखा गया, इसका विकास भेड़ियों की तरह था। इस प्रकार व्यक्ति के विकास के लिए वातावरण तथा आनुवांशिकता दोनों ही महत्वपूर्ण हैं।


विकास के सिद्धान्तों का शैक्षिक महत्व (EDUCATIONAL IMPLICATIONS OF THE PRINCIPLES OF DEVELOPMENT)

विकास के उपर्युक्त सिद्धान्तों का शैक्षणिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण स्थान है 1. विकास की गति और मात्रा सभी बालकों में एक जैसी नहीं पाई जाती। अतः व्यक्तिगत विभिन्नता को ध्यान में रखकर सभी बालकों से एक जैसे विकास की आशा नहीं करनी चाहिए। यदि बालक से अधिक की अपेक्षा की जाएगी तो उसमें अपूर्णता की भावना आ जाएगी तथा कम की अपेक्षा की जाएगी तो उसकी भावनाओं और क्रियाओं को प्रोत्साहन नहीं मिल पाएगा। परिणामतः जिन कार्यों को करने की क्षमता उसमें होगी, वह भी ठीक से नहीं कर पाएगा।

2 विकास के सिद्धान्त पाठ्यक्रम निर्माण में बड़े सहायक होते हैं। पाठ्यक्रम इस प्रकार का बनाया जाना चाहिए जिससे बालकों का सभी क्षेत्रों में विकास हो सके। पाठ्यक्रम में पाठ्यसहगामी क्रियाओं का भी आयोजन होना चाहिए। विकास के सिद्धान्तों के ज्ञान के कारण ही बालक की विभिन्न अवस्थाओं के लिए भिन्न-भिन्न पाठ्यक्रम बनाए जा सकते हैं।

3. विकास के सिद्धान्तों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बालक का विकास सामान्य रूप से हो रहा है या नहीं। इस अनुमान से उनके विकास के लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था तथा सहयोग दिया जा सकता है। माता-पिता, अध्यापक बालकों के विकास की दिशाओं को ध्यान में रखते हुए शारीरिक और मानसिक विकास के लिए उपयुक्त वातावरण एवं साधन प्रदान करने का प्रयत्न कर सकेंगे।

4. विकास किस प्रकार का होता है, इसके ज्ञान से अभिभावक व अध्यापक यह निर्धारित कर सकेंगे कि बालक के विकास के लिए कब अधिक और कब कम प्रयत्न किया जाए। इस प्रकार का ज्ञान बालक के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करने में सहायता देता है। जैसे-जब शिशु चलना आरम्भ कर देता है तब उसे चलने के अभ्यास के लिए पूर्ण अवसर उपयुक्त वातावरण और उपयुक्त सामग्री प्रदान करना चाहिए। उचित वातावरण के अभाव में या ध्यान न देने पर वह देर से चलना आरम्भ करता है। विकास की प्रत्येक अवस्था की संभावनाएँ और सीमाएँ होती हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि अध्यापक और माता-पिता को बालकों से ऐसा करने की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए जो उनकी विकास की अवस्था से परे है। यदि वे ऐसा करते हैं तो इसका परिणाम बालकों में कुंठा, तनाव तथा स्नायुविक दुर्बलता लाने का ही होगा। उदाहरणार्थ, प्राथमिक कक्षा के एक बालक से अमूर्त अवधारणाओं और सिद्धान्तों का विवेचन करने की अपेक्षा रखना गलत है।

5. विकास की अन्तः सम्बद्धता ज्ञान को अन्त सम्बन्धित तरीके से प्रस्तुत करने का संकेत देती है। ऐसा अन्तः सम्बन्धित ज्ञान प्रयोगात्मक भी होना चाहिए। अर्थात् जो कुछ सिखाया उसको व्यावहारिक रूप में करने की शिक्षा भी दी जाए। 

6. वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों मिलकर बालक के विकास के लिए उत्तरदायी हैं, कोई एक नहीं। इनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इस बात का ज्ञान वातावरण में आवश्यक सुधार लाकर बालकों को अधिक-से-अधिक कल्याण करने के लिए प्रेरित करता है।


विकास के कारण (CAUSES OF DEVELOPMENT)

मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न अध्ययनों के बाद विकास के निम्नलिखित कारणों को चिह्नित किया 

1. परिपक्वता (Maturation)- हरलॉक के अनुसार-"परिपक्वता की अवधि से तात्पर्य व्यक्ति में मौजूद आंतरिक योग्यताओं का विकास या उनका अनावरण है।" माता-पिता तथा अन्य पूर्वजों से प्राप्त आनुवांशिकता के कारण प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्जात गुण रहते हैं। यह बालक के विकास पर सीधी निर्भर नहीं रहती है बल्कि पर्यावरण में जिन विविध घटकों के संपर्क में वह आता है उनसे भी कुछ सीमा तक इसको उद्दीपन मिलता है तथा प्रभावित होता है। परिपक्वता की प्रक्रिया बालक के विकास को जन्म से लेकर तब तक प्रभावित करती रहती है जब तक कि उसकी स्नायुतन्त्र पूर्ण रूप से दृढ़ परिपक्व नहीं हो जाता है। वुल्फ तथा वुल्फ के अनुसार-“परिपक्वता का अर्थ विकास की उस निश्चित अवस्था से है जिसमें बालक वे कार्य करने योग्य हो जाते हैं जो इस अवस्था के पूर्व नहीं कर सकते थे।"

इस प्रकार परिपक्वता, व्यक्ति के आन्तरिक विकास की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के कारण ही बालक के शारीरिक अवयवों में नवीन क्रिया को सीखने की क्षमता आती है।

2. अधिगम या सीखना (Learning)- सीखना व्यक्ति के अभ्यास और अनुभव का संकेत देती है। व्यक्ति व्यवहार में परिवर्तन एक कार्य को अभ्यास करके या केवल पुनरावृत्ति से सीख कर सही समय पर होता है। अथवा एक ऐसा परिवर्तन एक नैसर्गिक चयन, निर्देशन और प्रयोजनमूलक प्रकार के कार्य प्रशिक्षण से आता है। सीखने की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। इसके कारण ही बालक विकास की ओर बढ़ता है।

परिपक्वता तथा अधिगम क्रियाओं में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। दोनों ही एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं और विकास की दृष्टि से दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। परिपक्वता का सम्बन्ध वंशानुक्रम से तथा अधिगम का सम्बन्ध वातावरण से है। परिपक्वता और अधिगम इस तरह से एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं कि एक की तीव्रता दूसरे को तीव्र तथा एक की मंदता दूसरे की गति को मंद कर देती है। हरलॉक के अनुसार- "परिपक्वता शिक्षा की कच्ची सामग्री है तथा व्यक्ति व्यवहार की पहले से अधिक सामान्य व्यवस्थाओं और श्रेणियों का बड़ी सीमा तक अवधारणा करती हैं। विकास पर वातावरण के प्रभावों या सीखने के महत्व को किसी तरह कम नहीं करती है।"


विकास को प्रभावित करने वाले कारक Factors Influencing Development


विकास को प्रभावित करने वाले कारकों या तत्व को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:- 

1. अनुवांशिक कारक:- अनुवांशिक कारकों के अंतर्गत जन्म से प्राप्त शारीरिक संरचना आकार, प्रकार तथा बुद्धि आदि बालकों के विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं | अनुवांशिक गुणों के लिए पीटरसन ने कहा है "किसी व्यक्ति को माता-पिता के माध्यम से उसके पूर्वजों के गुण प्राप्त होते हैं उन्हें अनुवांशिकता कहा जाता है"|
इस प्रकार निम्नलिखित जन्मजात अथवा जैविक विशेषताएं मानव के विकास को प्रभावित करते हैं :-

(a) शारीरिक संरचना:- शारीरिक संरचना के अंतर्गत शरीर की लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई, भार, चेहरा आदि आते हैं | जो लोग शरीर से लंबे, वरिष्ठ, सुंदर तथा आकर्षक होते हैं, वे प्राय खेलकूद, बयान, जिमनास्टिक, मॉडलिंग और अभिनय के क्षेत्र में सफल रहते हैं | इसी तरह बहुत नाटे या मोटे लोग भी अपने लिए उपयुक्त व्यवसाय का चयन कर तदनुसार अपना विकास करते हैं |

(b) लिंग भेद:- शारीरिक और मानसिक विकास पर लिंग भेद का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है | लड़कियों का शारीरिक विकास लड़कों की अपेक्षा शीघ्र होता है और वे एक परिपक्व हो जाती हैं | बालिकाओं का मानसिक विकास लड़कों की अपेक्षा से शीघ्र  होती है |

(c) संवेगात्मक विशेषताएं:- प्रत्येक व्यक्ति में मूल प्रवृत्तियां और  संवेग जन्म से ही अधिक मात्रा में पाए जाते हैं | उदाहरण के रूप में कुछ बालक जन्म से ही क्रोधी होते हैं तथा कुछ जन्म से ही विनम्र तथा सहृदय होते हैं | दोनों के व्यक्तित्व के विकास में उनकी मूल प्रवृत्तियों का प्रभाव देखने को मिलता है |

(d) बुद्धि:-  बालक के विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में बुद्धि का महत्वपूर्ण स्थान है | अनुभव के आधार पर यह पाया गया है कि अधिक बुद्धि वाले बालको का विकास तीव्र गति से होता है |

(e) वंश या प्रजाति:-  मानवशास्त्र का अध्ययन करने वालों ने बताया है कि विभिन्न देशों की प्रजातियों का विकास विभिन्न मात्रा में पाया जाता है | उदाहरण के लिए नीग्रो लोगों के बच्चों की प्रोड़ता शुरू के वर्षों में श्वेत वर्ण वालों के बच्चों की पूर्णता से 80% अधिक होती है |

(f) आंतरिक संरचना:-  शरीर के बाहर की संरचना के साथ-साथ इतनी अतिरिक्त संरचना भी व्यक्ति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है | इसके अंतर्गत हड्डियों की बनावट मस्तिष्क की संरचना पीनियल थायराइड तथा पैरा थायराइड ग्रंथि एवं यकृत अग्नाशय ह्रदय आदि की क्रिया प्रणाली का विशेष योगदान रहता है | यह समस्त आंतरिक अंग व्यक्ति के शारीरिक मानसिक और चारित्रिक विकास के लिए उत्तरदाई होते हैं |

2. वातावरण:- अनुवांशिक कारकों के बाद वातावरण से संबंधित अनेक कारक व्यक्ति के विकास में सहायक होते हैं | जहां तक शारीरिक विकास की बात है उस पर वातावरण का बहुत कम प्रभाव पड़ता है किंतु मानसिक विकास पर वातावरण का पर्याप्त प्रभाव देखने को मिलता है | परिवेश का यह प्रभाव बाल्यवस्था से लेकर वृद्धावस्था और जीवन के अंतिम क्षण तक पढ़ता रहता है | वातावरण के विकास पर पड़ने वाले प्रभाव के संबंध में एक तथ्य अत्यंत महत्वपूर्ण है वातावरण मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास में अपना कोई मौलिक योगदान नहीं करता बल्कि जो गुण और विशेषताएं उसे आनुवंशिकता से प्राप्त होती हैं उनका पूर्ण विकास करने में यह बहुत अधिक सहायक होता है | प्राय ऐसा देखने में आता है कि व्यक्ति के अनेक ऐसे गुण जिनका विकास होना उसके सफल जीवन के लिए बहुत आवश्यक है होता है समुचित वातावरण और परिस्थितियां ना मिल पाने के कारण दबकर अविकसित रह जाते हैं |

Boring, Weld and Langfield ने वातावरण के प्रभाव को इस तरह व्यक्त किया है "The environment is everything that affects the individual except his genes." 

इस प्रकार वातावरण निम्न कारकों के माध्यम से मानव विकास को प्रभावित करते हैं:-

(a) जीवन की आवश्यक सुविधाएं:- मनुष्य के भौतिक एवं सामाजिक जीवन से जुड़ी हुई मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति विकास में बहुत अधिक सहायक होती है | रोटी, कपड़ा, मकान, विद्यालय, पौष्टिक तथा संतुलित भोजन शुद्ध वायु एवं प्रकाश आदि कुछ ऐसे सुविधाएं हैं जो व्यक्ति के समुचित विकास के लिए बहुत आवश्यक है | यह सुविधाएं जितनी उत्तम कोटि की होगी मनुष्य का विकास भी उतना ही श्रेष्ठ कोटि का होगा | शिक्षा द्वारा यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि बालको को किसी आयु में कौन-कौन सी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए |

(b) समाज और संस्कृति:- विकास पर समाज और संस्कृति का भी प्रभाव पड़ता है | बालक के विकास पर उसके समाज तथा भौतिक एवं अभौतिक दोनों प्रकार की संस्कृतियों का प्रभाव पड़ता है | समाज में प्रचलित रीति, रिवाज, मान्यताएं और नैतिक मूल्य विकास की गति और दिशा का निर्धारण करते हैं | सामाजिक संस्थाएं भी अनेक प्रकार के कार्यक्रमों के द्वारा व्यक्ति के विकास में सहयोग प्रदान करती हैं |

(c) रोग तथा चोट:- बालक के विकास को रोग और चोट भी प्रभावित करते हैं | इसी प्रकार की शारीरिक अथवा मानसिक चोट बालक के विकास को रोक देती है या उचित दिशा में विकास नहीं होने देती | विषैली दवाओं के प्रभाव से भी विकास रुक जाता है |  शैशव अवस्था या बाल्यावस्था में गंभीर रोग हो जाने पर कभी-कभी उसका प्रभाव बालक के विकास को अवरुद्ध कर देती है |

(d) पारिवारिक पृष्ठभूमि:- पारिवारिक वातावरण और परिवार में स्थान बालक के विकास को काफी प्रभावित करता है | यदि परिवार आर्थिक रूप से संपन्न और खुले विचारों वाला है तो उसके बालक भी स्वस्थ खुले विचारों के होंगे | परिवार में बालक का स्थान बहुत महत्वपूर्ण होता है | परिवार में द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ बच्चे का विकास प्रथम बच्चे की अपेक्षा त्रिविता से होती है क्योंकि बाद में उत्पन्न बच्चों को विकसित वातावरण प्राप्त होता है तथा उन्हें बड़े भाई-बहनों के अनुकरण करने का अधिक अवसर मिलता है |

(e) विद्यालय:- बालक के विकास में विद्यालय के वातावरण, अध्यापक तथा शिक्षा के साधनों की  निर्णायक भूमिका होती है | जिन विद्यालयों में कक्षा शिक्षण के साथ-साथ पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन किया जाता है, वहां बालको को अपनी प्रतिभा के विकास के अवसर मिलते हैं | जिन विद्यालयों में बालकों के लिए निर्देशन परामर्श सेवाएं एवं स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध होती हैं, वहां के बालकों को अपनी समस्याओं का समाधान खोजने में सहायता मिलती है | अध्यापकों का व्यवहार भी बालको के विकास पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव डालता है |

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