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बाल्यावस्था Childhood

बाल्यावस्था आधुनिक संप्रत्यय और निर्माण (CHILDHOOD MODERN CONCEPT AND CONSTRUCT)

पूरे विश्व में बाल्यावस्था को मानव विकास की एक प्राकृतिक अवस्था माना जाता है। वास्तव में हम बाल्यावस्था को जैविक विशेषताओं के आधार पर समझते हैं। छोटे बच्चे अपने जीवन के लिए। पूरी तरह बड़ों पर निर्भर रहते हैं। शिशु न तो अपने आप आहार ले सकता है और न ही अपनी देखभाल कर सकता है। यदि नन्हें शिशु को बड़ों की देखभाल के बिना छोड़ दिया जाए तो उसकी मृत्यु स्वाभाविक है। जबकि पशुओं के बच्चे अधिक स्वयं समर्थ होते हैं। उदाहरणार्थ, गाय का बछड़ा/बछिया पैदा होने के कुछ ही देर बाद खड़ा होकर चलने लग जाता है।

बच्चों को खतरों और जोखिम से बचाना आवश्यक है, जैसे कार्य के स्तर पर शोषण, अश्लील साहित्य, दुव्यवहार आदि। बाल्यावस्था विकास की एक जैविक अवस्था ही नहीं है, इसके सामाजिक परिप्रेक्ष्य भी हैं, जो विभिन्न समाजों में विभिन्न समयों पर प्रवृत्तियों, विश्वासों और मूल्यों के आधार पर उपजे हैं। समय-समय पर विभिन्न समाजों में बाल्यावस्था की परिभाषाएँ और अपेक्षा बदलती रहती हैं। इतिहास के विभिन्न कालों में बच्चों के प्रति माता-पिता की जिम्मेदारियाँ भी बदलती रही हैं।

मध्य युग में बाल्यावस्था के प्रति दृष्टिकोण (VIEWS OF CHILDHOOD IN THE MIDDLE AGES)

कुछ इतिहासकारों के अनुसार 16वीं शताब्दी से पूर्व पाश्चात्य संस्कृति में बाल्यावस्था का संप्रत्यय जीवन की एक विशिष्ट अवस्था के रूप में विकसित नहीं हुआ था।

मध्यकाल के अन्त तक पश्चिमी देशों में बच्चों को प्रौढ़ों का लघु रूप जाने लगा था। 15वीं और 16वीं शताब्दी की चित्रकला में बच्चों का शारीरिक अनुपात और वस्त्र बड़ों के समान हो प्रदर्शित किए गए हैं। यदि इन चित्रों के बारे में कलात्मक अभिव्यक्ति के बाहर आकर सोचें, तो बच्चों से बड़ों की तरह ही व्यवहार की अपेक्षा की जाती थी। बच्चों से भी अपेक्षा की जाती थी कि वे अपने | माता-पिता के साथ सामाजिक जीवन के सभी आयामों में प्रतिभागिता करें। गन्दी भाषा, यौन व्यवहार आदि कुछ भी बच्चों के लिए वर्जित नहीं था। इस काल में बच्चों के लिए विशेष संरक्षण व देखभाल का कोई प्रत्यय नहीं था। बच्चों को बड़ों की तरह ही दण्ड दिए जा सकते थे।

मध्यकाल में नवजात शिशुओं की मृत्यु दर बहुत अधिक थी, जीवित बच्चों के अधिक वर्षों तक जीवित रहने की संभावना भी कम होती थी। 17वीं शताब्दी में फ्रांस में जन्म लेने के एक वर्ष के भीतर 20 से 50 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु हुई थी। लोग सोचते थे कि उन्हें अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने चाहिए, ताकि उनमें से कुछ जीवित बच जायें।

18वीं तथा 19वीं शताब्दी में बाल्यावस्था (CHILDHOOD IN THE 18TH & 19TH CENTURIES)

18वीं शताब्दी से बाल्यावस्था के प्रति दृष्टिकोण और प्रत्यक्षीकरण में परिवर्तन आने लगा। यह माना जाने लगा कि बच्चे नादान होते हैं और उन्हें देखभाल की आवश्यकता है। माता-पिता ने बच्चों को सामाजिक गतिविधियों और सामाजिक सरोकार पर ध्यान देना आरम्भ कर दिया।

18वीं शताब्दी के अन्तिम दशकों तक अनुशासन के नाम पर बच्चों की बुरी तरह से पिटाई करना, एक सामान्य बात थी। कभी-कभी धार्मिक सन्दर्भों का सहारा लेकर बच्चों के साथ निर्दयता बरती जाती थी।

बाल्यावस्था की परिभाषा हमेशा सामाजिक संस्थाओं से प्रभावित रही है। 18वीं शताब्दी के अन्तिम दशकों से पूर्व तक बालश्रम को बुरा नहीं माना जाता था। 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक फैक्टरियों में ज्यादातर बच्चे ही काम करते थे, उनका काम बड़ों के कामों जैसा ही होता था, कभी-कभी तो वे बड़ों से अधिक मेहनत करते थे। साइज में छोटे होने के कारण कभी-कभी उनको खतरनाक सेंकरी जगह काम पर लगा दिया जाता है; जैसे-फैक्टरी की चिमनी की सफाई, कभी-कभी बड़े लोग गैर-कानूनी काम में बच्चों का उपयोग करते थे; जैसे-भीख माँगना, चोरी करना, आदि।

19वीं शताब्दी के मध्य में पहले 'बाल संरक्षण संगठन' (Child Protection Organization) का उदय हुआ। सबसे पहले 1825 में अमेरिका में हाउस ऑफ रिफ्यूजी' (House of Refuge) की स्थापना हुई, जिसका उद्देश्य शोषित और अनदेखे किए गए बच्चों को शरण देना था। बाद के वर्षों में इस तरह की कई संस्थाओं की स्थापना हुई। परन्तु इन संस्थाओं में भी बालकों के कल्याण के संवेदनशीलता की कमी रही। ये संस्थाएँ बच्चों का संरक्षण नहीं, बल्कि प्रयास करती थीं कि बच्चे समाज के लिए आर्थिक बोझ और खतरा न बनें। उस समय बहुत लोग सोचते थे कि यदि बाल्यावस्था खराब हो जाएगी तो प्रौढ़ावस्था भी खराब होगी। इसीलिए हाउस ऑफ रिफ्यूजी की कोशिश थी कि शहरी क्षेत्र के गरीब बच्चों को आपराधिक प्रवृत्तियों से सुरक्षित किया जाए।

19वीं शताब्दी में, औद्योगीकरण के विकास ने बाल श्रम को बढ़ावा देना शुरू किया। किसी बच्चे की जन्म को इस दृष्टि से देखा जाता था कि एक भावी श्रमिक पैदा हुआ, जो परिवार की आर्थिक स्थिति को सँभालने में अपना योगदान देगा।

20वीं शताब्दी में बाल्यावस्था (CHILDHOOD IN 20TH CENTURY)

20वीं शताब्दी के मध्य तक औद्योगीकरण ने जोर पकड़ लिया था, बच्चों को आर्थिक कार्यों के • लिए जरूरी समझना कम हो गया। पैसा कमाने का काम माता-पिता का समझा गया, खासतौर पर पिता से अपेक्षा की जाने लगी कि घर के बाहर जाकर वह धन कमाए। परिणामस्वरूप अधिक बच्चे पैदा करने को आर्थिक बोझ समझना आरम्भ हो गया। साथ ही साथ बच्चों के प्रति संवेदनशीलता में वृद्धि हुई। बच्चों की परवरिश के बदले कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा शिथिल हुई। बच्चों को वांछित प्यार और देखभाल मिलने लगा।

चाल्यावस्था के आधुनिक संप्रत्यय व निर्माण को निम्न बिन्दुओं के द्वारा व्याख्यायित किया जा सकता है

1. मानव विकास की अवस्थाओं में बाल्यावस्था को सबसे महत्वपूर्ण माना जाने लगा है।

2. परिवार के अन्दर बच्चे बाहरी दुनिया से को सुरक्षित और संरक्षित महसूस करने लगे हैं। 

3. बच्चों को सुरक्षा और संतुष्टि देने के लिए माता-पिता अपनी सामर्थ्य के अनुसार भरपूर प्रयास करते हैं।

4. नाभिकीय पारिवारिक संरचना (Nuclear family structure) में बालक पर अत्यधिक ध्यान दिया जाने लगा, बाल केन्द्रित विचारों और विश्वासों को प्रमुखता मिलने लगी। 

5. विकासात्मक मनोविज्ञान का उदय हुआ, बालकों और बाल्यावस्था को विभिन्न अध्ययनों और शोध के माध्यम से विशेष प्रमुखता दी गई। एलन की (Ellen Key) ने 20वीं शताब्दी को बच्चों की शताब्दी" (The century of the child) कहा था। 

6. मनोवैज्ञानिकों का विकास दृढ़ हुआ कि बालक का विकास पूर्वनिर्धारित, रेखीय और आयु अनुसार होता है। 

7. इतिहास में पहली बार बालक वैज्ञानिक अध्ययनों और व्यावसायिक मनोविश्लेषण का केन्द्र बना।

8. आधुनिक परिवारों में माता की तरफ से बच्चे को पूर्ण सुरक्षा और ममता प्राप्त होती है, परन्तु कभी-कभी माँ के अत्यधिक संरक्षण से बालकों का विकास प्रभावित भी होता है।

9. बच्चों की भलाई के लिए चिकित्सा और मानसिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञों ने अपना अभूतपूर्व योगदान दिया, बच्चों के पालन-पोषण के नए तरीकों को प्रस्तुत किया, संवेगात्मक दृष्टि से विशिष्ट बच्चों को सहायता दी। बेन्जामिन स्पोक, विरजीनिया एक्सलाइन और एरिक एरिक्सन को विशेष प्रसिद्धि मिली।

10. 1950 में अमेरिका के घरों में टेलीविजन आ गया, जिसमें माता-पिता और बच्चों के मनोरंजन के कार्यक्रम प्रसारित किए जाने लगे। आरम्भ में टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों पर बड़ा सेंसर होता था। पारिवारिक समस्याओं, गरीबी, हिंसा और शोषण आदि से सम्बन्धित घटनाएँ टेलीविजन पर नहीं दिखाई जाती थीं, ताकि बच्चों पर गलत प्रभाव न पड़े।

11 सालों बाद महिलाओं में यह जागृति आई कि उन्हें केवल पति और बच्चों की देखभाल तक केही सीमित नहीं रहना चाहिए, वे अपने कैरियर के साथ-साथ अपने परिवार और अपने बच्चों की देखभाल भी अच्छी तरह से कर सकती हैं।

आधुनिक समय में यह मान लिया गया है कि व्यक्ति के जीवन-चक्र की सबसे महत्वपूर्ण अवस्था बाल्यावस्था है। इस अवस्था में हुए समाजीकरण और मनोवैज्ञानिक विकास जीवन भर व्यक्ति के कार्य और व्यवहार को प्रभावित करता है। बाल्यावस्था जीवन का एक महत्वपूर्ण अंश है, जिसमें बड़ों के द्वारा देखभाल और सुरक्षा आवश्यक है।

निर्धनता का बच्चों पर प्रभाव (EFFECTS OF POVERTY ON CHILDREN)

निर्धनता एक आर्थिक स्थिति है। बहुत से बच्चे ऐसे परिवारों में रहते हैं, जहाँ भोजन, वस्त्र और मकान का अभाव होता है। बच्चे अपने माता-पिता या परिवार के अन्य प्रौढ़ों पर निर्भर होते हैं। बच्चे परिवार की दशा तो बदल नहीं सकते, जब तक कि वे स्वयं वयस्क न हो जाएँ।

'निर्धनता का बच्चों पर प्रभाव का वर्णन करने से पूर्व यह समझना आवश्यक है कि बच्चों के लिए निर्धनता का क्या अर्थ है। माता-पिता के अपर्याप्त आय से बच्चों को वे सुविधाएँ नहीं मिल पात जो उनके विकास के लिए आवश्यक हैं। किसी परिवार के बालक का पालन-पोषण कैसा होगा, कैसा आहार प्राप्त होगा, कैसी शिक्षा मिलेगी, ये सब कुछ परिवार की आय पर निर्भर होता है।

निर्धनता बच्चों से उनका बचपन छीन लेती है। बच्चों की रोजमर्रा की जिन्दगी पर निर्धनता का प्रभाव पड़ता है। बच्चों पर निर्धनता के प्रभाव को निम्नवत् वर्णित किया जा सकता है:-

1. शारीरिक स्वास्थ्य (Physical Health)-गरीब बच्चों को अपनी आयु और शारीरिक माँग के अनुसार आहार प्राप्त नहीं हो पाता। आहार में पौष्टिक तत्वों की कमी के कारण उनका शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। वह जल्दी थक जाता है, रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। चिकित्सा सुविधाओं के अभाव के कारण बच्चों को स्वास्थ्य सम्बन्धी तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गरीबी के कारण ही गन्दे मकान, मनोरंजन का अभाव, छूत की बीमारियाँ आदि समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसका शारीरिक स्वास्थ्य पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है।

2. संज्ञानात्मक योग्यता (Cognitive Ability)-गरीब बच्चों का संज्ञानात्मक विकास (बुद्धि, शाब्दिक योग्यता, शैक्षिक उपलब्धि) भी पिछड़ जाता है। गरीब बच्चों को सीखने के कम अवसर मिल पाते हैं, जिससे उनकी संज्ञानात्मक क्षमताओं का विकास धीमी गति से होता है। निर्धनता स्वास्थ्य को प्रभावित करती है और स्वास्थ्य का प्रभाव संज्ञानात्मक विकास पर पड़ता है।

3. संवेगात्मक व सामाजिक विकास (Emotional and Social Development)-गरीब बच्चों का संवेगात्मक व सामाजिक विकास कुण्ठित हो जाता है। गरीबी निराशा पैदा करती है तथा असामंजस्य उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी है। गरीबी का स्वास्थ्य से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है और स्वास्थ्य का संवेगात्मक व्यवहार से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। अस्वस्थ और गरीब बच्चों के संवेगों में अधिक अस्थिरता होती है। संवेगात्मक और सामाजिक व्यवहार साथ-साथ चलते हैं। संवेगात्मक रूप से अस्थिर बच्चे समाज में अपना स्थान नहीं बना पाते।

गरीब परिवार के बालक को अच्छे निवास स्थान तथा वातावरण की उपलब्धता नहीं होती, आवश्यक सुख-साधन नहीं मिल पाते, अच्छे विद्यालयों में शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते, जिसका प्रभाव उनके संवेगात्मक और सामाजिक विकास पर पड़ता है।

4. बाल अपराध (Juvenile Delinquency)-बाल अपराधों पर किए गए सामाजिक सर्वेक्षणों से पता चलता है कि अधिकांश बाल अपराधी गरीब परिवारों के बच्चे होते हैं। बच्चों की अनेक प्रकार की इच्छाएँ होती हैं, वे ऐसी वस्तुएँ देखते हैं जो उन्हें आकर्षित करती हैं। जब सामान्य रूप से उसे प्राप्त नहीं कर पाते तो असामान्य ढंग से प्राप्त करने का प्रयास करते हैं तथा बाल अपराधी बन बैठते हैं। गरीबी के कारण छोटी-छोटी नौकरियाँ और जोखिम भरे कार्य करने लगते हैं, बुरी संगति का असर लेकर बाल अपराधी बन जाते हैं।

5. बाल श्रम और बाल दुरुपयोग (Child Labour and Child Misuse)- गरीबी के कारण माता-पिता अपने बच्चों को काम पर लगा देते हैं। अधिकांश जगहों पर उनकी उपेक्षा होती है, अनादर झेलना पड़ता है, लैंगिक दुर्व्यवहार होता है, शारीरिक चोटें और मानसिक प्रताड़ना दी जाती है। 

6. भिक्षावृत्ति (Begging)-गरीब लोगों के पास पर्याप्त साधन नहीं होते कि वे अपने बच्चों को मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी कर सकें। ऐसे में गरीब बच्चे और माता-पिता को भीख माँगने में किसी प्रकार की लज्जा नहीं आती।

7. नशाखोरी (Drug Use)-गरीब बच्चे छोटे-मोटे कार्य करने में लग जाते हैं; जैसे-घरेलू नौकर, कूड़ा बीनना, फैक्टरियों में काम करना आदि। वहीं बुरी संगति में नशा करना आरम्भ कर देते हैं। अक्सर रेल की पटरियों के किनारे रेल पुल के नीचे समूह में बच्चे नशा करते हुए पकड़े जाते हैं।

8. अपवंचन (Deprivation)-प्रत्येक बालक का अधिकार होता है कि वह अपना विकास अपनी योग्यता, क्षमता और साधन की सम्पन्नता के अनुरूप करे, परन्तु गरीब बच्चों को साधन, सुविधाओं और अवसरों से विमुख होना पड़ता है। निर्धनता के कारण उन्हें अपनी क्षमताओं को प्रदर्शित करने का अवसर नहीं मिल पाता है जिससे उनके विकास में अवरोध आ जाता है, क्योंकि वे अपवंचन का शिकार होते हैं।

वैश्वीकरण और बालकों का विकास (GLOBALIZATION AND DEVELOPMENT OF CHILDREN)

आज के युग में वैश्वीकरण और भूमण्डलीकरण- ये शब्द अत्यन्त प्रचलित हो गए हैं, विज्ञान ने पूरी दुनिया को एक छोटा सा गाँव बना दिया है। वैश्वीकरण मात्र आर्थिक अवधारणा ही नहीं है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक, सभी क्षेत्रों को व्यापक रूप से प्रभावित करती है, उनमें बड़े परिवर्तन लाती है। आज विश्व के किसी भी कोने में घटने वाली घटनाओं के बारे में इण्टरनेट या संचार के अन्य माध्यमों से विश्व के कसी भी कोने में बैठा व्यक्ति जान सकता है। राष्ट्र अपनी सीमाओं को पार कर विश्व समाज का सदस्य बन गया है। वैश्वीकरण को जनसंचार माध्यमों की नई-नई तकनीकों ने तेज किया; जैसे-कम्प्यूटर, टेलीविजन, मीडिया नेटवर्क आदि। वैश्वीकरण ने आर्थिक अन्तनिर्भरता को उस हद तक बढ़ा दिया है कि सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्र भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहे हैं। जिसमें कुछ सकारात्मक तथा कुछ नकारात्मक प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होते। बालकों के विकास पर भी वैश्वीकरण का सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव दिखाई देता है। बालकों के विकास के सन्दर्भ में वैश्वीकरण के प्रभाव को इस तरह प्रस्तुत किया जा सकता है

1. खान-पान व रहन-सहन (Food and Living Habits)- वैश्वीकरण के प्रभाव को आज बच्चों के खाने-पीने और रहन-सहन की आदतों में देखा जा सकता है। होटलों, कैन्टीन में खाना बच्चों को अच्छा लगता है। घर क बने भोजन की अपेक्षा फास्ट फूड उन्हें अधिक रुचिकर लगता है।

वैश्वीकरण के माध्यम से वस्त्रों पर पश्चिमी प्रभाव भी देखने को मिलता है। लड़के, लड़कियो दोनों के परिधानों में परिवर्तन आया है। इन परिवर्तनों को तब तक नकारात्मक नहीं माना जा सकता, जब तक वे अश्लीलता का प्रदर्शन न करते हों।

2. सांस्कृतिक जीवन (Cultural Life)- वैश्वीकरण का प्रभाव संस्कृति, परम्परा, मूल्यों और कली पर पड़ रहा है। इस प्रभाव / परिवर्तन में बालक का आचरण और व्यवहार भी प्रभावित हो रहा है। वैश्वीकरण के कारण भारतीय संस्कृति में आज भौतिकता का वर्चस्व है, जो बालकों में भौतिकता और स्वार्थपरता को जन्म दे रही है। बच्चों में अधीरता और असंतोष भी बढ़ रहा है। माता-पिता बच्चों के चतुर्मुखी विकास के बाए भविष्य में अच्छी नौकरी प्राप्त करने के उद्देश्य से विद्यालय भेजते हैं।

3. चुनौती (Challenges)- वैश्वीकरण के कारण शिक्षा के क्षेत्र में विविध प्रकार के परिवर्तन आए है। वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक शिक्षा को बढ़ावा मिला है। नवीन प्रौद्योगिकी की शिक्षा की होड़ में बच्चों का बचपन समाप्त होता जा रहा है। बच्चों को माता-पिता हर समय पढ़ाई, कोचिंग में ही लगाए रहते हैं, उन्हें खेलने का समय नहीं मिलता, मनोरंजन के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता।

4. सूचना दबाव (Information Pressure) - भूमण्डलीकरण के कारण आज का युग सूचना का युग बन गया है। बालक अधिक से अधिक समय मोबाइल, ई-मेल, इंटरनेट आदि पर ही लगे रहते है। सूचना दबाव के कारण उनके शारीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ होने की सम्भावना रहती है। 

5. प्रतिस्पर्धा (Competition)-वैश्वीकरण ने प्रतिस्पर्धा में अभूतपूर्व वृद्धि की है। शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। बालक एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए अनैतिकता का भी सहारा ले लेते हैं। बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा ने बालकों में सामूहिक महत्व को कम करने और व्यक्तिवादिता को बढ़ाने में योग दिया है।

6. नवीन दृष्टिकोण (New Opinion)- आज के बालक पुरातन मूल्यों, विश्वासों, आदशों आदि को परिवर्तित कर जीवन के प्रति नवीन दृष्टिकोण अपनाने को बाध्य हो रहे हैं। छोटे शहरों व गाँव-कस्बों के लोग अपने बच्चों को शिक्षा या कौशल प्रशिक्षण के लिए बड़े शहरों में भेज रहे हैं। घर-परिवार से अलग होकर ये बालक जीवन के प्रति नए दृष्टिकोण बना लेते हैं। कभी-कभी तो ये दृष्टिकोण सकारात्मक होता है, जैसे-जाति-पांति में भेदभाव न करना, परन्तु कभी-कभी नकारात्मक दृष्टिकोण भी धारित करने लगते हैं, जैसे- यौन अनैतिकता।

बाल्यावस्था में क्रियात्मकता में समानता और विविधता भारतीय सन्दर्भ में) (COMMONALITIES AND DIVERSITIES IN THE MOTION OF CHILDHOOD) (REFERENCE TO THE INDIAN CONTEXT)

बाल्यावस्था से पूर्व बालक के हाथ, पैर, सिर और धड़ की माँसपेशियों में परिपक्वता आ जाती है, वह अपने अंगों की क्रियाओं पर नियन्त्रण करना सीख जाता है। अंगों पर नियन्त्रण करना सीखने के बाद, उसके क्रियात्मक कौशलों का विकास होता है। शैशवावस्था में जिन क्रियात्मक कौशलों का विकास होता है, उन्हीं से सम्बन्धित क्रियात्मक कौशलों का विकास बाल्यावस्था में होता है। क्रियात्मक विकास बालक के जीवन का आधार होता है। क्रियात्मक विकास द्वारा वह आयु के प्रत्येक सोपान पर नवीन परिस्थितियों तथा वातावरण के साथ समायोजन स्थापित करता है।

बाल्यावस्था में सभी बालकों का क्रियात्मक विकास समान गति से नहीं होता है। माँसपेशियों के एकीकरण, नियन्त्रण तथा नाड़ियों के साथ संयोजन में मस्तिष्क के योगदान का स्तर सभी बच्चों में एक-सा नहीं होता। इसीलिए अपने भौतिक वातावरण और सामाजिक वातावरण पर नियन्त्रण करने की क्षमता के विकास में व्यक्तिगत भिन्नता पाई जाती है। बाल्यावस्था में क्रियात्मकता में समानता और विविधता के लिए अनेक व भिन्न-भिन्न कारण हो सकते हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य के विशेष सन्दर्भ में हम उन तत्वों का उल्लेख करेंगे जो समानता या विविधता के लिए उत्तरदायी हैं

1. बीमारी (Disease)- शारीरिक विकास तथा क्रियात्मक विकास का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। बालक की बीमारी उसके क्रियात्मक विकास में बाधक बन जाती है। बीमारी के कारण क्रियात्मक विकास रुकता नहीं है अपितु विलम्ब से होता है। क्योंकि बालक के भीतर निश्चित समय में क्रियात्मक योग्यताओं और कौशलों का विकास होता है अतः जो बालक बीमार रहते हैं उन्हें बीमारी की अवधि में उन क्रियात्मक कौशलों को सीखने का अवसर नहीं मिल पाता है जिससे वह उस कौशल को सीखने में अपनी आयु के बालकों से पीछे रह जाते हैं। इसी प्रकार गम्भीर बीमारियाँ; जैसे-टाइफाइड, निमोनिया आदि का प्रभाव बालक के शरीर पर काफी दिनों तक रहता है जिससे वे शारीरिक कमजोरी के कारण ठीक समय पर अपने शारीरिक कौशलों का विकास नहीं कर पाते हैं। यदि बालक को कोई ऐसी बीमारी या चोट है जिसका प्रभाव सीधे-सीधे हाथ या पैर पर पड़ता है तो बालक सही समय पर हाथ और पैर के कौशलों का विकास नहीं कर पाता है। अतः माता-पिता को अपने बालकों के स्वास्थ्य की देखभाल सही तरीके से करनी चाहिये।

2. शरीर रचना (Body Structure)- बालकों की शरीर रचना उनके क्रियात्मक विकास को प्रभावित करती है। बालकों के शरीर की लम्बाई तथा भार से उनका क्रियात्मक विकास प्रभावित होता है। बालकों का क्रियात्मक विकास अपनी निर्धारित आयु में हो इसके लिये यह जरूरी है कि शरीर के विभिन्न अंगों में उचित अनुपात हो। कुछ बालक सामान्य की तुलना में अधिक पतले और लम्बे तथा कुछ मोटे और नाटे होते हैं। शर्ली (Shirley) ने अपने अध्ययनों के फलस्वरूप बताया कि जिन बच्चों की मोटाई और वजन अधिक होता है। वे सामान्य बालकों की तुलना में देर से बैठना, खड़े होना तथा चलना सीखते हैं। जो बच्चे दुबले-पतले और कमजोर होते हैं उनमें विभिन्न क्रियात्मक क्षमतायें देर से विकसित होती है।

3. आहार (Nutrition)-स्वास्थ्य के लिये सन्तुलित व पौष्टिक भोजन परम आवश्यक है। संतुलित आहार से शरीर स्वस्थ रहता है। एक स्वस्थ बालक अस्वस्थ बालक की तुलना में अधिक क्रियाशील होता है। जिन बालकों को किसी कारणवश संतुलित व पौष्टिक भोजन नहीं मिल पाता है। उनकी अस्थि तथा माँसपेशियों का विकास भली प्रकार से नहीं हो पाता है। माँसपेशियों के पूर्ण विकसित न हो पाने के कारण क्रियात्मक विकास देर से होता है।

4. कसे वस्त्र ( Hampering Clothes) - कसे वस्त्र बालक के क्रियात्मक विकास में बाधक होते हैं। इस सम्बन्ध में किये गये प्रयोगों के फलस्वरूप हरलॉक (Hurlock) ने बताया कि यदि बालकों को बहुत अधिक कसे वस्त्र पहनाये जाते हैं तो उनके अंगों के विकास में ही रुकावट नहीं पड़ती अपितु अंगों के संचालन में कठिनाई आती है।

5. क्रियात्मक विकास (Motor Development)- क्रियात्मक विकास सही प्रकार से हो इसके लिये यह जरूरी है कि अंगों को गति करने का पर्याप्त अवसर मिले। अधिकांशतः देखा गया है कि माता-पिता सर्दी से बचने के लिये बच्चों को कसे वस्त्र पहना देते हैं। इससे उनकी गतिविधियों में अवरोध उत्पन्न होता है जिससे क्रियात्मक विकास विलम्ब से होता है। क्योंकि हाथ-पैर की गतिविधियों में अवरोध उत्पन्न होने से हाथ-पैर की क्रियाओं का अभ्यास नहीं हो पाता है। अतः माता-पिता को चाहिये कि वे अपने बच्चों को अधिक कसे वस्त्र न पहनायें।

6. बुद्धि (Intelligence) - शर्ली (Shirley) तथा जोन्स (Johns) के अनुसार बालक के प्रारम्भिक वर्षों में बुद्धि तथा क्रियात्मक योग्यताओं के विकास में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। अन्य मनोवैज्ञानिकों ने भी बालकों की बुद्धि परीक्षा करके बतलाया कि क्रियात्मक विकास पर बालक की बौद्धिक क्षमताओं का प्रभाव पड़ता है परन्तु ऐसा 2-3 वर्ष के बच्चों में ही पाया जाता है। दो वर्ष तथा इससे कम आयु के बालक जो बैठने, खड़े होने और चलने की क्रिया देर से करते हैं उनकी बुद्धि सामान्य कोटि के बालकों से कम होती है। 

मीड (Mead) ने सामान्य बुद्धि बालकों और दुर्बल बुद्धि बालकों के क्रियात्मक विकास का तुलनात्मक अध्ययन किया और देखा कि सामान्य बालक 14 माह की आयु में चलने लगे जबकि दुर्बल बुद्धि बालकों में चलने की क्षमता 25 माह की अवस्था में विकसित हुई।

7. बालकों में भय (Fear of Child)- बालकों में भय तथा साहस का अभाव उनकी क्रियात्मक योग्यताओं और क्रियात्मक कौशलों के विकास को विलम्बित कर देता है। बालकों में विभिन्न क्रियाओं के प्रति भय की उत्पत्ति के कई कारण हो सकते हैं, जैसे-निर्धारित आयु से पूर्व ही किसी क्रिया का अभ्यास कराना कोई भी कार्य करते समय चोट लग जाना, अप्रिय वातावरण में क्रिया का सम्पन्न करना आदि। अतः जब किसी क्रिया के प्रति बालक के मन में भय पैदा हो जाता है तो बालक का अपने ऊपर से विश्वास समाप्त हो जाता है वह पुनः उस क्रिया की पुनरावृत्ति का साहस नहीं करता है। फलस्वरूप डर के कारण बालक विभिन्न कौशलों को सीखने से वंचित रह जाता है। बच्चों को किसी क्रिया पर डाँटना, मना करना, हँसना, मुँह बनाना, ताना मारना भी बच्चों में भय उत्पन्न करता है।

8. प्रोत्साहन का अभाव (Lack of Incentives)-किसी भी कार्य में प्रोत्साहन प्रेरणा स्रोत का कार्य करता है। प्रोत्साहन से बालकों में कार्य के प्रति रुचि जागृत होती है और उत्साह बना रहता है। बालकों को प्रोत्साहन माता-पिता द्वारा भी प्राप्त हो सकता है तथा वह स्वयं भी दूसरे बच्चों की क्रियात्मक योग्यताओं को देखकर प्रोत्साहन प्राप्त कर सकता है। जिन परिवारों में कई बच्चे होते हैं वहाँ सबसे छोटे बच्चे को बड़े बच्चों के द्वारा प्रोत्साहन प्राप्त होता है जिससे वह बड़े बच्चों का अनुकरण कर किसी भी क्रिया को जल्दी सीख लेते हैं। इसके विपरीत जिन परिवारों में अकेला बालक होता है उसे अनुकरण तथा प्रोत्साहन के कम अवसर प्राप्त होते हैं तो उसका क्रियात्मक विकास देर से होता है।

बालकों को प्रोत्साहन मौखिक रूप से भी दिया जा सकता है जिसमें बच्चे के कार्य की प्रशंसा की जा सकती है। इसके अतिरिक्त प्रलोभन देकर भी क्रियात्मक विकास के अवसर प्रदान किये जा सकते हैं। इसके विपरीत यदि बालक को चलने फिरने, दौड़ने, खेलने आदि के लिये प्रोत्साहन प्राप्त नहीं होता है तो क्रियात्मक योग्यताओं के विकास की गति मंद रहती है।

9. सीखने के अवसर की कमी (Lack of Opportunity for Learning)-शारीरिक और मानसिक परिपक्वता होने पर भी यदि बालकों को सीखने के पर्याप्त अवसर प्राप्त नहीं होते हैं तो वह विभिन्न कौशलों को सीखने से वंचित रह जाते हैं। जो माता-पिता अपने बच्चों की क्रियाओं पर नियन्त्रण नहीं रखते हैं, बच्चों के विभिन्न कौशलों के विकास के लिये उन्हें साधन व सुविधायें प्रदान करते हैं उनके क्रियात्मक कौशलों और योग्यताओं का विकास भली प्रकार होता है। इसके विपरीत जिन बालकों को स्थान, साधनों के अभाव तथा माता-पिता के कठोर नियन्त्रण या अत्यधिक लाड़ प्यार के कारण सीखने के पर्याप्त अवसर प्राप्त नहीं होते हैं उनका क्रियात्मक विकास विलम्ब से होता है।

10. माँसपेशीय विकास के अवसर प्राप्त न होना (Lack of Opportunity for Muscular Development) - माँसपेशियों के विकास के लिये यह आवश्यक है कि बालक आयु के अनुसार विभिन्न क्रियाओं को स्वयं करें। क्रियाशीलता से माँसपेशियाँ मजबूत होती हैं। लेकिन वे बालक जिनके माता-पिता अत्यधिक लाड़ प्यार के कारण अपने बच्चों को हर समय गोद में रखते हैं तो ऐसे बालकों में खिसकने, रेंगने, बैठने और चलने की क्रिया का विकास देर से होता है। अतः माता-पिता को चाहिये कि वे अपने बच्चों को जमीन पर खेलने, चलने-फिरने, उछलने-कूदने आदि के पर्याप्त अवसर प्रदान करें। उनकी क्रियाओं पर निगरानी रखें जिससे दुर्घटना न हो उन पर नियन्त्रण नहीं नियन्त्रण उनके विकास को अवरुद्ध करता है।

11. व्यक्तिगत व्यक्तित्व सम्बन्धी शीलगुण (Individual Personality Traits)- प्रत्येक बालक का एक अलग व्यक्तित्व होता है जिसका निर्धारण उसके वंशानुक्रम तथा वातावरण सम्बन्धी तत्वों से होता है। बालक का व्यक्तित्व उसके क्रियात्मक विकास को प्रभावित करता है जो बालक स्वभाव में लज्जालु और अन्तर्मुखी होता है वह अपनी क्रियाओं का प्रदर्शन स्वतन्त्रतापूर्वक नहीं करता है जिससे उसे अभ्यास तथा सीखने का पर्याप्त अवसर प्राप्त नहीं हो पाता है। इसके विपरीत जो बच्चे बहिर्मुखी, साहसी, निडर, आत्मनिर्भर और तेज होते हैं वे क्रियात्मक कौशलों को जल्दी सीख जाते हैं।

बच्चों के शारीरिक और नैतिक विकास में माता-पिता और अध्यापकों की भूमिका (ROLE OF PARENTS AND TEACHERS IN PHYSICAL AND MORAL DEVELOPMENT OF CHILDREN)

बच्चों के शारीरिक और नैतिक विकास में माता-पिता और अभिभावकों को महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आइए, विचार करें:-

बच्चों के शारीरिक विकास में माता-पिता की भूमिका (Role of Parent in Physical Development of Children) - 

(i) जन्मोपरान्त बालक के शारीरिक विकास पर भौतिक वातावरण का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। माता-पिता का दायित्व है कि घर की भौतिक दशा, जलवायु, प्रकाश, हवा सभी तत्वों का ध्यान रखें जिससे कि बच्चों का शारीरिक विकास सन्तुलित और अपेक्षित रूप में हो। सके।

(ii) जो बच्चे शैशवावस्था अथवा बाल्यावस्था में अक्सर बीमार पड़ते रहते हैं, उनका शारीरिक विकास उचित रूप से नहीं हो पाता। माता-पिता का कर्तव्य है कि बच्चों को इन बीमारियों से बचाएँ, उचित समय पर टीके लगवाएँ, उचित और पोषण युक्त भोजन की व्यवस्था करें, संक्रमण से बचाएँ, बीमार पड़ने के लक्षण दिखाई पड़ते ही चिकित्सक की सेवाएँ लें।

(iii) बच्चों को मिलने वाला आहार उसके शारीरिक विकास को जन्म के पूर्व और जन्म के बाद विभिन्न अवस्थाओं में शारीरिक विकास को प्रभावित करता है। सम्पूर्ण गर्भकाल में माँ के द्वारा ग्रहण किया गया संतुलित और पौष्टिक भोजन गर्भस्थ शिशु का शारीरिक विकास सामान्य ढंग से करता है। जन्म के बाद शिशु आहार पौष्टिक और सन्तुलित तत्वों से युक्त होता है तो शिशु का शारीरिक विकास अच्छी तरह होता है। शिशु को पौष्टिक और संतुलित आहार उपलब्ध कराना माता-पिता का कर्तव्य है।

(iv) बालक के शारीरिक विकास का माता के स्वभाव से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। माँ को सर्वदा प्रसन्न और आशावादिता के साथ रहना चाहिए ताकि गर्भस्थ शिशु का शारीरिक विकास उत्तम तरीके से हो सके। अन्य अवस्थाओं में भी माता का क्रोध, चिन्ता, दुःखी रहना बालक के शारीरिक विकास का प्रभावित करता है।

(v) यदि माता-पिता अपने बच्चों के स्वास्थ्य का बिल्कुल ध्यान नहीं रखते अथवा वे अपने बच्चों को अत्यधिक कड़े अनुशासन में रखते हैं तो बालक का शारीरिक विकास संतुलित रूप से नहीं हो पाता हैं। 

(vi) बच्चों को शारीरिक दुर्घटनाओं से बचाना माता-पिता का एक अहम् कर्तव्य होता है। बच्चों को जोखिम भरे खेलों, कार्यों से बच्चों को दूर रखना चाहिए। ऐसे खेलों व कार्यों से बच्चे अपंग हो सकते हैं। बच्चों की शरीर रचना और स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है।

(vii) माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को नियमित दिनचर्या का प्रशिक्षण दें। समय से खाना-पीना, खेलना, सोना आदि शारीरिक विकास के लिए आवश्यक है। 

(viii) माता-पिता को चाहिए कि बच्चों के स्वस्थ और सन्तुलित शारीरिक विकास के लिए उन्हें खेल और व्यायाम के समुचित अवसर प्रदान करें। बच्चों के विश्राम और निद्रा पर भी विशेष ध्यान रखना चाहिए, तभी बच्चों का अच्छा शारीरिक विकास हो सकेगा।

बच्चों के शारीरिक विकास में अध्यापकों की भूमिका-बालक के शारीरिक विकास के सन्दर्भ में अध्यापकों की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसका निर्वहन इस प्रकार होना चाहिए 

(i) उपयोगी कार्यों से बालकों को नियमित दिनचर्या का महत्व समझाना आवश्यक है।

(ii) शारीरिक विकास की दृष्टि से प्रत्येक बालक भिन्न-भिन्न होता है। उनकी इस वैयक्तिक भिन्नता को अनुकूल कार्यक्रमों में लगाकर विकसित किया जाना चाहिए। 

(iii) कक्षा और कक्षा के बाहर ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करना चाहिए जिससे बालकों को शारीरिक शक्ति, चाल और विशुद्धता को बढ़ाने का अवसर मिल सके। 

(iv) बालकों के लिए खेलकूद और व्यायाम की क्रियाओं का आयोजन करना चाहिए।

(v) बालकों को यह सिखाना आवश्यक है कि वे किस प्रकार स्वस्थ रह सकते हैं और अपने स्वास्थ्य के स्तर को उच्च बना सकते हैं।

(vi) बालकों को सन्तुलित आहार, शुद्ध जल, वायु, प्रकाश एवं व्यायाम सम्बन्धी नियमों का ज्ञान कराएँ ।

(vii) विद्यार्थियों को दुर्घटनाओं एवं विभिन्न बीमारियों के कारण एवं उनसे बचने के विषय में बताएँ।

(viii) अध्यापकों का कर्तव्य है कि वे उन दोषों से विद्यालय स्वास्थ्य केन्द्र के चिकित्सक को अवगत कराएँ जिनके लक्षण बालकों में विकसित होने की सम्भावना है। 

(ix) जो विद्यार्थी सुस्त, स्फूर्ति से वंचित, उदासीन रहते हैं, जो खेलकूद या व्यायाम में भाग लेने से जी चुराते हैं, उनके अभिभावकों से मिलकर समस्या की जानकारी देनी चाहिए। 

बच्चों के नैतिक विकास में माता-पिता की भूमिका-बालकों के नैतिक विकास में माता-पिता की सक्रिय भूमिका रहती है, जिसे इस प्रकार समझा जा सकता है:-

(i) नैतिक विकास घर-परिवार से ही आरम्भ होता है। बालक के माता-पिता स्वयं नैतिक रूप से संस्कारित होंगे, तो उसका प्रभाव निश्चित रूप से पारिवारिक वातावरण पर पड़ेगा। ऐसे वातावरण में बच्चों का नैतिक विकास उत्तम ही होगा।

(ii) बच्चों की मूल प्रवृत्तियों का समाजीकरण गृह में रहकर ही होता है। माता-पिता से बालक को स्नेह, दया, सहयोग, सहानुभूति, ममता, त्याग, बलिदान आदि की सौख प्राप्त होती है।

(iii) जीवन की सरलता, सहजता और समग्रता का पाठ माता-पिता को ही पढ़ाना होता है। अपने बच्चों को उचित-अनुचित में अन्तर करना, न्याय-अन्याय को समझा आदि की शिक्षा माता-पिता दे सकते हैं।

(iv) माता-पिता का सौहार्दमय व्यवहार बच्चों के नैतिक विकास का प्रेरक होता है। कठोर व्यवहार बच्चों के नैतिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। 

(v) बच्चों के नैतिक विकास में मित्र और साथियों का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। बच्चों की नैतिक अभिवृत्तियाँ, आस्थाएँ, रुचियाँ, मनोभाव, आदत व चरित्र पर मित्र और संगी-साथियों का प्रबल प्रभाव पड़ता है। सचेत और सतर्क माता-पिता साथियों के दबाव (Peer pressure) से अपने बच्चों को सुरक्षित रखते हैं।

(vi) माता-पिता बालक को अपने जीवन में नैतिक मूल्यों का पालन करना सिखाते हैं, तो वह अपने किसी भी कृत्य से डरता नहीं है क्योंकि वह जानता है कि उसका कृत्य नियमों के विरुद्ध नहीं है। अतः वह किसी भी समस्या पर स्वतन्त्रतापूर्वक अपने विचार रख सकता है।

(vii) माता-पिता जिस धर्म में आस्था रखते हैं, उसका बालक के नैतिक विकास पर प्रभाव पड़ता हैं, जो स्थायी होता है।

(viii) खाली समय में बालक किस प्रकार अपना समय व्यतीत करता है, इस पर भी उसका नैतिक व्यवहार निर्धारित होता है। बालक को पढ़ने के लिए अच्छा साहित्य, खेलने के लिए रचनात्मक उपकरण और सामग्री, मनोरंजन के लिए उचित साधन उपलब्ध कराके माता-पिता बच्चों के नैतिक विकास में अपनी सफल भूमिका निभा सकते हैं।

बच्चों के नैतिक विकास में अध्यापकों की भूमिका-बालक के नैतिक विकास के लिए अध्यापकों से बहुत सी अपेक्षाएँ होती हैं। बालक के लिए उसका अध्यापक आदर्श होता है, अत: बालक के नैतिक विकास में अध्यापकों की भूमिका निम्नवत् आँको जाती है:- 

(i) बालक अपने अध्यापक का अनुकरण और अनुसरण करता है। अपने विद्यार्थियों की उपस्थिति में अध्यापक जैसा आचरण करता है, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में विद्यार्थी उसे आत्मसात् करता है। 

(ii) अध्यापकों को अपने विद्यार्थियों के सामने नैतिक आदर्शों को प्रस्तुत करने चाहिए और उन्हें प्राप्त करने के तरीके बताने चाहिए। 

(iii) अध्यापक को चाहिए कि बालकों में सत्य, अहिंसा, सहयोग, ईमानदारी, आज्ञाकारिता, न्याय और समाज सेवा जैसे मनोभावों, आदतों तथा नैतिक अभिवृत्तियों को विकसित करने के लिए सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय उत्सवों का समयानुसार आयोजन करें।

(iv) बालक की मूल प्रवृत्तियों का दमन न करके, मूल प्रवृत्तियों का मार्गान्तरीकरण और शोधन करके, उनके व्यवहार को समाज के अनुकूलन बनाना चाहिए। ((v) बालक के संवेगात्मक विकास का अध्ययन करके उनका उचित मार्ग निर्देशन करना चाहिए।

(vi) विद्यार्थियों को नैतिकता की शिक्षा नियमित रूप से देनी चाहिए। बालकों को अच्छे गुणों और कार्यों का अनुकरण करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए तथा आत्म-निर्देश की क्षमता जागृत करनी चाहिए।

(vii) अध्यापक बालकों में बहुमुखी क्षमता का विकास करके उन्हें नैतिकता की ओर उन्मुख कर सकता है। इसके लिए मूर्त और अमूर्त पुरस्कारों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

(viii) बच्चों के सामने महान लोगों के उदाहरण प्रस्तुत करने चाहिए। महापुरुषों की जीवनियाँ पढ़ने के लिए विद्यार्थी को प्रेरित करना चाहिए।

(ix) नैतिक समस्याओं पर परिचर्चा आयोजित करना लाभप्रद होता है। 

(x) बच्चों के नैतिक विकास के लिए सामूहिक प्रार्थना, प्रातःकालीन वंदना, उदात्त चरित्रवान लोगों की बातें और वर्तमान में कार्यरत विद्वानों की वार्ताएँ नैतिक विकास में सहायक होती हैं।

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