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बाल्यावस्था और समाजीकरण Childhood and Socialization

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बाल्यावस्था और समाजीकरण Childhood and Socialization


बाल्यावस्था के सन्दर्भ में समाजीकरण को व्याख्यायित करने से पूर्व समाजीकरण को समझ लेना आवश्यक है। समाजीकरण को प्रमुख उद्देश्य है-एक व्यक्ति को अपने समूह या समाज के नियमों और मानकों के अनुसार विकसित होने में सहायता देना।

जन्म के समय शिशु किसी समाज के क्रियाकलापों व व्यवस्थाओं में भाग लेने योग्य नहीं होता क्योंकि वह समाजिक-सांस्कृतिक व्यवहार से परिचित ही नहीं होता। समाजीकरण के द्वारा अपने समूह एवं समाज के मूल्यों, जनरीतियों, लोकाचारों, आदर्शों एवं सामाजिक उद्देश्यों का ज्ञान होता है। समाजीकरण वह विधि है जिसके द्वारा संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित किया जाता है।

समाजीकरण की परिभाषाएँ (DEFINITIONS OF SOCIALIZATION)

ग्रीन के अनुसार- "समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बच्चा सांस्कृतिक विशेषताओं, आत्मपन, और व्यक्तित्व को प्राप्त करता है। "
"Socialization is the process by which the child acquires a cultural content along with selfhood and personality." -A. W. Green

स्टीवर्ट और ग्लिन के अनुसार- "समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोग अपनी संस्कृति के विश्वासों, अभिवृत्तियों, मूल्यों और प्रथाओं को ग्रहण करते हैं।"
"Socialization is the process by which people acquire the beliefs, attitudes, values, and customs of their culture." -Stewart and Glynn 

जे. एस. रॉस के अनुसार-"समाजीकरण साथियों में सामूहिक भावना का विकास, क्षमता का विकास तथा साथ-साथ कार्य करने की इच्छा शक्ति है। " 
"Socialization is the development of we feeling in associates and the growth of their capacity and will to act together." -J.S. Ross 

ड्रेवर के अनुसार-"समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक बनकर अपने सामाजिक वातावरण का अनुकूलन करता है तथा इसक एक मान्यता प्राप्त सहयोगी और कार्यकुशल सदस्य बनता है।" 
"Socialization is the process by which the individual is adopted to his social environment by attaining social confirmity and becomes a recognized, co-operating and efficient member of it." -Drever 

हैविंगहर्स्ट तथा न्यूगार्टन के अनुसार-"समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बच्चे अपने समाज के तौर-तरीकों को सीखते हैं तथा उन्हें अपने व्यक्तित्व का भाग बनाते हैं।" 
"Socialization is the process by which children learn the ways of their society and make these ways part of their own personality." -Havinghurst and Newgarton

बालक का समाजीकरण (SOCIALIZATION OF THE CHILD)

प्रथम अवस्था (I Stage) जन्म के बाद शिशु अपनी माता के सिवाय और किसी को नहीं जानता। इसीलिए मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने इस स्थिति को प्राथमिक परिचय' (Primary identification) कहा है। शिशु को माँ के शारीरिक सम्पर्क से आनन्द की अनुभूति होती है। यह अवधि एक-डेढ़ वर्ष तक रहती है।

द्वितीय अवस्था (II Stage)-भारतीय समाज में यह अवस्था डेढ़-दो वर्ष की आयु से तीन-चार वर्ष की आयु तक चलती है। बच्चे की छोटी-छोटी बातें सिखाई जा सकती हैं, उदाहरणार्थ- कब और कहाँ शौच करना चाहिए, भोजन से पहले हाथ धोना चाहिए, आदि। इस अवस्था में माता के साथ-साथ परिवार के अन्य सदस्यों के सम्पर्क में आता है, उसके सामाजिक सम्बन्धों का विकास होता है।

तृतीय अवस्था (III Stage)- यह अवस्था लगभग चार वर्ष की आयु से आरम्भ होकर 12-13 वर्ष की आयु तक चलती है। बच्चे को परिवार का एक सदस्य समझा जाने लगता है। बालक को अपने लिंग के अनुसार अपने को ढालने का प्रशिक्षण दिया जाता है। पुत्र माँ के प्रति और पुत्री का पिता के प्रति प्यार प्रगाढ़ होता है। बच्चा अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की तलाश में अपने साथियों के समूह में आनन्द लेता है। इस अवस्था में बालक सामाजिक भूमिका और सामाजिक समूह से तादात्मीकरण (identification) करने लगता है।

चतुर्थ अवस्था (IV Stage)- यह किशोरावस्था है। किशोर-किशोरी अपने माता-पिता व समाज के अन्य अभिकरणों के नियन्त्रण से स्वयं को स्वतन्त्र करने का प्रयास करते हैं। किशोर अपने परिवार के अतिरिक्त पड़ोस, विद्यालय, खेल के साथियों और नए लोगों के सम्पर्क में आता है। इन सभी की भावनाओं और विचारों, व्यवहारों से उसे समायोजन करना होता है। वह अपनी संस्कृति के निषेधों का पालन करना सीखता है; जैसे-आहार सम्बन्धी निषेध, यौन सम्बन्धी निषेध आदि। इस अवस्था में उसको अनेक नए-नए और आश्चर्यजनक अनुभव होते हैं। इस अवस्था में नैतिकता की भावना का अधिकतम विकास हो जाता है। इस अवस्था में सांस्कृतिक मूल्यों एवं व्यक्तिगत अनुभवों द्वारा किशोर में आत्म नियन्त्रण की क्षमता होती है।

परिवार के प्रौढ़ सदस्यों से सम्बन्ध, माता-पिता द्वारा देखभाल व पालन-पोषण के आलोक में बालक का समाजीकरण (SOCIALIZATION OF A CHILD IN THE LIGHT OF RELATIONSHIP WITH FAMILY ADULTS, PARENTING AND CHILD REARING PRACTICES)

बच्चे के समाजीकरण पर सबसे अधिक प्रभाव परिवार के प्रौढ़ सदस्यों और माता-पिता के द्वारा देखभाल और पालन-पोषण के तरीके का पड़ता है। बालक के समाजीकरण की प्रथम पाठशाला परिवार ही होता है। बालक अपने परिवार के सदस्यों माता-पिता, सम्बन्धियों से बहुत कुछ सीखता है, उनके व्यवहार, तौर-तरीके, रहन-सहन का अनुकरण करता है। आइए, हम उपर्युक्त चरों और बालक के समाजीकरण के में सम्बन्ध का विश्लेषण करें

1. बालक के समाजीकरण हेतु परिवार के प्रौढ़ सदस्यों के साथ उसका सुसम्बन्ध होना आवश्यक है, तभी बच्चे उनका अनुसरण करेंगे।

2. बालकों की कुछ मूल आवश्यकताएँ होती हैं, माता-पिता व परिवार के अन्य सदस्यों को चाहिए कि वे बच्चों को एहसास कराएँ कि वे उन्हें प्यार करते हैं तथा उनके साथ रहकर खुश हैं। बच्चे संवेदनशील होते हैं, प्रौढ़ों की प्रशंसा भरी बातें बच्चों को अनुभूति कराती हैं कि ये सभी लोग उसको चाहते हैं। उसको घर में छोटी-छोटी जिम्मेदारी दी जाए तथा उनकी पहल और निर्णय शक्ति का सम्मान व सराहना की जाए।

3. बच्चे को जब यह एहसास होता है कि आवश्यकता के समय परिवार के प्रौढ़ सदस्य उसको संरक्षण देते हैं, चिन्ता के विषयों पर माता-पिता की राय ले सकता है, तो उसका समाजीकरण उचित ढंग से होता है। सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रवेश करने में बालक को हिचक नहीं होती, उसको समाज के मूल्यों और मानकों को स्वीकार करने में सरलता होती है।

4. बच्चे अपने माता-पिता के अधिक नजदीक होते हैं, माता-पिता को देखकर ही सीखने का तरीका अपनाता है। बच्चा अपने माता-पिता के साथ रहना पसन्द करता है। वह चाहता है कि माता-पिता उसे घुमाने-फिराने ले जाएँ, जहाँ वह अपने माता-पिता के साथ घुल-मिल कर बात कर सकता है। बच्चा अपने माता-पिता के साथ घूमने-फिरने का अवसर पाता है तो महसूस करता है कि वे उसके सच्चे मित्र हैं, उसके अद्भुत विचार पर गुस्सा नहीं करेंगे, डाटेंगे नहीं। इससे उसका आत्म विश्वास मजबूत होता है, समाजीकरण के दौरान आत्मविश्वास के सहारे वह अपने नैराश्य और आक्रामक मनोवेग को नियन्त्रित करने में सक्षम बनता है।

5. बालक के समाजीकरण में बालक एवं माता-पिता के बीच अनुक्रिया विशेष रूप से महत्वपूर्ण होता है। बहुत से परिवार ऐसे होते हैं जहाँ माता-पिता दोनों अपने कार्य/व्यवसाय में व्यस्त रहते हैं, बच्चों को समय नहीं दे पाते। अगर घर में रहते भी हैं तो अपने कमरे में माता टेलीविजन देखने में व्यस्त रहती है, पिता दफ्तर की फाइलों में उलझे रहते हैं, बच्चे अलग कमरे में क्या कर रहे हैं, उन्हें ध्यान ही नहीं रहता। ऐसे में बच्चों, बालक और माता-पिता के मध्य शून्य अनुक्रिया रहती है। शून्य अनुक्रिया बालक के समाजीकरण के लिए घातक होती है।

6. जो माता-पिता बालकों को कठोर नियन्त्रण में रखते हैं, उनके व्यक्तित्व को आदर नहीं देते, सभी बालकों के साथ समान व्यवहार नहीं करते, तो ऐसे बालक तिरस्कार और नियन्त्रण से सदैव भयभीत रहते हैं, ऐसे बालक या तो अन्तर्मुखी हो जाते हैं या फिर क्रान्तिकारी प्रवृत्ति के हो जाते हैं तथा समाज विरोधी आचरण करने लगते हैं। बच्चों की गतिविधियों से अपरिचित रहना बहुत बड़ा खतरा होता है, बच्चे इन्टरनेट का दुरुपयोग करने लगते हैं, संचार के अन्य माध्यमों से कुसंगति में पड़कर अपराध की राह पर चल पड़ते हैं।

7. जो माता-पिता अपने बच्चों को स्वस्थ मनोरंजन के साधन नहीं उपलब्ध करा पाते, उनके बच्चे छुप-छुप कर अश्लील मनोरंजन का आनन्द लेने लगते हैं, जो बच्चों को समाज के प्रतिकूल व्यवहार के लिए प्रेरित करता है।

8. अति व्यस्तता या अन्य कारणों से जब कुछ माता-पिता/अभिभावक अपने बच्चों की संगति पर ध्यान नहीं देते। बालक के व्यवहारों के निर्धारण में संगति की अहम् भूमिका होती है। दुष्चरित्र बालकों के संगत में पड़कर अच्छे बालक भी असामाजिक बन जाते हैं। साथियों की अभिवृत्तियों, आस्थाओं, रुचियों, मनोभाव तथा चरित्र का प्रबल प्रभाव बालक के समाजीकरण पर पड़ता है।

बच्चे: माता-पिता से पार्थक्य (CHILDREN: SEPARATION FROM PARENTS)

जब बच्चे अपने माता-पिता से अलग हो जाते हैं, तो उन्हें परिवार के खो जाने का अहसास होता है और स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। माता-पिता और बच्चों के बीच जो अनुक्रियात्मक सम्बन्ध होते हैं उनके बालक मनोवैज्ञानिक परिपक्वता ग्रहण करता है और वह विविध विकासात्मक कार्य सीखता है। मृत्यु, तलाक या अन्य किसी कारण से बच्चे जब अपने माता-पिता से अलग हो जाते हैं तो उनका मनोवैज्ञानिक विकास प्रभावित होता है। सबसे अधिक प्रभाव बच्चे के संज्ञानात्मक और शारीरिक विकास पर पड़ता है।

माता-पिता से अलग होकर बच्चे परिवार खो देने के साथ-साथ बहुत कुछ खो देने का दर्द महसूस करते हैं; जैसे-माता-पिता के साथ बिताया जाने वाला समय, विस्तृत परिवार, पारिवारिक घर, पालतू जानवर, पड़ोसियों की कमी, अपना विद्यालय, अपने मित्र आदि। माता-पिता से अलग होने के बाद कुछ समय तक बच्चे बड़े सशक्त संवेग अनुभव करते हैं; जैसे-दु:ख (Sadness), अनिश्चितता (Uncertainty). क्रोध (anger) अपराध (guilt), चिन्ता (worry). लज्जा (shame), विरोध (resentment), निष्ठा (loyalty), ईर्ष्या (jealousy), भय (fear) और संभ्राति (confusion)। ऐसे बच्चे विद्यालय या घर में बहुत अधिक संवेगात्मक व्यवहार का प्रदर्शन करते हैं।

माता-पिता से पार्थक्य का प्रभाव (EFFECTS OF SEPARATION FROM PARENTS)

एक वर्ष तक के बच्चे पर प्रभाव (Effects during the First Year Life)

माता-पिता से अलग होने पर कुछ समय तक बच्चा खिन्न और चिड़चिड़ा रहता है। माता-पिता की अनुपस्थिति में अन्य प्रौढ़ों पर अपनी सुरक्षा के सन्दर्भ में विश्वास कम हो जाता है। उसके रोजमर्रा के काम का समय और तरीका बदल जाता है, जिससे नई-नई चुनौतियाँ सामने आती हैं, क्योंकि वह पूरी तरह अपने माता-पिता पर ही निर्भर रहता है।

यदि बच्चे की इस निर्भरता की आवश्यकता का हल नहीं निकलता तो इसके दूरगामी प्रभाव अत्यन्त क्षति पहुँचाने वाले होते हैं। जैसे-दूसरों पर विश्वास न कर पाना, अधिगम समस्यायें आदि। एक से तीन वर्ष के बच्चे पर प्रभाव (Effects during 1-3 Ages)

इस आयु में बच्चा कुछ कुछ आत्मनिर्भर होने लगता है। माता-पिता के पार्थक्य से उसकी निर्भरता और आत्मनिर्भरता के मध्य सम्बन्ध बिगड़ जाता है। माता-पिता के अभाव में उसकी आत्म-पहचान गड़बड़ाने लगती है। परिवार में परिवर्तन आ जाने के कारण वह अपनी पहचान में उलझ जाता है। उसकी भाषा अर्जन के कौशल में परिवर्तन हो जाता है क्योंकि माता-पिता के साथ अनुक्रिया करके भाषा सीखता है।

यदि बच्चे पर इन तात्कालिक प्रभावों को नियन्त्रित नहीं किया जाता तो गम्भीर प्रभाव हो सकते है। बच्चा स्वयं को हमेशा पीड़ित ही समझता रहेगा। उसके 'अहम्' विकास (ego development) पर गम्भीर प्रभाव पड़ सकता है। व्यक्तित्व सम्बन्धी समस्यायें भी सामने आती है। वह अपनी क्षमताओं

और योग्यता को पहचान नहीं पाता। प्रौढ़ों की दृष्टि में ये बालक अपने क्रोध को नियन्त्रित नहीं कर पाते। 3-6 वर्ष के बच्चों पर प्रभाव (Effects during 3 to 6 Years Age)

तात्कालिक प्रभाव को बच्चों के चिन्तन पर देखा जा सकता है। वे समझ नहीं पाते कि उन्हें माता-पिता से क्यों अलग होना पड़ा है। बालक बड़ों से भेदभाव करने लगता है। वह अपने और दूसरों

के बारे में अच्छी और बुरी भावनाओं में उलझ जाता है। लम्बे समय तक यदि ये तात्कालिक प्रभाव चलते हैं तो बालक अच्छे और बुरे को समझने में

हमेशा संघर्ष करना रहता है।

बाल्यावस्था में प्रभाव (Effects during Childhood)

इस अवस्था में बालक जल्दी व्यथित हो जाते हैं, उनकी कार्य क्षमता पर असर होता है। इस आयु के बच्चे अपने और अपने मित्रों के मध्य अन्तर को समझते हैं। जिन बच्चों को अपने माता-पिता से अलग होना पड़ता है, वे माता-पिता के साथ रहने वाले अपने मित्रों से समस्यात्मक व्यवहार करने

लगते हैं।

उपर्युक्त प्रभावों के कारण बालक के विद्यालयी कार्यों और व्यवहारों पर असर पड़ता है, साथियों से सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। बालक के साथ आत्म-नियन्त्रण की समस्यायें उत्पन्न होती हैं। किशोरावस्था में प्रभाव (Effects during Adolescence)

किशोरावस्था आत्मनिर्भरता की अवस्था है। किशोरों में नवीन शक्ति से अद्भुत स्फूर्ति उत्पन्न हो जाती है। नवीन अभिभाषाएँ उनमें नवीन रूप से उठने लगती हैं। वे माता-पिता के नियन्त्रण से स्वतंत्रता पाना चाहते हैं, उनका विरोध करते हैं, कभी-कभी विद्रोह भी करते हैं। माता पिता के पार्थक्य से उनकी यह प्रवृत्ति असन्तुष्ट रह जाती है।

एक यह भी महत्वपूर्ण वास्तविकता है कि जब किशोर के इस पार्थक्य जीवन की दूसरों के द्वारा

बहुत बात चीत की जाती है तो वह आत्म-नियंत्रण खो देता है। अपने इन व्यवहारों के कारण यदि

किशोर यह महसूस करने लगे उसने अपने माता-पिता को खोकर पूरा जीवन ही खो दिया है तो वह

असामाजिक पथ पर चल पड़ता है या आत्महत्या का विचार बना लेता है।

पार्थक्य के प्रभावों को कम करने के उपाय (MINIMIZE THE EFFECTS OF SEPARATION)

बच्चों के ऊपर पड़ रहे पार्थक्य के प्रभावों को कम करने के लिए देखभाल करने वालों तथा अध्यापकों से बहुत सी अपेक्षाएँ होती हैं, जैसे

1. यदि बच्चा बहुत छोटा है तो देखभाल करने वालों को बच्चे की प्रारम्भिक विकासात्मक आवश्यकताओं के लिए हमेशा उपलब्ध रहना चाहिए।

2 बच्चे की निर्भरता की आवश्यकताओं पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए और धीरे-धीरे उसे आत्मनिर्भरता का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। 

3. बच्चों को अपने कार्यों के लिए आत्मनिर्भर बनाने के लिए बहुत दबाव डालना गलत है।

4. बच्चों को यह समझाना चाहिए कि माता-पिता से पार्थक्य के लिए वे दोषी नहीं है। 

5. देखभाल करने वालों को सतर्क रहना चाहिए कि बच्चा स्वयं को परिवार का एक महत्वपूर्ण सदस्य समझे, न कि उसे यह अहसास हो कि परिवार में अब उसकी कोई जगह नहीं है।

6 खेलने के पर्याप्त अवसर दिए जाने चाहिए। खेल से बच्चों की बहुत सी समस्यायें | मनोवैज्ञानिक तरीके से सुलझ जाती हैं।

7. बच्चे को तात्कालिक अवसर प्रदान करना चाहिए कि वह अपनों दुःखों को निकाल सके, ताकि उसके बाद वह अपने शैक्षिक या मित्रता सम्बन्धी कार्यों में उचित तरीके से लग सके। 

8. बाल्यावस्था के बच्चों को यह समझने में सहायता करनी चाहिए कि उन्हें माता-पिता से क्यों अलग होना पड़ा है।

9. बच्चों की आयु के अनुसार उन्हें कार्यों में व्यस्त रखना चाहिए ताकि वे पुराने लगाव/जुड़ाव के स्थान पर नए लगाव/जुड़ाव की ओर बढ़ सकें। 

10. किशोरों को यह विश्वास दिलाना चाहिए कि माता-पिता के बिना भी वे अपने जीवन को चला सकते हैं।

11. किशोरों को अपने लिए निर्णय लेने के अवसर प्रदान करने चाहिए।

क्रेच में बच्चे (CHILDREN IN A CRECHE)

जब माता-पिता दोनों नौकरी करने वाले होते हैं, तो उन्हें अपने बच्चे की देखभाल के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता होती है। वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में बहुत से लोग 'क्रेच' का = चुनाव करते हैं, जहाँ बच्चे सुविधाजनक तरीके से और सुरक्षित रह सकते हों। क्रेच वह स्थान है जहाँ माता-पिता द्वारा दिन के अधिकांश घण्टों के लिए अपने बच्चों को छोड़ा जाता है, क्योंकि वे दोनों हो कार्यरत होते हैं, अपने बच्चों को अपनी नौकरी के घंटों में साथ नहीं रख सकते। क्रेच शैशवावस्था वाले इन बच्चों की देखरेख (daily care) करते हैं।

क्रेच के लाभ (ADVANTAGES OF A CRECHE)

1. बच्चे की आयु के अनुरूप क्रेच में आरामदायक और उद्दीपनयुक्त वातावरण होता है। 

2 क्रेच में बच्चों की आयु के अनुरूप बहुत से खिलौने होते हैं, इतने खिलौने उन्हें अपने घर में नहीं मिल पाते। बहुत से क्रियाकलाप बच्चे अपने घरों में नहीं कर सकते; जैसे-बालू के गड्ढे में खेलना, पानी के ताल-तलैया में हाथ-पैर चलाना आदि। इस तरह के क्रियाकलाप बच्चों के विकास में ही सहायक नहीं होते, बल्कि अपनी ही आयु के अन्य बच्चों के साथ खेलने से उनका समाजीकरण भी होता है।

3. क्रेच बच्चों की देखभाल के सन्दर्भ में जवाबदेह होते हैं। परिवार में जब घरेलू नौकरानी के साथ बच्चों को छोड़ा जाता है, खासकर नाभिकीय परिवार (nuclear family), वहाँ यह पृष्ठपोषण (feedback) नहीं मिल पाता कि उनके बच्चों के साथ कैसा व्यवहार हो रहा है। 

4. माता-पिता जब घर पर नहीं होते तो बच्चों की सुरक्षा की चिन्ता बनी रहती है। क्रेच में बच्चों की सुरक्षा की चिन्ता नहीं करनी पड़ती। 

5. यदि माता-पिता को कहीं जाना है या बीमार हैं तो क्रेच एक विकल्प है जहाँ बच्चों की देखभाल दक्ष लोगों द्वारा होती है। 

6. क्रेच में बच्चा बहुत से हमउम्र बच्चों के साथ अन्तर्क्रिया करता है और साथ ही बड़ों के सम्पर्क में भी रहता है, इसका बच्चे के विकास में बहुत बड़ा योगदान होता है। इसीलिए क्रेच के बच्चों में अक्सर आत्मविश्वास का उच्च स्तर पाया जाता है। वे अधिक आत्मनिर्भर होते हैं।

क्रेच की सीमाएँ  (LIMITATIONS OF A CRECHE)

1. भारत के अधिकांश क्रेच पंजीकृत नहीं हैं, अतः वे शासकीय नीतियों द्वारा संचालित नहीं हैं। इससे उन क्रेच की व्यवस्थाओं और बच्चों के देखभाल के तरीके की गुणात्मकता पता नहीं चल पाती। 

2. क्रेच का समय तय होता है, एक निश्चित समय पर क्रेच बन्द हो जाते हैं। जो माता-पिता रात की ड्यूटी करते हैं या प्रातः कालीन ड्यूटी करते हैं या जिनकी ड्यूटी के घंटे तय नहीं होते हैं, वे क्रेच का लाभ नहीं उठा पाते। 

3. बच्चों की आवश्यकता के अनुसार कोई क्रेच बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाता, कभी-कभी क्रेच आवश्यकता से अधिक बच्चों पर ध्यान देने लगते हैं।

4. हो सकता है कि क्रेच में कोई बच्चा बीमार हो, स्वस्थ बच्चा जब बीमार बच्चे के सम्पर्क में आता है तो उसके भी बीमार होने की सम्भावना होती है।

बच्चों के विकास पर क्रेच के हानिकारक प्रभाव (EFFECTS OF CRECHE ON THE DEVELOPMENT OF CHILDREN) 

1. जो बच्चे अपने माता-पिता के बिना दिन में कई घण्टे क्रेच में गुजारते हैं, उनका सामाजिक व्यावहारिक समायोजन (Social-behavioural adjustment) एक समस्या के रूप में उभरता है। वे नकारात्मक मूड (negative moods). आक्रामक और प्रतिकूल व्यवहार का प्रदर्शन करते हैं। 

2. क्रेच के हानिकारक प्रभाव जीवनभर सम्बद्ध रहते हैं। उनके सामाजिक कौशल निम्नस्तरीय होते हैं और कार्य करने की आदतें भी निम्नस्तरीय होती हैं। 15 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते जोखिम व्यवहार, आवेशपूर्ण व्यवहार का प्रदर्शन करने लगते हैं, यहाँ तक कि अल्कोहल, तम्बाकू या अन्य नशे के गिरफ्त में आ जाते हैं। वे ऐसे व्यवहार करते हैं जो उनके विकास और जीवन के लिए। खतरनाक होते हैं। अपने आवेश को नियन्त्रित नहीं कर पाते।

3. माता-पिता से अधिक समय अलग रहने के कारण बच्चों की संवेदनशीलता का स्तर गिर जाता है, माँ और बच्चे में बहुत कम अन्तर्क्रिया हो पाती है। 

4. बच्चे में असुरक्षा की भावना भी बलवती होती है। ऐसे में वे अलगाव, उदासी और चिन्ता का शिकार हो सकते हैं।

अनाथालय में बच्चे (CHILDREN IN ORPHANAGES)

जो बच्चे अपने माता-पिता को या दोनों में से किसी एक को खो देते हैं, वे अनाथ कहलाते हैं। बहुत बार अनाथ बच्चे अपने परिवार या विस्तृत परिवार (Extended family) में ही रहते हैं। वैश्विक स्तर पर लगभग 153 मीलियन बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने माता या पिता में से किसी एक को खो दिया और 178 मिलियन बच्चों के माता-पिता दोनों ही नहीं हैं। यूनीसेफ (UNICEF) के अनुसार विश्व में 2.2 मिलियन बच्चे अनाथालयों में रह रहे हैं। है

बच्चों के अनाथालयों में जाने के कारण (REASONS FOR PLACEMENT OF CHILDREN IN ORPHANAGES)

1. निर्धनता (Poverty)– निर्धनता एक बहुत बड़ा कारण है कि बच्चों को अनाथालयों में जाना पड़ता है। माता-पिता या अन्य देखभाल करने वाले आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संघर्ष करते रहते हैं और असफल हो जाते हैं तो अपने बच्चों के लिए अनाथालय को विकल्प मान लेते हैं। उन्हें लगता है कि अनाथालय में बच्चों को भोजन, कपड़ा, शिक्षा आदि तो मिल जाएगी।

2. हिम्मत बढ़ाना (Encouragement)- माता-पिता और समुदाय के बहुत से लोग सोचते हैं कि अनाथालय बच्चे के लिए लाभदायक संस्था है, क्योंकि यहाँ बच्चों की मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी होती हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि अनाथालय में रहने के कुछ हानिकारक प्रभाव बच्चे के सामाजिक, संवेगात्मक और संज्ञानात्मक विकास पर पड़ते हैं। कुछ क्षेत्रों में मिशनरी, सामाजिक कार्यकर्ता और अनाथालय स्टाफ गरीब माता-पिता को प्रोत्साहित करते हैं कि वे अपने बच्चों को अनाथालय में भेज दें।

3. अपंगता (Disability)-मध्य तथा पूर्वी यूरोप में एक-तिहाई अपंग बच्चे अनाथालयों में रह रहे हैं। अपंग बच्चों को परिवार उचित सेवाएँ प्रदान करने में असमर्थ होता है। कुछ सांस्कृतिक विश्वासों (अंधविश्वास) और भेदभाव के वशीभूत होकर भी लोग अपंग बच्चों को अलग कर देते हैं।

4. प्रताड़ना और लगातार अनदेखी (Abuse and chronic neglect)-अक्सर शराब और अन्य तरह के लत वाले लोग अपने बच्चों के साथ मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, उनकी देखरेख नहीं करते। कुछ ऐसे लोग भी लेते हैं जो जिनके यहाँ बच्चे घरेलू काम करते हैं, वे लोग बच्चों को प्रताड़ित करते हैं। ऐसे बच्चे घर से भाग जाते हैं और सड़कों पर रहना शुरू कर देते हैं तो समाजसेवी संस्थाएँ व अन्य लोग हस्तक्षेप कर इन बच्चों को अनाथालय में शरण दिलवाते हैं। जिन बच्चों के माता-पिता नहीं होते, परिवार के अन्य लोग लगातार उनकी अनदेखी करते हैं, ऐसे बच्चे भी अनाथालयों में बच्चों की संख्या बढ़ाते हैं।

5. प्राकृतिक आपदाएँ (Natural disasters)- भूकम्प, तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण माता-पिता से अलग हो जाते हैं। ऐसे बच्चों को अनाथालय भेज दिया जाता है। प्राकृतिक आपदाओं के प्रकोप से लोगों का सब कुछ (घर, श्वेत, व्यवसाय आदि) नष्ट हो जाता है। वे अपने बच्चों को भोजन, वस्त्र, इलाज व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध कराने में असमर्थ हो जाते हैं, ऐसे बच्चे भी अनाथालय की शरण में जाते हैं। परन्तु ऐसे बच्चे थोड़े समय तक अनाथालयों में रहते हैं, जब उनके माता-पिता पुनर्वास की स्थिति में आ जाते हैं तो बच्चे अपने माता-पिता के पास लौट जाते हैं।

अनाथालय और बालकों का विकास (ORPHANAGES AND CHILD DEVELOPMENT)

अनाथालयों में बच्चों की चाहे जितनी देखभाल हो परन्तु वे परिवार की जगह नहीं ले सकते। इसीलिए यह माना जाता है कि पुनर्वास कारणों से थोड़े समय तक बच्चों को अनाथालयों से रखकर, वापस उनको उनके परिवार में पहुँचाने की व्यवस्था करनी चाहिए। अनाथालयों में रह रहे बच्चों के विकास को निम्न दृष्टिकोण से समझा जा सकता है:- 

1. अनाथालयों की योजनाओं का उचित कार्यान्वयन नहीं होता, बच्चों को परिवार और समुदाय से अन्तर्क्रिया के बहुत सीमित अवसर मिलते हैं, जिससे बच्चों का पुनर्एकीकरण (reunification) बाधित होता है।

2. बच्चों के अधिकारों का उल्लंघन अक्सर अनाथालयों में देखने को मिलता है। थोड़े समय के लिए जिन बच्चों को भेजा जाता है, उनमें से बहुत बच्चे 15 वर्ष की अधिक आयु वहीं गुजार देते हैं। 

3. बच्चों की वृद्धि सम्बन्धी समस्यायें उत्पन्न होती हैं, जैसे-समय से वृद्धि न होकर देर से होती है, गामक कौशलों के समन्वयन में समस्या आती है।

4. अनाथालयों में बच्चों की वैयक्तिक आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं दिया जाता। बच्चों को निश्चित समय पर समूह में खाना दिया जाता है, उनकी माँग का कोई स्थान नहीं होता। बच्चे के वैयक्तिक विकास को प्रमुखता नहीं दी जाती, इससे बच्चे का सामाजिक और संवेगात्मक विकास प्रभावित होता है। वैयक्तिक उद्दीपन (individualized stimulation) के अभाव में केवल स्वास्थ्य और विकास सम्बन्धी समस्यायें ही नहीं पैदा होती बल्कि अलगाव की प्रवृत्ति भी पैदा होती है। 

5. अनाथालयों के वातावरण का प्रभाव बच्चों के मस्तिष्क की संरचना और प्रकार्य पर पड़ता है, बच्चों की भाषा अर्जन का कौशल प्रभावित होता है। 

6. वास्तविकता तो यह है कि अनाथालयों में बच्चों को जीवित रहने लायक ही सुविधाएँ मिलती हैं, मानसिक योग्यताओं में वृद्धि, रचनात्मक कौशल के विकास, सामाजिक व नैतिक विकास के लिए न तो प्रोत्साहन मिलता है और न ही सुविधाएँ और अवसर। 

7. अधिकांश अनाथालयों का वातावरण भयप्रद होता है, छोटी-छोटी बात पर डाँटा जाता है, डराया और धमकाया जाता है। इससे बच्चे का क्रियात्मक विकास अवरुद्ध हो जाता है। भयभीत और सहमे बच्चे किसी कार्य को ठीक प्रकार से नहीं कर पाते।

8. विश्व स्तरीय एक सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि बहुत से अनाथालयों में बच्चों को हिंसा और शोषण का शिकार होना पड़ता है। बच्चों से मजदूरी करवायी जाती है। यहाँ तक कि उनका यौन शोषण भी होता है।

विद्यालय न जाने वाले बच्चे (CHILDREN BEING OUT OF SCHOOL)

भारत सवा सौ करोड़ से अधिक जनसंख्या वाला देश है। साथ ही भारत की गिनती उन दस देशों में होती है, जहाँ विद्यालय न जाने वाले बच्चों की संख्या बहुत अधिक है। विद्यालय से बाहर रहने वाले बच्चों के सम्बन्ध में यूनीसेफ ने भी आवाज उठाई। भारत के परिप्रेक्ष्य में इस समस्या की कुछ वास्तविकताएँ निम्नवत् दृष्टिगोचर होती हैं:- 

1. भारत में 6 से 14 वर्ष आयु के 50% से कम बच्चे स्कूल नहीं जाते।

2. कक्षा 1 में जो बच्चे नामांकित होते हैं, उनमें से एक-तिहाई से कुछ अधिक बच्चे कक्षा तक पहुँच पाते हैं। 

3. कम-से-कम 30 मिलियन बच्चे (6 से 14 आयु) स्कूल नहीं जाते।

4. 53% लड़कियाँ (5 से 9 वर्ष आयु वर्ग) निरक्षर हैं। 

5. भारत में केवल 53% रहने के स्थानों' (habitation) में ही प्राथमिक स्कूल हैं।

6. भारत में केवल 20% स्थानों पर माध्यमिक स्कूल हैं। 

7. उच्च प्राथमिक विद्यालय, 22% क्षेत्रों में रहने के स्थानों से लगभग 3 किलोमीटर दूर है। 

8. लगभग 60% स्कूलों में कक्षा 1 से 5 तक के लिए दो से कम अध्यापक हैं। 

9. औसतन प्रति प्राथमिक स्कूल तीन अध्यापकों से कम अध्यापक हैं। उन्हें प्रतिदिन कक्षा 1 से कक्षा 5 तक संभालना पड़ता है।

10. प्रत्येक 4 बच्चों में (जो स्कूल छोड़ देते हैं) तीन बच्चे निम्न कारणों से स्कूल छोड़ते हैं:- 

        (i) महँगी प्राइवेट शिक्षा (High cost of private education),

        (ii) अपने परिवार की मदद के लिए कमाने की आवश्यकता (need to work to support their families).

        (iii) पढ़ने में रुचि की कमी (little interest in studies) |

11. कक्षा III से V तक के बच्चे ज्यादा स्कूल छोड़ते हैं जिनमें 50% लड़के और 58% लड़कियाँ होती हैं।

12. भारत में 40 में से एक स्कूल खुले में या तम्बू के नीचे चलाए जाते हैं।

13. 50% से ज्यादा लड़कियों का स्कूल में नामांकन ही नहीं होता और जिनका होता है उनमें से बहुत सी लड़कियाँ 12 वर्ष की उम्र तक स्कूल छोड़ देती हैं। 

14. 6 से 18 वर्ष के 50% भारतीय बच्चे स्कूल नहीं जाते। उपरोक्त वास्तविकताएँ सातवीं ऑल इण्डिया एजूकेशन सर्वे (All India Education Survey), 2002 में मिलती हैं।

बहुत-से कारण होते हैं जिनकी वजह से विद्यालय जाने की आयु में बच्चे विद्यालय से बाहर रहते हैं, जिनमें से प्रमुख कारण निम्नवत् हैं:-

1. माता-पिता से अलगाव या पार्थक्य,

2. आर्थिक तंगी के कारण बालश्रम, 

3. मानसिक हीनता/मानसिक अस्वस्थता,

4. शारीरिक अस्वस्थता, अपंगता,

5. विद्यालयों का नीरस वातावरण,

6. अध्यापकों का बुरा व्यवहार,

7. माता-पिता की अशिक्षा,

8. विद्यालयों की घर से बहुत अधिक दूरी, 

9. सामाजिक-सांस्कृतिक कारक (अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जनजातियाँ) एवं अपवंचन,

10. शैक्षिक अवसरों की असमानता,

11. शैक्षिक बच्चों की पारिवारिक समस्यायें,

12. दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र,

13. स्थानान्तरण,

14. युद्ध, सशस्त्र संघर्ष, प्राकृतिक आपदाएँ आदि, 

15. आस-पास पढ़ाई के वातावरण का अभाव,

16. साथी समूह, आदि।

बाल अपराध का अर्थ (MEANING OF JUVENILE DELIQUENCY)

जो अपराध बालकों द्वारा किया जाता है, वह बाल अपराध कहलाता है अर्थात् बालकों द्वारा जब समाज के कानून को तोड़ जाता है तो वह बालक अपराध की श्रेणी में आता है। प्रत्येक समाज को अपनी परम्पराएँ और मूल्य होते हैं, इन्हीं परम्पराओं की सुरक्षा और संरक्षा की दृष्टि से कानून बनाए जाते हैं। यदि समाज का कोई सदस्य कानून को तोड़ता है और समाज को नुकसान पहुँचता है तो इसे अपराध माना जाएगा। यदि यही कानून कोई अव्यस्क व्यक्ति तोड़ता है तो उसे बाल अपराध कहा जाएगा।

बाल अपराधी को अपराध के बारे में पूरी तरह समझ नहीं होती है। वह अपराध के परिणामों को नहीं जानता। इसीलिए समाजशास्त्री और कानूनविद् इस बात के पक्षधर है कि बाल अपराधियों को दण्डित करने के बजाए उनमें सुधार के प्रयास किए जाने चाहिए। बाल अपराधियों को अपराध से विलग करने तथा उन बालकों में सुधार लाकर उन्हें सामान्य जीवन जीने के योग्य बनाने के लिए। समय-समय पर कई कानून बनाए व पारित किए गए नवम्बर, 1986 में भारत की संसद ने किशोर न्याय अधिनियम' पारित कर बालक अपराधियों के सुधार व उन्हें समाज का उपयोगी सदस्य बनाने की दिशा में मील का पत्थर रखा।

कोई व्यस्क जब कोई अपराध करता है तो उसके पीछे एक निश्चित उद्देश्य होता है, जैसे यदि कोई वाहन चुराता है तो वह उसे चुराए गए वाहन की पहचान बदल कर उसे बेच देता है और धन प्राप्ति के उद्देश्य की पूर्ति करता है। परन्तु बाल अपराधी उद्देश्य के प्रति सचेत नहीं होता है, कभी-कभी बालक संगी-साथी के साथ मिलकर हंसी-मजाक में या द्वेष में अपराध कर बैठते हैं, जैसे-स्कूल में किसी अन्य बालक से विवाद हो जाने पर बालक अपने अन्य साथियों के साथ स्कूल से बाहर निकलने पर उसे मारता-पीटता और घायल करता है।

वर्तमान समाज के सामने बाल अपराध एक विकराल समस्या का रूप लेकर खड़ा हो रहा है। समाचारों के माध्यम से बालकों द्वारा किए गए अत्यन्त गम्भीर अपराधों की जानकारी अक्सर मिलती रहती है, जैसे—एक बालक पिता की पिस्तौल बस्ते में छिपाकर ले जाना और अपनी कक्षा के ही एक बालक पर गोली चलाना वाहन चोरों के गिरोह में बच्चों का शामिल पाया जाना विद्यालय से भागकर अनैतिक कार्य करना आदि।

बाल अपराध की परिभाषाएँ (DEFINITIONS OF JUVENILE DELIQUENCY)

बालक अपराध को कम करके नहीं आंका जा सकता है, बाल अपराध की पहली सीढ़ी है। विभिन्न विद्वानों और कानूनविदों ने बाल अपराध की विभिन्न परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं। विश्व के विभिन्न देशों में व्यापक वैधानिक अन्तर व्याप्त है, इससे बाल अपराध की एक सुस्पष्ट परिभाषा सुस्थापित नहीं हो पाती।

विभिन्न विद्वानों ने बाल अपराध को निम्नवत् परिभाषित किया है:-

एम. जे. सेथाना के अनुसार- "बाल अपराध के अन्तर्गत किसी बालक या ऐसे तरूण व्यक्ति के गलत कार्य आते हैं जो कि सम्बन्धित स्थान के कानून (जो उस समय लागू हॉ) के द्वारा निर्दिष्ट आयु सीमा के अन्दर आता हो।"
"Juvenile deliquency involves wrong-doing by a child or by a young person who is under an age specified by the law (for the time being in force) of the place concerned." -M. J. Sethana

गिलिन और गिलिन के अनुसार "अपराधी या बाल अपराधी एक ऐसा व्यक्ति है, जो ऐसे कार्य का अपराधी है, जिसको वह समूह, जिसमें अपने विश्वासों को कार्यान्वित करने की शक्ति है, समाज के लिए हानिकारक समझता है, इसलिए ऐसा कार्य करना मना है।" 
"A criminal of or a juvenile deliquency is one who is a quantity of an act believe by a group that has power to inforce its to be injurious to society and therefore prohibited." -Gillin and Gillin

न्यूमेयर के अनुसार "बाल अपराधी एक निश्चित आयु से कम का वह व्यक्ति है, जिसने समाज-विरोधी कार्य किया है तथा जिसका दुर्व्यवहार कानून तोड़ने वाला है।" 
"A deliquency is a person under age who is guilty of antisocial act and whose misconduct is a friction of the law." -Neumeyer

मावरर के अनुसार "बाल अपराधी वह व्यक्ति है जो जान-बूझकर इरादे के साथ एवं समझते हुए समाज की रूढ़ियों की उपेक्षा करता है, जिससे उसका सम्बन्ध है।" 
"A Person who knowingly, intentionally are Self-conciously violates the mores of the Society to which he belongs." -Mowrer

रेकलेस के अनुसार "बाल अपराध शब्द अपराधी-विधि के उल्लंघन पर एवं व्यवहार संरूपण के उस अनुसरण पर लागू होता है जिसे बच्चों एवं वयस्कों द्वारा अच्छा नहीं समझा जाता है।"
"The term juvenile deliquency applies to the violation of Criminal Code or Persuit of certain pattrens of behavior disapproved for children and young adolescents." -Reckless


बाल अपराधियों की विशेषताएँ (CHARACTERSTICS OF DELIQUENT CHILDREN)

बाल अपराधियों में निम्न प्रमुख विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं :-

1. ऐसे बालकों के पास खाली समय बहुत होता है, यही खाली समय उनको अपराध की ओर अग्रसर करता है।

2. बाल अपराधियों का मस्तिष्क अपरिपक्व होता है। परिपक्वता की कमी के कारण वे अपने कृत्य के परिणाम को समझ पाने में अक्षम होते हैं।

3. बाल अपराधी योजना बनाकर अपराध नहीं करते, इनका अपराध करने का इरादा नहीं होता। 

4. जिन बस्ती या क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक होता है, प्राय: ये बालक ऐसी ही जगह पर अधिक होते हैं।

5. बाल अपराधियों को अन्य अपराधियों से आयु कारक के आधार पर ही अलग किया जाता है। बाल अपराधी और अन्य वयस्क अपराधी में अन्तर किसी विशेष अपराध अथवा उसकी प्रकृति के आधार पर नहीं वरन् वह आयु सीमा पर ही आधारित होती है।

6. प्रत्येक समूह, समाज देश तथा राज्यों में बाल अपराधियों की आयु सीमा समान अथवा भिन्न हो सकती है।

7. बाल अपराधी सामान्यतः अन्जाने में या खेल-खेल में अपराध कर बैठता है।

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