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किशोरावस्था Adolescence

किसी प्राणी के विकास क्रम में किशोरावस्था अति महत्वपूर्ण अवस्था है। यह अवस्था प्राणी के भावी जीवन का आधार बनाती है और उसके प्रौढ़ जीवन की रूपरेखा निर्धारित करती है। विकास की दृष्टि से भी यह अवस्था क्रांतिकारी परिवर्तनों की अवस्था मानी जाती है क्योंकि इस अवस्था में परिवर्तनों का स्वरूप इस प्रकार का होता है कि बालक को न तो बालक ही कहा जा सकता है न ही प्रौढ़। परिवर्तनों की प्रक्रिया के फलस्वरूप बाल्यावस्था के सभी शारीरिक व मानसिक गुण समाप्त हो जाते हैं और उनका स्थान नये गुण ले लेते हैं। ये परिवर्तन ही बालकों को किशोरावस्था की ओर अग्रसर करते हैं।

जरशील्ड के शब्दों में-"किशोरावस्था वह काल है जिसमें विकासशील प्राणी बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर बढ़ता है।" "Adolescence is a period through which a growing person makes transition from

childhood to maturity." -Jershield किशोरावस्था में होने वाले परिवर्तन केवल शारीरिक ही नहीं होते अपितु सामाजिक, संवेगात्मक व मानसिक परिवर्तन भी तीव्र गति से होते हैं। इन परिवर्तनों के कारण ही किशोरावस्था को "परिवर्तनों की अवस्था" कहा जाता है। परिवर्तनों की तीव्रता के कारण ही बालक विकास की पूर्णता व परिपक्वता को प्राप्त करने लगता है। फलस्वरूप वालोचित व्यवहार व अभिवृत्तियाँ प्रौढ़ोचित व्यवहार व अभिवृत्तियों में बदल जाती हैं।

किशोरावस्था का अर्थ (MEANING OF ADOLESCENCE)

किशोरावस्था शब्द अंग्रेजी भाषा के ऐडोलेसेन्स (Adolescence) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। Adolescence शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Adolescere शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है- परिपक्वता की ओर बढ़ना (To grow to maturity )

कारमाईकल (Carmichael 1968) के अनुसार, "किशोरावस्था जीवन का वह काल है जह से किसी अपरिपक्व व्यक्ति का शारीरिक व मानसिक विकास चरम सीमा की ओर बढ़ता है।"
"Adolescence has been defined as that time of life when an immature individual in his approaches the culmination of his physical and mental growth." -Carmichael, 1968

विद्वानों ने तेरह से इक्कीस (13-21) वर्ष की अवस्था को किशोरावस्था माना है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार किशोरावस्था यौनिक परिपक्वता (Sexual maturity) से प्रारम्भ होती है और वैधानिक परिपक्वता (Legal maturity) पर समाप्त हो जाती है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि केवल तेरह वर्ष का हो जाना ही किशोरावस्था के लिये पर्याप्त नहीं है अपितु उसके लिये बालक-बालिकाओं के भीतर पर्याप्त शारीरिक व मानसिक परिवर्तनों का होना परम आवश्यक है, क्योंकि यौनिक परिवर्तन तथा उनसे उत्पन्न होने वाले मानसिक, सामाजिक व संवेगात्मक परिवर्तन किशोरावस्था की परिपक्वता को प्रभावित करते हैं। परिवर्तन की इस अवस्था में माता-पिता, शिक्षक, । अभिभावक तथा अन्य लोग जो बालकों के कल्याण में रुचि रखते हैं और परिवार समाज व राष्ट्र की प्रगति चाहते हैं तो उन्हें किशोरों के विकास पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिये क्योंकि किशोर ही वर्तमान की शक्ति और भविष्य की आशा हैं।

किशोरावस्था को अलग-अलग विद्वानों ने पृथक्-पृथक् तरीके से परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख विद्वानों की परिभाषायें इस प्रकार हैं:-

1. आइजनेक और उनके साथियों के अनुसार-"किशोरावस्था वयः संधि के बाद की वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति के अंदर उत्तरदायित्व की भावना स्थापित होती है।”
"The post pubertal period in which individual self responsibility is established."

2. स्टेनले हॉल के अनुसार-"किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तूफान व विरोध की अवस्था है। " 
"Adolescence is a period of great stress and strain, strom and strike." -Stanley Hall 

3. बिग व हन्ट के अनुसार-"किशोरावस्था के समुचित अर्थ को प्रकट करने वाला एक शब्द है-'परिवर्तन'। यह परिवर्तन शारीरिक, सामाजिक व मनौवैज्ञानिक होता है।"
"The one word which best characterizes adolescence once is 'change'. The change is physiological, sociological and psychological." - Bigge & Hunt 

इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि किशोरावस्था तीव्र परिवर्तनों की अवस्था है जो वयः संधि अवस्था से प्रारम्भ होकर प्रौढ़ावस्था की प्रारम्भिक अवस्था तक रहती है। विकासक्रम का अध्ययन सही तरीके से किया जा सके इस हेतु विद्वानों ने इसे दो अवस्थाओं में बाँटा है

1. पूर्व किशोरावस्था (Early Adolescence) 13-16 वर्ष 
2. उत्तर किशोरावस्था (Late Adolescence) 17-21 वर्ष

1. पूर्व किशोरावस्था (Early Adolescence) - यह अवस्था वयः संधि अवस्था की समाप्ति अर्थात् 13 वर्ष से प्रारम्भ होकर 16-17 वर्ष तक चलती है। विद्वानों का मानना है कि बालिकाओं में इसका प्रारम्भ 13 वर्ष से और बालकों में लगभग एक वर्ष बाद अर्थात् 14 वर्ष से होता है। यह अवस्था समस्या बाहुल्य की अवस्था रहती है क्योंकि द्रुत शारीरिक परिवर्तन होने के कारण समायोजन सम्बन्धी समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं।

2. उत्तर किशोरावस्था ( Late Adolescence)- यह अवस्था 16 या 17 वर्ष से 21 वर्ष तक चलती है। 17 वर्ष की आयु को हरलॉक ने पूर्व किशोरावस्था और किशोरावस्था के मध्य की विभाजक रेखा कहा है। विकास की दृष्टि से यह अवस्था अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है क्योंकि यह काल प्रौढ़ जीवन की तैयारी का समय भी होता है क्योंकि इस अवस्था में जिस प्रकार के व्यवहार प्रतिमान, रुचियाँ, अभिवृत्तियाँ आदि निर्धारित कर लिये जाते हैं वे ही प्रौढ़ जीवन का आधार बनते हैं।

किशोरावस्था के विकास के सिद्धान्त (THEORIES OF DEVELOPMENT OF ADOLESCENCE)

किशोरावस्था के विकास के सम्बन्ध में दो सिद्धान्तों को माना गया है:- 

1. त्वरित विकास का सिद्धान्त (Theory of Saltatory Development) – किशोरावस्था के विकास के सम्बन्ध में स्टेनले हॉल ने इस सिद्धान्त को माना है। उनके अनुसार किशोरावस्था में होने वाले परिवर्तन आकस्मिक होते हैं उनका पूर्व के विकास (शैशव व बाल्यकाल) से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। स्टेनले हॉल के शब्दों में-"किशोर अथवा किशोरी में जो शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होते हैं वे एकदम छलांग मारकर आते हैं।"

2. क्रमिक विकास का सिद्धान्त (Theory of Gradual Development)- इस सिद्धान्त के समर्थक थार्नडाइक, किंग और हालिंगवर्थ के मतानुसार किशोरावस्था के विकास क्रम में उत्पन्न जो विभिन्नतायें और नवीनतायें दिखायी देती हैं, वे एकदम न आकर धीरे-धीरे आती हैं। इस सम्बन्ध में किंग का कथन है कि "जिस प्रकार एक ऋतु के आगमन के चिह्न दिखायी देने लगते हैं उसी प्रकार बाल्यावस्था व किशोरावस्था एक दूसरे से सम्बन्धित रहती हैं।"

किशोरावस्था की विशेषतायें (CHARACTERISTICS OF ADOLESCENCE)

किशोरावस्था जीवन के विकास क्रम की एक महत्वपूर्ण अवस्था है। इसके महत्व व विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए स्टेनले हॉल ने लिखा है-"किशोरावस्था एक नया जन्म है, क्योंकि इसी में उच्चतर और श्रेष्ठतर मानव विशेषताओं के दर्शन होते हैं।" "Adolescence is a new birth for the higher and more completely human traits are new born." -Stanley Hall

किशोरावस्था की विशेषताओं के सम्बन्ध में बिग व हण्ट ने कहा है:-

"किशोरावस्था की विशेषताओं को सर्वोत्तम रूप से प्रकट करने वाला एक शब्द है-परिवर्तन यह परिवर्तन शारीरिक, सामाजिक व मनोवैज्ञानिक होता है।"
"The one word which best characterizes adolescence is change. The change is physiological sociological and psychologocal." -Bigge and Hunt 

उपर्युक्त परिभाषायें किशोरावस्था की कुछ प्रमुख विशेषताओं की ओर इंगित करती हैं जो इस प्रकार हैं :-

1. परिवर्तनों की अवस्था (Period of Change)-किशोरावस्था अनेक प्रकार के परिवर्तनों की अवस्था है। इस अवस्था में इतने अधिक परिवर्तन होते हैं कि बालक धीरे-धीरे परिपक्वता प्राप्त कर लेता है। केवल शारीरिक ही नहीं मानसिक, संवेगात्मक एवं सामाजिक परिवर्तन तीव्र गति से होते हैं जिससे बाल्यावस्था की आदतें, व्यवहार व लक्षण समाप्त होते जाते हैं और व्यवहार, रुचियों व आदतों का एक परिपक्व प्रौढ़ स्वरूप प्रकट होने लगता है।


हरलॉक के अनुसार- "किशोर को धीरे-धीरे किशोरावस्था के परिवर्तनों का ज्ञान हो जाता है और इस ज्ञान वृद्धि के साथ-साथ वह वयस्क व्यक्तियों की भाँति इसलिये व्यवहार करना प्रारम्भ कर देता है क्योंकि वह वयस्क दिखायी देने लगता है।" किशोरावस्था के परिवर्तनों में शारीरिक परिवर्तन प्रमुख हैं। इन शारीरिक परिवर्तनों से यौनिक परिपक्वता आती है फलस्वरूप बालकों की आवाज भारी हो जाती है। दाढ़ी, मूछें निकल आती हैं। बालिकाओं में वक्षस्थल का विकास होता है, मासिक धर्म प्रारम्भ हो जाता है। बालक और बालिकाओं में कामेच्छा जाग्रत हो जाती है।

शारीरिक विकास के अतिरिक्त ज्ञानेन्द्रियों का पूर्ण विकास हो जाता है। मस्तिष्क व हृदय अनुपात में आ जाते हैं तथा लम्बाई की भी पूर्ण वृद्धि हो जाती है। 

किशोरावस्था में परिवर्तनों की इस अवस्था में समायोजन सम्बन्धी समस्या उत्पन्न हो जाती है। यदि परिवर्तन सामान्य गति से होते हैं तो बालकों के लिये समायोजन करना आसान होता है। किन्तु यदि परिवर्तन तीव्र या मंद होते हैं तो विकास के विभिन्न क्षेत्रों में समायोजन सम्बन्धी समस्यायें उत्पन्न हो जाती है।

2. संक्रान्ति काल (Period of Transition)-किशोरावस्था बाल्यावस्था को प्रौढ़ावस्था से जोड़ने वाली अवस्था है अतः इस स्थिति में किशोर असमंजस की स्थिति में रहता है न तो उसे पूरी तरह बालक समझा जाता है, न ही पूरी तरह प्रौढ़। ऐसी स्थिति में जब वह बालकों जैसा व्यवहार करता है तो उससे परिपक्व व्यवहार की आशा की जाती है और जब वह वयस्कों की तरह व्यवहार करने का प्रयास करता है तो उससे कहा जाता है कि वह अपनी सीमाओं में रहकर कार्य करे। उसे स्वयं अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं होती है जिससे उसे परिस्थितियों के अनुसार व्यवहार करने में कठिनाई होती है। इसीलिये इस अवस्था में उच्च संवेगात्मकता के लक्षण किशोरों में दिखायी देते है।

डॉ. पी. आसुबेल का मानना है कि व्यक्ति किशोरावस्था में शारीरिक और सामाजिक दृष्टि से बहुत बदल जाता है। वह अब निरा बालक नहीं रहता है, बल्कि बड़ा हो जाता है। इसके कारण कर्त्तव्यों, उत्तरदायित्वों, विशेषाधिकारों और दूसरों के साथ सम्बन्ध में विशेष परिवर्तन होता है उसमें अपने-आप, माता-पिता, टोली, नेता और अन्य के प्रति अभिवृत्तियों में परिवर्तन पाया जाता है।

3. निश्चित विकास प्रतिमान (Definite Pattern of Development)-किशोरावस्था में विकास का एक निश्चित स्वरूप होता है इसीलिये विभिन्न विशेषतायें निश्चित आयु स्तर पर सामान्य विकास क्रम में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। जैसे शारीरिक विकास चरम सीमा पर होता है, यौन परिपक्वता आ जाती है, उच्च संवेगात्मकता के लक्षण दिखायी देते हैं। रुचियों व अभिवृत्तियों में परिवर्तन आ जाता है। किशोर समूह में अपेक्षित व्यवहारों को करने लगता है। असुरक्षा की भावना से घिरा रहता है। काम शक्ति तीव्र हो जाती है। शारीरिक परिवर्तनों में वृद्धि अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है। स्थिरता व समायोजन का अभाव होता है, स्वतंत्रता व विद्रोह की भावना प्रबल रहती है।

4. शैशवावस्था की पुनरावृत्ति (Recapitulation of Infancy)-रॉस (Ross) ने किशोरावस्था को शैशवावस्था का पुनरावर्तन कहा है। किशोरों के अनेक लक्षण ऐसे होते हैं जो शिशुओं की भाँति दिखायी देते हैं, जैसे-किशोरों में संवेगात्मक अस्थिरता अधिक होती है, उन्हें भी शिशुओं की भाँति वातावरण के साथ समायोजन करना पड़ता है। किशोर भी शिशुओं के समान आकर्षण का केन्द्र बनना चाहता है। शैशवावस्था में कामुकता माँ के प्रति होती है जबकि किशोरावस्था में यह विपरीत लिंग के प्रति दिखायी देती है अतः कहा जा सकता है कि किशोरावस्था शैशवावस्था की पुनरावृत्ति है।

5. आदर्शवाद और वीर पूजा की अवस्था (Idealism or Age of Heroworship)-जीवन मूल्यों से प्रेरित होकर किशोर अपने जीवन के कुछ आदर्श निर्धारित करते हैं। ये आदर्श उसे स्वयं के प्रति, समाज के प्रति परिवार के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह करने की दिशा प्रदान करते हैं। जब किशोर अपने आदर्शों के अनुसार अपने दायित्वों का निर्वाह नहीं कर पाता है तो उसमें असंतोष और विद्रोह की भावना उत्पन्न होती है।

वीर पूजा की भावना का विकास भी इसी अवस्था में होता है। किशोरावस्था विकसित सामाजिकता की अवस्था होने के कारण किशोर बालक समाज के अनेक व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है। इनमें से कुछ व्यक्तियों के व्यक्तित्व से वह प्रभावित हो जाता है और उन्हें अपना आदर्श मानकर अपने जीवन की दिशा निर्धारित करता है। किशोर के ये आदर्श उसके माता-पिता, शिक्षक, मित्र, नेता तथा नाटकीय पात्र हो सकते हैं।

6. समूह को महत्व (Importance to Group) - किशोरावस्था में बालकों का सामाजिक क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत होता है तथा मित्रों की संख्या अधिक होती है। वह परिवार से अधिक मित्रों व समूह के बीच रहना पसन्द करता है। किशोर जिस समूह का सदस्य होता है उसे वह सर्वोपरि समझता है। समूह ही उनका आदर्श होता है। यदि माता-पिता व शिक्षक के आदर्श समूह से पृथक् होते हैं तब भी वह समूह के आदर्शों को ही श्रेष्ठतर समझ कर उनका अनुपालन करता है तथा अपनी रुचियों, इच्छाओं, व्यवहारों और क्रियाओं में समूह के अनुसार परिवर्तन लाता है।

बिग एवं हण्ट (Bigge and Hunt) के अनुसार-"जिन समूहों से किशोर का सम्बन्ध होता है उनसे उसके लगभग सभी कार्य प्रभावित होते हैं। समूह उसकी भाषा, नैतिक मूल्यों, वस्त्र पहनने की आदतों और भोजन करने के तरीकों को प्रभावित करता है।" 

7. विकसित सामाजिकता की अवस्था (Period of Developed Social Relationship - किशोरावस्था की एक प्रमुख विशेषता विकसित सामाजिक भावना होती है। किशोरों का सामाजिक क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत होता है। मित्रों की संख्या जीवन के इस काल में सबसे अधिक होती है। घनिष्ठ मित्रता भी इसी आयु में विकसित होती है। उनकी मित्रता में जाति, धर्म, रंग, रूप और आर्थिक व सामाजिक स्थिति कोई मायने नहीं रखती है। वे अपने मित्रों के साथ परस्पर सहयोग और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करते हैं।

इस अवस्था में मित्रता कई स्तरों पर होती है। कुछ मित्र इसलिये बनाये जाते हैं क्योंकि उन्हें किशोर विश्वासपात्र समझता है। कुछ को विशिष्ट कार्यों हेतु उपयोगी समझने के कारण मित्र बनाता है। जबकि कुछ से साधारण परिचय ही रखता है। कहने का आशय यह है कि मित्रता का दायरा अधिक होता है। जैसे-जैसे सामाजिकता का दायरा बढ़ता जाता है वैसे-वैसे वह परिवार के दायित्वों के प्रति उदासीन होता जाता है।

समलिंगी ही नहीं विषमलिंगी भी किशोरों के मित्र होते हैं किन्तु किशोर विषमलिंगी साथियों के साथ सभ्य आचरण का प्रदर्शन करके अपनी नैतिकता और परिपक्व सामाजिकता का परिचय देता है। समूह में रहने के कारण आत्मप्रदर्शन तथा नेतृत्व की भावनायें अपनी चरम सीमा पर होती हैं तथा समाज के रीतिरिवाजों, प्रथाओं और परम्पराओं के प्रति निष्ठा का भाव भी इसी अवस्था में विकसित होता है। सामाजिक जीवन में आत्म नियंत्रण उत्पन्न करने के लिये वह अपने अंदर नवीन मनोवृत्तियों, रुचियों, विचारों और मूल्यों का निर्माण करता है। सामाजिक कार्यक्रमों में रुचि प्रदर्शित करता है सामाजिक आयोजनों में सक्रिय रूप से भाग लेता है और समूह के साथ विभिन्न प्रकार की पारिवारिक, व्यक्तिगत, सामाजिक और राजनैतिक चर्चाओं में भाग लेता है। किशोरों में निस्वार्थ सेवा की भावना भी प्रबल होती है। विभिन्न प्रकार की आपदाओं; जैसे--बाढ़, भूकम्प, महामारी आदि के समय उसकी समाज सेवा देखी जा सकती है। 

रॉस (Ross) के ये शब्द किशोरों को समाज सेवा की भावना को प्रकट करते हैं- "किशोर समाज सेवा के आदर्शों का निर्माण व पोषण करता है। उसका उदार हृदय मानव जाति के प्रेम से ओतप्रोत होता है तथा वह आदर्श समाज का निर्माण करने में अपनी सहायता देने के लिये उद्विग्न रहता है।" अतः स्पष्ट है कि किशोरों में अहं के स्थान पर हम की भावना तीव्र हो जाती है और वह सुन्दर समाज के लिये अपनी निःस्वार्थ सेवा देने के लिये तत्पर रहता है।

8. रुचियों में परिवर्तन व स्थिरता (Changes in Interest and Stability)- पूर्व किशोरावस्था तक बालकों की रुचियों में परिवर्तन होता रहता है किन्तु किशोरावस्था पूर्ण होने तक किशोरों की रुचियों में स्थिरता आ जाती है। किशोरावस्था में सामाजिकता का क्षेत्र व्यापक होता है अतः किशोरों में विभिन्न प्रकार की रुचियों का विकास होता है। शारीरिक रूप से वह अपने अंगों को सुडौल व आकर्षक बनाने तथा सजाने में रुचि रखता है। मानसिक दृष्टि से वह पढ़ने में रुचि रखता है। फलस्वरूप समाचार पत्र पत्रिकायें, उपन्यास, नाटक तथा आलोचनाओं को पढ़ने में रुचि बढ़ जाती है। मनोरंजन के लिये चलचित्र, सैरसपाटा, पिकनिक, खेलकूद आदि में रुचि रखता है। सामाजिक दृष्टि से उसकी रुचि, समाज सेवा, सामाजिक सहभागिता, पार्टियों में जाना, समूह बनाना, विपरीत लिंग से मित्रता करना, दूसरों के दुःख सुख में भाग लेना, नि:स्वार्थ सेवा करना आदि में बढ़ जाती है।

किशोरावस्था में रुचियों का जो स्वरूप निर्धारित हो जाता है वही जीवन पर्यन्त तक बना रहता है। वेलेन्टाइन (Valentine) के अनुसार-"किशोर बालक और बालिकाओं की रुचियों में समानता भी होती है और भिन्नता भी उदाहरणार्थ-बालक और बालिकाओं में निम्नांकित रुचियाँ होती है-पत्र पत्रिकायें, नाटक, कहानियाँ और उपन्यास पढ़ना, सिनेमा देखना, रेडियो सुनना, शरीर को अलंकृत करना, विषमलिंगी से प्रेम करना आदि। बालकों को खेलकूद और व्यायाम में विशेष रुचि होती है इसके विपरीत बालिकाओं में कढ़ाई-बुनाई, नृत्य और संगीत के प्रति विशेष आकर्षण होता है।"

9. स्वतंत्रता व विद्रोह की भावना (Freedom and Revolt Feeling) - शारीरिक व मानसिक विकास व परिपक्वता के कारण किशोरावस्था में बालक व बालिकाओं में शारीरिक व मानसिक स्वतंत्रता की भावना प्रबल हो जाती है। वह माता-पिता व समाज के ऐसे नियमों, प्रथाओं, रौतरिवाजों और आदशों का विरोध करता है जो उन्हें ठीक नहीं लगते। वह परम्पराओं के बंधन में नहीं बँधना चाहता है बल्कि स्वतन्त्र रूप से सोचना और कार्य करना चाहता है। यदि उस पर किसी प्रकार का बंधन लगाया जाता है तो वह विद्रोह करता है।

कोलेसनिक (Kolesnik) के अनुसार, "किशोर प्रौढ़ को अपने मार्ग में बाधा समझता है, जो उसे अपनी स्वतन्त्रता का लक्ष्य प्राप्त करने से रोकते हैं।" 
बी. एन. झा (B. N. Jha) ने भी कुछ इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं, उनके अनुसार "किशोर अपने आपको बन्धन से स्वतन्त्र करना चाहता है।"

10. आत्मनिर्भरता की अवस्था (Period of Self Dependence) - किशोर बालक शारीरिक और मानसिक रूप से इतना परिपक्व हो जाता है कि उसमें यह भावना विकसित हो जाती है कि वह अपना कार्य स्वयं कर सकता है और दूसरों के कार्यों में भी सहयोग प्रदान कर सकता है। इससे उनमें अहं और आत्म निर्भरता की भावना का विकास होता है। यही भावना किशोरों के प्रौढ़ जीवन का आधार बनती है।

11. व्यवसाय चुनने की अवस्था (Period of Selecting Occupation) - किशोर बालक आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनना चाहता है। वह अपनी शारीरिक व मानसिक क्षमता और शैक्षिक योजनानुसार उपयुक्त व्यवसाय का चुनाव कर आत्मनिर्भर बनना चाहता है। उपयुक्त व्यवसाय न मिल पाने पर युवा तनावग्रस्त हो जाता है और सही मार्गदर्शन के अभाव में ऐसे युवा अपराधों की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। बेरोजगारी के कारण वर्तमान समय में युवा तनाव व अपराधों की संख्या में वृद्धि हो रही है। 

12. अपराध प्रवृत्ति का विकास (Development of Delinquency)- वैलेन्टाइन के अनुसार- "किशोरावस्था अपराध प्रवृत्ति के विकास का नाजुक समय है। पक्के अपराधियों की एक विशाल संख्या किशोरावस्था में ही अपने व्यावसायिक जीवन को गम्भीरतापूर्वक आरंभ करती है।"

किशोरों में संवेगात्मक अस्थिरता पायी जाती है। निराशा, असफलता, प्रेम का अभाव, बेरोजगारी, माता-पिता का नियंत्रण, महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति न हो पाना आदि ऐसे कारण हैं जिनसे किशोर विचलित हो जाता है और अपराधों की ओर प्रेरित होता है। 

13. स्थिति व महत्व की अभिलाषा (Will of Status and Importance) - किशोर चूँकि स्वयं को आत्मनिर्भर समझते हैं इसलिये वे प्रौढ़ों के समान अपनी एक निश्चित पहचान बनाना चाहते हैं जिससे वे श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में स्वीकार किये जायें। वे अपना एक पृथक् अस्तित्व चाहते हैं। 
ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन (Blair, Jones and Simpson) के कथनानुसार-"किशोर महत्वपूर्ण बनना, अपने समूह में स्थिति प्राप्त करना और श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया जाना चाहता है।"

14. प्रौढ़ जीवन की तैयारी की अवस्था (Period of Preparation of Adulthood) किशोरावस्था में बालक अपने व्यवसाय के बारे में चिन्तित रहता है क्योंकि इस समय बालक में आत्मनिर्भर बनने का भाव पैदा हो जाता है। आत्मनिर्भरता उसे प्रौढ़ावस्था के लिये तैयार करती है। अब वे अपने ऐसे व्यवहारों को विकसित करने लगते हैं जो उनमें गंभीरता लाते हैं।

15. ईश्वर व धर्म में विश्वास (Belief in God & Religion) - बाल्यावस्था में बालक ईश्वर और धर्म के प्रति अधिक समर्पित नहीं होते हैं किन्तु धीरे-धीरे किशोर बालक ईश्वर की सत्ता को स्वीकारने लगते हैं और धर्म के प्रति उनका रुझान बढ़ जाता है।

16. जीवन दर्शन का निर्माण (Construction of Life Philosophy)- प्रौढ़ावस्था की ओर अग्रसरित होने वाले किशोर अपने जीवन मूल्यों के आधार पर अपना जीवन दर्शन बना लेते हैं जिसके तहत वे ऐसे नियमों व सिद्धान्तों का निर्माण करते हैं जिनकी सहायता से वे अपने जीवन में सफल हो सकें।

17. यौन भावना की जागृति (Excitement of Sex Felling)-किशोरावस्था का महत्वपूर्ण विकास लैंगिक विकास और लैंगिक परिपक्वता है। इसीलिये इस काल को यौनभावना का जागृतिकाल कहा जाता है। प्रजनन अंगों में पर्याप्त वृद्धि होने से उनमें परिपक्वता व प्रजनन शक्ति आ जाती है। इस अवस्था में यौन विकास की तीन अवस्थायें होती हैं

(i) स्वप्रेम-किशोरावस्था के प्रारम्भिक यौन विकास में किशोर स्वप्रेमी होता है। वह स्वयं को सुन्दर देखना चाहता है। बालक और बालिका दोनों ही अपनी सुन्दरता के प्रति जागरूक रहते हैं।

सुन्दर दिखने के लिये वह विभिन्न तरीके अपनाते हैं। बालिकायें डायटिंग शुरू कर देती हैं अपने । सौन्दर्य प्रसाधनों के प्रति सचेत हो जाती हैं, बालों तथा वस्त्रों पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है। फ्रायड ने इस स्थिति को 'Narcissim' कहा है।

इसके अतिरिक्त प्रेम का दूसरा रूप है अपने यौन अंगों को स्पर्श कर आनन्दाभूति प्राप्त करना । यह किया अप्राकृतिक है इससे हस्तमैथुन की आदत पड़ जाती है।

(ii) समलिंगीय कामुकता- इस अवस्था में समलिंगीय प्रेम बढ़ जाता है। बालक-बालकों के साथ तथा बालिकायें बालिकाओं के साथ रहना, घूमना, बातचीत करना पसंद करते हैं। 

(iii) विषमलिंगीय कामुकता- यह उत्तर किशोरावस्था में विकसित होती है, बालक तथा बालिकायें विपरीत लिंग की ओर आकर्षित होते हैं। अधिक समय एक-दूसरे के साथ बिताना चाहते हैं। परिवार व समाज का विरोध करने पर छिप छिपकर मिलते हैं। एक दूसरे का शारीरिक स्पर्श करने पर आनन्द की अनुभूति करते हैं तथा अतिकामुकता होने पर विवाह पूर्व ही शारीरिक सम्बन्ध बना लेते हैं।

किशोरावस्था में शारीरिक परिवर्तन और उनका मनोवैज्ञानिक महत्व (PHYSICAL CHANGES AND THEIR PSYCHOLOGICAL SIGNIFICANCE IN ADOLESCENCE)

किशोरावस्था में विकास की गति तीव्र होने से तथा शारीरिक विकास और यौन परिपक्वता आने से बालक के मानसिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। 8 वर्ष की आयु में बालक और बालिका लगभग पूर्णतया परिपक्व हो जाते हैं। अधिकांशतया लड़कियाँ चौदह वर्ष में और लड़के सोलह वर्ष की आयु में शारीरिक परिपक्वता प्राप्त कर लेते हैं। विकास में होने वाले तीव्र गति के परिवर्तन बालकों के मानसिक व संवेगात्मक विकास को प्रभावित करते हैं-इस अवस्था में होने

वाले परिवर्तनों को निम्न प्रकार से बाँटा जा सकता है:- 

1. यौन सम्बन्धी मुख्य परिवर्तन

2. यौन सम्बन्धी गौण परिवर्तन

3. लम्बाई

4. भार

5. शारीरिक अंगों का अनुपात

6. अस्थि विकास 7. त्वचा बाल

8. अन्य अंगों का विकास।

यौन सम्बन्धी मुख्य परिवर्तन यौन सम्बन्धी मुख्य परिवर्तनों से आशय जननेन्द्रियों के विकास व परिक्वता से है। किशोरावस्था के प्रारम्भ होने पर बालकों की जननेन्द्रियाँ कार्य करने लगती हैं और धीरे-धीरे परिपक्व हो जाती हैं। चौदह वर्ष की आयु में पुरुष जननेन्द्रियों में केवल दस प्रतिशत परिपक्वता होती है। बाद के दो वर्षों में इतनी तेजी से विकास होता है कि पुरुष जननेन्द्रिय उत्तर किशोरावस्था की समाप्ति तक पूरी तरह परिपक्व हो जाती है, अण्डग्रंथियों में परिपक्व शुक्राणुओं का निर्माण होने लगता है जिससे बालकों में स्वप्नदोष होने लगते हैं।

बालिकाओं में भी बारह से सोलह-सत्रह वर्ष की आयु तक यौन अंगों का विकास तीव्र गति से होता है। बीस से इक्कीस वर्ष की आयु में स्त्री का प्रजनन तंत्र संतानोत्पत्ति के लिये पूरी तरह तैयार हो जाता है जिसका प्रमुख लक्षण मासिक धर्म का प्रारम्भ होना है। 

यौन सम्बन्धी गौण परिवर्तन-बालकों में होने वाले यौन सम्बन्धी गौण परिवर्तनों में मुख्य है, दाढ़ी-मूँह निकलना, हाथ-पैर, बगल तथा शरीर के गुप्तांगों में बाल निकलना, कन्धों का चौड़ा होना, वक्षस्थल का विकास, वाणी में परिवर्तन, त्वचा में परिवर्तन, मुँहासे निकलना, बगल की स्वेद ग्रंथियों के सक्रिय होने से विशेष गंध युक्त पसीना निकलना, बालिकाओं के आभामण्डल पर चमक आना तथा स्तनों का विकास होना। शरीर का चौड़ा और गोल होना, वाणी में कोमलता आना आदि यौन सम्बन्धी गौण परिवर्तन हैं, जो किशोरावस्था की यौन परिपक्वता की ओर इंगित करते हैं। यौन परिपक्वता पर पिट्यूटरी ग्रंथि का बहुत प्रभाव होता है। इस ग्रंथि से उत्पन्न गोनाडोट्रापिक हार्मोन गोनड ग्रन्थि को क्रियाशीलता को बढ़ा देता है जिससे हार्मोन का स्राव बढ़ जाता है। फलस्वरूप ज्ञानेन्द्रियों का विकास होता है और यौन सम्बन्धी परिवर्तन दिखायी देने लगते हैं। 

लम्बाई- इस अवस्था में लम्बाई में तेजी से वृद्धि होती है। बालिकाओं की लम्बाई लगभग 16 वर्ष की आयु तक तथा बालकों की लम्बाई 18 वर्ष की आयु तक बढ़ती है। पिट्यूटरी ग्रंथि के हार्मोन का प्रभाव लम्बाई के विकास पर पड़ता है। 

भार-अस्थियों और माँसपेशियों के विकास के कारण इस अवस्था में पहले लम्बाई तथा फिर भार में वृद्धि होती है। 10 से 15 वर्ष की आयु में लड़कियाँ, लड़कों की तुलना में अधिक वजन प्राप्त कर लेती हैं परन्तु बाद में लड़के लड़कियों की अपेक्षा अधिक भारी हो जाते हैं।

शारीरिक अंगों का अनुपात-किशोरावस्था में शरीर के समस्त अवयव सिर, मुखमण्डल, धड़, पैर तथा भुजायें सभी समुचित अनुपात में आ जाते हैं। जहाँ बाल्यावस्था में शरीर का ऊपरी भाग बड़ा होता है वहाँ किशोरावस्था में निचला भाग ऊपरी भाग की तुलना में अधिक लम्बा हो जाता है। नाक, कान, माथा, आँखें तथा शरीर के अन्य अंग भी उपयुक्त आकार आ जाते हैं जिससे बालक प्रौढ़ आकृति प्राप्त कर लेते हैं, त्वचा चिकनी और कोमल हो जाती है। सिर के बाल पहले की तुलना में अधिक घने व काले हो जाते हैं। किशोरों की वाणी में परिवर्तन होने लगता है। बालकों को आवाज में भारीपन तथा बालिकाओं की आवाज में कोमलता आ जाती है, मुखाकृति में भी परिवर्तन होते हैं। बालिकाओं के मुख पर निखार आ जाता है तथा बालकों का चेहरा दाढ़ी-मूंछ आ जाने से भद्दा लगने लगता है। अस्थि विकास भी पूर्ण हो जाता है। वे अब पहले की तुलना में अधिक दृढ़ हो जाती हैं। सिर व मस्तिष्क का विकास भी पूर्ण हो जाता है। इस अवस्था में मस्तिष्क का भार 1200 से 1400 ग्राम के बीच होता है माँसपेशियों के गठन में दृढ़ता आ जाती है। किशोर बालक शारीरिक सुन्दरता के लिये व्यायाम द्वारा अपनी माँसपेशियों को और अधिक सुडौल बनाने का प्रयास करते हैं।

आंतरिक अंगों का विकास (Development of Internal Organs)

(i) पाचन तंत्र- पाचन तंत्र का विकास पूर्व किशोरावस्था में तेजी से होता है किन्तु उत्तर बाल्यावस्था के अंत तक इसकी गति मंद हो जाती है। आमाशय की लम्बाई व गोलाई बढ़ जाती है। आँत भी लम्बी और मोटी होने लगती हैं। पाचन शक्ति बढ़ जाती है तथा यकृत का भार भी बढ़ जाता है। पाचन शक्ति बढ़ने पर भी अपनी शरीराकृति को बनाये रखने के लिये लड़कियाँ कम खान खाती हैं।

(ii) रक्त परिसंचरण तंत्र- किशोरावस्था में हृदय के भार में भी तीव्र गति से वृद्धि होती है। मंत्रह-अठारह वर्ष की आयु में हृदय का भार जन्म के भार का बारह गुना अधिक हो जाता है। रक्त बाहिनियों की दीवारें मजबूत हो जाती हैं और उनकी लम्बाई बढ़ जाती है।

(iii) श्वसन तंत्र- किशोरावस्था में फेफड़ों का विकास भी पूर्ण हो जाता है। लड़कों में यह विकास लड़कियों की तुलना में देर से होता है। क्योंकि लड़कियों के सीने की अस्थि जल्दी विकसित हो जाती है जबकि लड़कों के सीने को अस्थि का विकास अपेक्षाकृत देर से होता है। 

(iv) नलिकाविहीन ग्रंथियाँ-किशोरावस्था में गोनेड ग्रंथियों का विकास तीव्र गति से होता है। इसी कारण तरुणावस्था के लक्षण प्रकट होते हैं और यौन परिपक्वता आती है।

(v) पेशीय ऊतक-पेशीय ऊतकों का विकास किशोरावस्था में अपनी चरम सीमा पर होता है इसी कारण किशोरों का शारीरिक गठन अच्छा दिखायी देता है। पेशीय ऊतकों का विकास किशोरावस्था के बाद भी चलता रहता है। किशोर बालक व्यायाम द्वारा अपने पेशीय ऊतकों का विकास करते हैं।

किशोरावस्था के शारीरिक परिवर्तनों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव (PSYCHOLOGICAL IMPACT OF PHYSICAL CHANGES)

किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों का किशोर बालक बालिकाओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। किशोरों में इस आयु में अपने शारीरिक अंगों की पूर्णता की चेतना विकसित होने लगती है अत: वे अपने शरीर को सुन्दर वस्त्रों से अलंकृत करने, अलग अलग तरीके से केश सँवारने में अपना अधिक समय व्यतीत करते हैं। वस्त्रों के चुनाव में वे अपनी एक अलग राय रखते हैं वे प्रचलित फैशन के अनुरूप वस्त्रों का चुनाव करते हैं। वे अपने शिक्षकों व वयस्कों को ध्यान से देखते हैं और उनकी अच्छी चीजों का अनुकरण करते हैं। अपनी स्वचेतना के विकास में वे वयस्कों का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते हैं। वे अपने धार्मिक विचारों, महत्वाकांक्षाओं, मित्रों के चुनाव, वस्त्रों की पसंद, सौन्दर्य प्रसाधनों के प्रयोग तथा अन्य गतिविधियों में पूर्ण स्वतंत्रता चाहते हैं। पूर्ण आंगिक विकास और शारीरिक व यौन परिपक्वता के आने से बालक तथा बालिकाओं में आत्मविश्वास आता है, समायोजन अच्छा होता है। सामाजिक अन्तःक्रियायें बढ़ जाती हैं और सामाजिक सम्बन्ध अच्छे रहते हैं।

लेकिन जिन बालकों में यौन परिपक्वता विलम्ब से आती है और शारीरिक अंगों का विकास आयु के अनुसार नहीं हो पाता है वे हीनता की भावना से पीड़ित रहते हैं और अन्तर्मुखी हो जाते हैं। यदि किसी बालक में चेहरे का निखार, वाणी में कोमलता तथा यौवन के लक्षण विलम्ब से आते हैं तो यह उसके लिए चिन्ताजनक हो जाता है। इसी प्रकार यदि बालकों में दाढ़ी मूँछ देर से निकलती है, वाणी में प्रौढ़ता नहीं आती है। शारीरिक गठन तथा माँसपेशियों में दृढ़ता नहीं आती है तो वह भी स्वयं को समूह के साथियों से भिन्न समझने लगता है। इसके विपरीत यदि बालकों में यौन परिपक्वता जल्दी आ जाती है तो वे अवांछित आचरणों का प्रदर्शन करने लगते हैं या लज्जा व संकोच का अनुभव करने लगते हैं। सामूहिक क्रियाओं में भाग नहीं लेते हैं प्रायः अन्तर्मुखी हो जाते हैं। विकासक्रम में जिन बालकों की लम्बाई व भार सामान्य से अधिक हो जाता है, शरीर पर बालों की अधिकता हो जाती है उनके साथ भी समायोजन समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं।

इसके अतिरिक्त सामान्य विकास होने पर भी प्रारम्भ में बालक लज्जा व संकोच का अनुभव करते हैं। सामाजिक सम्बन्धों में वे अपने विपरीत लिंग के सदस्यों के निकट आने में हिचकते हैं। जबकि उत्तर बाल्यावस्था के अंत में इसी परिवर्तन के कारण एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। जबकि माता-पिता इस समय उन्हें विपरीत लिंग के साथ सम्बन्ध बनाने से रोकते हैं इससे भी समायोजन सम्बन्धी समस्यायें उत्पन्न होती हैं।

अत: किशोरावस्था में शारीरिक परिवर्तनों का अभाव या प्रादुर्भाव दोनों ही बालकों के सम्मुख समस्यायें उत्पन्न कर देते हैं।

किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास (EMOTIONAL DEVELOPMENT DURING ADOLESCENCE)

स्टेनले हॉल ने किशोरावस्था को गंभीर उथल-पुथल (Strom & Stress) की अवस्था कहा है। 

कोल व ब्रूस का विचार है, "किशोरावस्था के आगमन का मुख्य संकेत संवेगात्मक विकास में तीव्र परिवर्तन है।"

अतः इस अवस्था के बालक में कुछ ऐसी विशेषतायें उत्पन्न हो जाती हैं जिनसे उत्पन्न समस्याओं के कारण उसे समायोजन में कठिनाई का अनुभव होने लगता है अत: वह असफलताओं और निराशाओं की स्थिति में अधिक मात्रा में संवेगशीलता का प्रदर्शन करता है, इसीलिये अति संवेगशीलता को इस अवस्था की एक प्रमुख विशेषता भी माना जाता है। किशोरों के सामाजिक सम्बन्धों की व्यापकता, समायोजन की जटिलता तथा शारीरिक परिवर्तन तीनों का प्रभाव उसके संवेगात्मक जीवन पर पड़ता है। जिन बालकों का पारिवारिक, सामाजिक और संवेगात्मक समायोजन निम्न स्तर का होता है, और जिन्हें उलझनों व निराशाओं का अनुभव अधिक होता है, उनके जीवन में भी संवेगात्मक उग्रता विशेष रूप से देखी जाती है। पूर्व किशोरावस्था में यह संवेगात्मक अस्थिरता अधिक देखी जाती है।

किशोरावस्था में प्रत्येक बालक व बालिका, स्नेह, प्रतिष्ठा, प्रेम कामुकता तथा मान्यता प्राप्ति की भावनाओं को दूसरों से चाहता है, चाहे परिवार हो, पाठशाला हो या समाज हो। सामान्यतः किशोर चाहते हैं कि लोग उनकी आवश्यकता को समझें, उन्हें स्नेह दें तथा विपरीत लिंग में उनकी प्रतिष्ठा हो किन्तु जब किसी किशोर में सपने टूटते हैं तो संवेगात्मक स्थिरता समाप्त हो जाती है, प्रसन्नता घटने लगती है और समस्यायें बढ़ने लगती हैं।

किशोरों की शारीरिक शक्ति उनके संवेगों के प्रदर्शन पर स्पष्ट दिखायी पड़ती है। स्वस्थ व सबल किशोरों में अस्वस्थ व निर्बल किशोर की तुलना में अधिक संवेगात्मक स्थिरता पायी जाती है। 


किशोरावस्था के प्रमुख संवेग

1. किशोरों में क्रोध-किशोरों की क्रोधात्मक प्रतिक्रियायें विरोध पूर्ण परिस्थितियों में उत्पन्न होती हैं, जैसे- यदि उनके साथ अन्याय किया जाता है, उनकी आलोचना की जाती है, मजाक बनाया जाता है, माता-पिता द्वारा अधिक नियंत्रण में रखा जाता है, विद्यालय में उसके या उसके साथियों के साथ पक्षपात किया जाता है, अनायास या जानबूझकर कोई उसकी प्रगति में बाधा डालता है तो वह क्रोधित हो जाता है क्योंकि किशोरों का जीवन भावप्रधान होता है, उनमें आत्मगौरव की प्रवृत्ति होती है। अत: वह किसी भी प्रकार अपने आत्म सम्मान को चोट नहीं पहुँचाना चाहता है, ऐसी परिस्थिति में वह स्वयं को अपने प्रेम पात्र को, किसी वस्तु को या सामान को चोट पहुँचाने का प्रयास करता है। विफलताओं की स्थिति में या आत्मसम्मान को ठेस पहुँचने पर किशोर आत्महत्या जैसे निर्णय भी लेते हैं।

2. चिन्ता- किशोरों का जीवन कल्पनाशील होने के कारण वे अनेक प्रकार की चिन्ताओं से यसित रहते हैं अन्तर्मुखी बालक प्रायः अवास्तविक बातों की कल्पना करके चिन्तित रहते हैं और दिवास्वप्नों के माध्यम से अपने संवेगों की अभिव्यक्ति करते हैं। प्रेमपात्र को खो देने का भय, सामाजिक स्वीकृति का प्राप्त न होना, सामाजिक असफलता आदि बालक बालिकाओं की चिंता के कारण हो सकते हैं। एलिस को के अनुसार-"किशोर अनेक बातों के बारे में चिन्तित रहता है; उदाहरणार्थ उसे अपनी आकृति, स्वास्थ्य, सम्मान, धन प्राप्ति, शैक्षिक प्रगति, सामाजिक असफलता और अपनी कमियों की सदैव चिन्ता रहती है।"

3. ईर्ष्या- किशोरों में ईर्ष्या भी पायी जाती है। ईर्ष्या का सम्बन्ध उन व्यक्तियों से होता है जो उससे प्रतिस्पर्धा में रहते हैं और आगे निकल जाते हैं। उसके प्रेम मार्ग में जो उसके समकक्ष खड़ा होता है वह भी उसकी ईर्ष्या का शिकार हो जाता है। किशोर प्रायः अपने से सुन्दर व होशियार साथियों से भी ईर्ष्या करने लगते हैं। निर्धन बालक उच्च सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले बालकों से ईर्ष्या करने लगते हैं। ईर्ष्या के कारण वे होशियार छात्रों की पुस्तकें फाड़ देते हैं, नोट्स छुपा देते हैं. या चोरी कर लेते हैं।

4. भय- इस आयु में सामाजिक स्वीकृति के प्रति सजगता विकसित होने के कारण बालकों में सामाजिक चेतना विकसित हो जाती है। मीन्स ने अपने अध्ययनों में देखा कि उत्तर किशोरावस्था में भय के अधिकांश कारण सामाजिक होते हैं। जो बालक बचपन में अभावों से ग्रस्त होते हैं उनमें भय की मात्रा अधिक होती है क्योंकि वे स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हैं। किशोरों में भय की उत्पत्ति के तीन कारण हो सकते हैं-
(i) सामाजिक सम्बन्धों को खोने या पाने का भय, 
(ii) स्वयं से सम्बन्धित भय, 
(iii) वस्तुओं और पदार्थों से भय-आग, जल, पशु, पक्षी आदि। 

कुछ बालकों को रात में भयानक स्वप्न दिखायी देने लगते हैं। मानसिक, शारीरिक थकान, सिरदर्द, भूख न लगना आदि बातें बालकों में दिखायी देती हैं।

5. प्रेम-किशोरावस्था में कामभावना केन्द्रीय तथ्य के रूप में पायी जाती है। काम भावना की तीव्रता के कारण किशोरों में प्रेम संवेग बढ़ जाता है जो विषमलिंगीय साथियों के साथ अधिक समय बिताने में अधिक रुचि लेने लगते हैं-इस सम्बन्ध में बी. एन. झा का कथन है-"किशोरावस्था में बालक-बालिका दोनों में काम-प्रवृत्ति तीव्र हो जाती है और उनके संवेगात्मक व्यवहार पर असाधारण प्रभाव डालती है।"

6. हर्ष व प्रसन्नता हर्ष व प्रसन्नता का अनुभव किशोर अलग-अलग परिस्थितियों में पृथक पृथक तरीके से करते हैं तथा इसके कई कारण होते हैं, जैसे-अपनी सफलताओं व उच्च उपलब्धियों पर वे हर्ष का अनुभव करते हैं। हास्य व्यंग्य युक्त बातों को देखकर व सुनकर प्रसन्न होते है तथा अपनी प्रिय वस्तुओं को पाने तथा अपनी सामाजिक प्रशंसा पर हर्ष का अनुभव करते हैं।

किशोरावस्था में संवेगात्मक अभिव्यक्ति का स्वरूप

बी. एन. झा के अनुसार-"किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास इतना विचित्र होता है कि किशोर एक ही परिस्थिति में विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का व्यवहार करता है। जो परिस्थिति उसे एक अवसर पर उल्लास से भर देती है, वही दूसरे अवसर पर उसे खिन्न कर देती है।" 

इस अवस्था में क्रोध संवेग सबसे अधिक तीव्र होता है। अन्याय के प्रति वह क्रोध व विद्रोह प्रकट करता है। कठोर अनुशासन के प्रति घृणा प्रदर्शित करता है। दुःखी व्यक्ति के प्रति दया व सहानुभूति दिखाता है। अधिकांशतः संवेगात्मक तनाव का प्रदर्शन उसकी उदासीनता, निराशा, विद्रोह तथा अपराध प्रवृत्ति से होता है जिज्ञासा प्रवृत्ति से प्रेरित होकर उसमें दार्शनिक, वैज्ञानिक खोज तथा सत्य का अन्वेषण करने की भावना का विकास होता है। प्रेम सम्बन्धों में असफल रहने पर दिवास्वप्नों की प्रकृति विकसित हो जाती है और दिवास्वप्नों से अपने संवेगों की अभिव्यक्ति करता है। प्रेम में असफल होने पर, सामाजिक तिरस्कार पाने पर, उपलब्धियों में पिछड़ जाने पर वे आत्महत्या जैसा जघन्य कार्य भी कर डालते हैं।

यद्यपि किशोर बालक अपने जीवन में संवेगों से कार्य करने के लिये प्रचुर मात्रा में प्रेरणा, शक्ति तथा उत्साह प्राप्त करता है, किन्तु फिर भी मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि उच्च संवेगशीलता शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है क्योंकि निरंतर संवेगात्मक तनाव में रहने से बालकों की कार्य क्षमता घट जाती है, निरंतर भय तथा क्रोध की दशा में रहने से ध्यान, सीखने तथा स्मरण शक्ति में कमी आने लगती है साथ ही कुछ व्यक्तित्व सम्बन्धी दोष भी उत्पन्न हो जाते है; जैसे- उदासीनता, निराशा, चिड़चिड़ापन तथा आक्रामक प्रवृत्ति का विकास होना अत्यधिक चिंता से 'अनिद्रा रोग' (Insominia) का विकास होने लगता है जिसके निराकरण के लिये किशोर इग्स लेने लगते हैं।

अतः बालकों (किशोर) का व्यक्तिगत व सामाजिक समायोजन अच्छा हो इसके लिये आवश्यक है किशोर स्वयं अपने संवेगों को नियंत्रित करें। संवेगात्मक नियंत्रण से आशय यह नहीं कि हम अपने संवेगों का दमन करें बल्कि इसका अर्थ है कि हम अपनी किसी भी समस्या का समाधान विवेकपूर्ण ढंग से करें।

माता-पिता तथा शिक्षकों को भी चाहिये कि वे किशोरों को अवांछनीय व्यवहारों से बचाने के लिये उनके संवेगों को वांछित दिशा में ले जाने के लिये उचित प्रशिक्षण दें क्योंकि मूल प्रवृत्तियाँ संवेगों को प्रभावित करती हैं। मूल प्रवृत्तियों की भाँति ही संवेगों को परिष्कृत व नियोजित किया जा सकता है।

रॉस के अनुसार-"शिक्षक बालकों में वांछनीय संवेगों का विकास करके उनमें कला, साहित्य, संगीत तथा अन्य सुन्दर वस्तुओं के प्रति प्रेम उत्पन्न कर सकता है। बालकों को समाचार पत्र • तथा अन्य साहित्य का अध्ययन करने की प्रेरणा देनी चाहिये तथा किशोरों को ललित कला की ओर प्रेरित करना चाहिये।"

किशोरावस्था में सामाजिक विकास (SOCIAL DEVELOPMENT IN ADOLESCENCE)

सामाजिक विकास का अर्थ उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक परम्पराओं और रूढ़ियों के अनुसार कार्य करना सीखता है। हरलॉक का कथन है-"सामाजिक विकास का अर्थ सामाजिक सम्बन्धों में परिपक्वता को प्राप्त करना है।" इस अर्थ में किशोरावस्था में सामाजिक विकास का महत्व और अधिक बढ़ जाता है क्योंकि किशोरावस्था सभी दृष्टियों से परिपक्वता क अवस्था है। किशोरावस्था को "विकसित सामाजिक सम्बन्धों की अवस्था" कहा गया है क्योंकि उनकी अधिकांश क्रियायें सामाजिक पृष्ठभूमि में ही होती हैं। किशोरावस्था में सफल सामाजिक विकास का महत्व इसलिये भी बढ़ जाता है क्योंकि किशोरावस्था के सामाजिक समायोजन से ही उसकी भावी प्रौढ़ावस्था का स्वरूप निर्धारित होता है जब किशोरों के भीतर सामाजिक परिपक्वता विकसित होने लगती है तो वह विभिन्न सामाजिक क्रियाकलापों में स्वेच्छापूर्वक भाग लेता है, व बिना किसी दबाव के अपनी संस्कृति व धर्म में आस्था रखता है तथा स्वेच्छापूर्वक अपने परिवार, समाज व समुदाय के प्रतिबन्धों के साथ समायोजन कर लेता है तथा उत्कृष्ट कोटि का सामाजिक समायोजन करने में सफल रहता है, इस स्थिति में उसके सामाजिक विकास का स्वरूप निम्न प्रकार होता है:-

1. समूहों का निर्माण- यद्यपि बाल्यावस्था समूह अवस्था है किन्तु किशोरावस्था में भी समूहों का निर्माण किया गया जाता है किन्तु इनका स्वरूप बाल्यावस्था के समान नहीं होता है। इस अवस्था में समान रुचियों, समान आदर्शों तथा मैत्री भाव से समूहों का निर्माण किया जाता है, जिनका उद्देश्य मनोरंजन, बौद्धिक विकास तथा मौज-मस्ती व पर्यटन होता है। पूर्व किशोरावस्था में समूहों का निर्माण अपने अपने लिंग के अनुसार होता है जबकि उत्तर किशोरावस्था में इसमें विपरीत लिंग के भी साथी हो सकते हैं।

चूँकि किशोरावस्था में समूह के सदस्यों के आचार-विचार, व्यवहार, तौर-तरीके, वेशभूषा आदि एक ही प्रकार के होते हैं अत: किशोरों में समूह की बातों के प्रति भक्ति के भाव दिखायी देता है। • समूह का प्रत्येक सदस्य एक-दूसरे की बात को सम्मान देता है। 

2. मैत्री भाव का विकास समूह भावना तथा समूह के प्रति भक्ति भाव होने के कारण किशोरों में परस्पर मित्रता का भाव होता है। इस आयु में मित्रता घनिष्ठता बदल जाती है। किशोर अपने अनुकूल स्वभाव व रुचियों वाले किशोरों को अपना मित्र बनाते हैं। हरलॉक (Hurlock) के अनुसार किशोर में विषमलिंगी से मित्रता करने की इच्छा प्रबल होने लगती है।"

3. समूह में विशिष्ट स्थान पाने की इच्छा-इस अवस्था में किशोर अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी क्षेत्र में अपनी विशिष्ट योग्यता का प्रदर्शन करना चाहता है; जैसे- शिक्षा, खेल, नृत्य, संगीत, कला, साहित्य आदि। अगर वह अपनी योग्यता का विकास भली-भाँति कर लेता है तो उस क्षेत्र में वह विशिष्ट स्थान पाने के लिये निरंतर प्रयत्नशील रहता है तथा समाज में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाना चाहता है। मनोवैज्ञानिकों ने चार प्रकार के समाज बताये हैं-
(1) गृह समाज, 
(2) विद्यालय समाज, 
(3) मित्र समाज, 
(4) व्यवसाय समाज विशिष्टताओं से युक्त बालक प्रत्येक प्रकार के समाज में अपनी विशिष्ट पहचान बनाना चाहते हैं।

4. सामाजिक चेतना तथा सामाजिक परिपक्वता की भावना का विकास-किशोरावस्था में बालकों को यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि समाज द्वारा निर्धारित मानदण्ड क्या हैं ? क्या उचित है क्या अनुचित हैं ? उसे समाज में उपस्थित विभिन्न व्यक्तियों के प्रति किस प्रकार का व्यवहार करना है तथा समाज से उसकी क्या अपेक्षायें हैं ? यही परिपक्वता है इसी के कारण किशोरों को समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। अब वे बाल्यावस्था का लड़कपन छोड़कर वयस्कों के समान व्यवहार करने लगते हैं तथा अपने कार्यों तथा व्यवहारों से समाज में सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं। अब वह प्राय: अपने से बड़ों के साथ रहने तथा उनके साथ वार्तालाप करने में भी इच्छुक रहते हैं तथा सामाजिक कार्यक्रमों जैसे- पार्टियाँ, दावतों, सम्मेलनों तथा अन्य धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक आयोजनों में भाग लेकर अपनी सामाजिक परिपक्वता का परिचय देते हैं।

5. विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण तथा सम्बन्धों का निर्माण- बाल्यावस्था में जहाँ बालक विपरीत लिंग के प्रति संकोच व लज्जा का भाव रखते हैं अपने अपने लिंग के अनुसार समूह बनाते हैं वहीं किशोरावस्था में वे विपरीत लिंग के साथ अधिक से अधिक समय व्यतीत करना चाहते हैं तथा अपने विषमलिंगीय के साथ इस प्रकार का संतुलित व्यवहार करते हैं जिससे वे एक-दूसरे की तरफ अधिक आकर्षित हो तथा उनमें निकटता बढ़े। एक-दूसरे को आकर्षित करने के लिये वे अपने बनाव, शृंगार, वेशभूषा, केशसज्जा आदि के प्रति सजग हो जाते हैं। विषमलिंगियों का एक दूसरे के प्रति सही दृष्टिकोण विकसित करने के लिये तथा उनके सम्बन्धों का सही रूप निर्धारित करने के लिये वयस्कों को उचित निर्देशन की आवश्यकता होती है।

6. व्यवसाय चुनाव में रुचि-इस अवस्था में किशोर अपनी व्यावसायिक रुचियों का विकास करते हैं जिससे वे अपने आगामी जीवन में सही व्यवसाय का चुनाव कर अपना जीविकोपार्जन कर सकें। वे अधिकांशतया उस प्रकार का शिक्षण-प्रशिक्षण लेना चाहते हैं जो उसको सम्मानयुक्त रोजगार दिला सके। इस क्षेत्र में सफलता व असफलता किशोरों के सामाजिक विकास को प्रभावित करती है।

7. राजनीति में रुचि तथा राजनीतिक दलों का बनना- किशोरावस्था में शारीरिक तथा मानसिक दोनों ही प्रकार की परिपक्वता आ जाती है अतः किशोर में अदम्य क्षमता व उत्साह दिखायी पड़ता है। वे समाज में होने वाली विभिन्न घटनाओं के बारे में सम्पूर्ण जानकारी रखते हैं इसी क्रम में वे राजनीतिक दलों व राजनेताओं से प्रभावित हो जाते हैं तथा अपनी नीतियों तथा रुचियों के अनुसार किसी दल के सदस्य बन जाते हैं तथा उनके साथ मिलकर राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेते हैं।

इस प्रकार उत्तर किशोरावस्था के समाप्त होते-होते किशोर पर्याप्त सामाजिक प्रौढ़ता प्राप्त कर लेते हैं तथा उनके समाज की परिधि बहुत व्यापक हो जाती है। सामाजिक परिपक्वता से किशोरों के व्यवहार में दृष्टिकोण की व्यापकता, व्यवहार में उदारता, चिन्तन में स्पष्टता दिखायी देती है। उनमें सामाजिक प्रतिष्ठा तथा नेतृत्व की भावना प्रबल रूप से विकसित हो जाती है। बहिर्मुखी किशोरों में विकसित सामाजिकता दिखायी देती है।

किशोरावस्था में मानसिक विकास (MENTAL DEVELOPMENT DURING ADOLESCENCE)

शारीरिक विकास के समान मानसिक विकास भी किशोरावस्था में बहुत तीव्र गति से होता है। वुडवर्थ (Woodworth) के अनुसार, "मानसिक विकास पन्द्रह से बीस वर्ष की आयु में अपनी उच्चतम सीमा पर पहुँच जाता है।"

इस अवस्था में मानसिक विकास की प्रमुख अवस्थायें निम्नलिखित हैं:- 

1. रुचियों का विकास इस समय किशोर बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न बनना चाहते हैं। इस समय विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित रुचियों का विकास होता है। प्रशिक्षण, उपयुक्त वातावरण तथा माता-पिता और शिक्षकों का सहयोग मिलने पर उनमें सृजनात्मकता का विकास होता है। किशोरों की रुचियाँ अध्ययन, खेल-कूद, ललित कला किसी भी क्षेत्र में हो सकती हैं। रुचियाँ सीखने में सहायक होती हैं। बालिकायें नृत्य, संगीत, ड्रामा, चित्रकारी आदि में रुचि रखती हैं जबकि बालक मानसिक खेलों तथा प्रतिस्पर्धात्मक कार्यों में रुचि रखते हैं।

2. सीखने की क्षमता का विकास- बहुमुखी रुचियों के विकास के कारण किशोर बालक. विभिन्न क्षेत्रों में व्यावहारिक, सैद्धान्तिक, वैज्ञानिक तथा यांत्रिक क्रियाओं को सीखने का प्रयास करते हैं।

3. मानसिक योग्यताओं का विकास-इस अवस्था में मानसिक विकास में परिपक्वता आने में किशोरों में, जैसे-सोचने विचारने, अंतर करने, निर्णय लेने तथा समस्याओं का समाधान करने की मानसिक योग्यतायें विकसित हो जाती हैं।

4. बुद्धि का अधिकतम विकास-किशोरावस्था में बुद्धि का विकास भी अपनी उच्चतम सीमा पर पहुँच जाता है जिससे बालकों में निम्नलिखित बौद्धिक क्षमतायें दृष्टिगत होती हैं

(अ) तर्क शक्ति-किशोरावस्था में तर्क शक्ति का विकास दिखायी देता है। किशोर बालक किसी भी बात को बिना तर्क के स्वीकार नहीं करता है। तर्क शक्ति के कारण ही वे विभिन्न समस्याओं का समाधान स्वयं करते हैं। वे किसी भी समस्या के समाधान के लिये चर्चा परिचर्चा द्वारा सुझाव सभी से लेते हैं किन्तु अंतिम निर्णय उनका स्वयं का होता है।

(ब) स्मरण शक्ति-विभिन्न परीक्षणों द्वारा मनोवैज्ञानिकों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि 18 से 19 वर्ष की आयु में किशोरों में स्मरण शक्ति का अधिकतम विकास हो जाता है। स्मृति के विकास के कारण अध्ययन तथा अनुसंधान में रुचि बढ़ती है तथा विभिन्न बौद्धिक कार्यों के प्रति किशोरों की रुचि का प्रदर्शन होता है।

(स) कल्पना शक्ति- यह आयु कल्पनाशीलता की आयु है। किशोरों का अधिकांश समय उनके काल्पनिक जगत में बीतता है वे अपनी कल्पना को मूर्त रूप प्रदान करना चाहते हैं जिससे विभिन्न कलाओं का सृजन होता है।

(द) भाषा का विकास-किशोरावस्था में चिन्तन, तर्क एवं कल्पना शक्ति के विकास के कारण भाषा विकास प्रभावित होता है। किशोरों का शब्द भण्डार विस्तृत हो जाता है। भाषा-शैली अच्छी हो जाती है। वाकपटुता आ जाती है भाषा-शैली और वाक्पटुता से किशोरों के सामाजिक सम्बन्धों का विस्तार होता है।

(य) चिन्तन शक्ति-किशोरावस्था में चिन्तन की क्षमता विकसित होती है। चिन्तन और विचार शक्ति की सहायता से वह विभिन्न विषयों की व्याख्या व आलोचना करता है तथा समस्याओं के हल खोजता है।

(र) ध्यान केन्द्रित करने की क्षमता का विकास-किशोरावस्था में ध्यान केन्द्रित करने की क्षमता भी विकसित हो जाती है। वे अधिक समय तक किसी भी कार्य को एकाग्रतापूर्वक कर सकते है। क्रो एवं क्रो के अनुसार- "सफल एकाग्रता किशोर की रुचियों से जुड़ी होती है।"

किशोरावस्था में मानसिक शक्तियों के सर्वोत्तम विकास के लिये उनकी शिक्षा का स्वरूप उनकी रुचियों, योग्यताओं और आदर्शों के अनुसार चाहिये। उनकी शिक्षा में कला, विज्ञान साहित्य, सामान्य ज्ञान, इतिहास, भूगोल सभी को सम्मिलित करना चाहिये। किशोरों की जिज्ञासाओं को संतुष्ट करना चाहिये। निरीक्षण शक्ति को विकसित करने के लिये उन्हें प्राकृतिक व ऐतिहासिक स्थानों पर भ्रमण के लिये ले जाना चाहिये। उनकी रुचियों और कल्पनाओं को साकार करने के लिये सृजनात्मकता के विकास के लिये प्रेरित करना चाहिये। बालक तथा बालिकाओं के पाठ्यक्रम में भिन्नता होनी चाहिये। शिक्षकों को ऐसी शिक्षण विधियों का प्रयोग करना चाहिये जिसमें किशोरों को स्वयं परीक्षण, निरीक्षण, विचार, चिन्तन तथा तर्क को विकसित करने का अवसर मिले। किशोरों का स्वयं करके सीखने का मौका देना चाहिये। किशोरों को अपनी कल्पनाशीलता से आत्मप्रदर्शन का अवसर देना चाहिये।

किशोरावस्था की समस्यायें (PROBLEMS OF ADOLESCENCE)

किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन और नाजुक मोड़ है। इस अवस्था में बालक का झुकाव जिस ओर हो जाता है, उसी दिशा में उसके विकास का स्वरूप निर्धारित होता है। वह धार्मिक या अधार्मिक, अध्यवसायी या अकर्मण्य, देशप्रेमी या देशद्रोही कुछ भी बन सकता है। अगर किशोर बालक और बालिकायें अनेक प्रकार की उलझनों, कठिनाइयों तथा चिन्ताओं का अनुभव करते रहते है तो ऐसे बालक लक्ष्यहीन व गुमराह हो जाते हैं जो स्वयं अपने लिये माता-पिता, शिक्षकों तथा समाज के लिये समस्या बन जाते हैं।

यद्यपि किशोरावस्था "समस्या बाहुल्य की अवस्था" है किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि उनका विकास नकारात्मक होगा। यह सही है कि किशोरावस्था में उत्पन्न समस्यायें अत्यंत जटिल एवं गंभीर होती हैं जो बालक के समायोजन और व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करती है। यदि माता-पिता, शिक्षक और विद्यालय द्वारा उनकी इन समस्याओं को सहानुभूतिपूर्वक समझा जाता है और उचित परामर्श द्वारा उनका निराकरण किया जाता है तो किशोरों के एक अच्छे प्रौढ़ जीवन की भावो तैयारी हो जाती है।

किशोरावस्था में अनेक समस्यायें होती हैं। इनका पता लगाने के लिये मूनी (Mooney), पोप (Pope), विलियम्स (Williams), लेविस (Lewis) तथा अन्य मनोवैज्ञानिकों ने हाई स्कूल तथा कॉलेज स्तर के किशोरों की समस्याओं का अध्ययन किया और निम्नांकित समस्यायें बतार्थी:- 

1. विद्यालय की समस्यायें,

2. पारिवारिक समस्यायें,

3. आर्थिक समस्यायें,

4. विपरीत यौन की समस्यायें,

5. व्यक्तिगत सौन्दर्य की समस्यायें,

6. स्वास्थ्य समस्यायें,

7. मनोरंजन की समस्यायें,

8. भविष्य निर्धारण की समस्यायें,

9. व्यवसाय की समस्यायें।

किशोरावस्था में उत्पन्न होने वाली समस्याओं को तीन भागों में बाँटा जा सकता है:-

1. व्यावसायिक समस्यायें- किशोरावस्था भावी जीवन की तैयारी का समय होता है। उत्तर किशोरावस्था के अंत तक प्रत्येक बालक यह चाहता है कि वह आत्मनिर्भर बन जाये तथा उसे अपनी शिक्षा कुशलता तथा रुचि के अनुसार उपयुक्त व्यवसाय प्राप्त हो जाये लेकिन आज देश की वर्तमान स्थिति ऐसी है जिसमें बेरोजगारी एक विषम समस्या बनी हुई है। जिन किशोरों का सम्बन्ध उच्च आर्थिक व सामाजिक स्थिति वाले परिवारों से होता है उनके सम्मुख व्यवसाय, अर्थोपार्जन और भविष्य की अनिश्चितता से सम्बन्धित समस्यायें कम होती हैं किन्तु निम्न व मध्यम आर्थिक, सामाजिक स्तर वाली पृष्ठभूमि के किशोरों के सामने यह समस्यायें गंभीर और जटिल होती हैं।

2. काम प्रवृत्ति से सम्बन्धित समस्यायें-किशोरावस्था में काम प्रवृत्ति क्रियाशील हो उठती है। इस तथ्य को सभी मनोवैज्ञानिकों ने माना है। 'स्लाटर' का कथन है कि "काम समस्त जीवन का नहीं तो किशोरावस्था का अवश्य ही मूल तथ्य है। एक विशाल नदी के अति प्रवाह के समान यह जीवन की भूमि के बड़े भागों को सींचता है एवं उपजाऊ बनाता है। "

अतः काम प्रवृत्ति का विकसित होना इस अवस्था की एक विशेषता है फलस्वरूप किशोर काम सम्बन्धी बातों के प्रति जिज्ञासु हो जाता है और इस जानकारी को प्राप्त करने के लिये वह कामुकतापूर्ण साहित्य का अध्ययन करता है, मित्रों तथा समूह से वार्तालाप करता है, जबकि इस आयु में परिवार व समाज द्वारा उसकी काम सम्बन्धी बातों का दमन किया जाता है। वे इस सम्बन्ध में जो भी ज्ञान प्राप्त करते हैं वह अपूर्ण व भ्रमित करने वाला होता है। भारतीय परिवारों में आज भी किशोरों की यौन शिक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। अतः विशाल नदी के समान उफनती हुई कामोत्तेजनाओं का प्रदर्शन वे विभिन्न रूपों में करते हैं, जैसे- कामुकतापूर्ण बातें करना, अश्लील बातों को दीवारों पर लिखना, कामोत्तेजक चित्रों का बनाना, हस्तमैथुन करना तथा समलिंगीय व विषमलिंगीय मैथुन करना, इन्टरनेट के माध्यम से अश्लील साइट का अवलोकन करना। ये सभी चीजें किशोरों के व्यक्तित्व विकास में बाधक होती हैं अतः मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि किशोरावस्था में काम प्रवृत्ति को उचित दिशा में ले जाने के लिये उन्हें उपयुक्त ढंग से यौन शिक्षा दी जाये क्योंकि किशोरों की अनेकों समस्याओं का मूल उनकी काम प्रवृत्ति होती है।

किशोरावस्था के यौनिक परिवर्तन बालक और बालिका दोनों में ही चिन्ता, भय तथा संकोच पैदा कर देते हैं जब बालिकाओं का मासिक धर्म प्रारम्भ होता है और बालकों को स्वप्नदोष के कारण बीयं का स्त्राव हो जाता है तो वे इसे असाधारण घटना मानकर घबरा जाते हैं, संकोच तथा लज्जा के कारण किसी से बात करने में घबराते हैं और तनाव में रहते हैं। अतः यह आवश्यक है कि इस अवस्था के आने से पूर्व ही किशोर बालक तथा बालिकाओं को उनके यौनांगों की रचना तथा उनकी कार्य विधि का ज्ञान किसी ऐसे माध्यम से देना चाहिये जिसे वे मानें तथा स्वीकार करें।

रॉस (Ross) ने भी इस सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करते हुये कहा है कि- "यौन शिक्षा की आवश्यकता को कोई अस्वीकार नहीं करता है। आवश्यकता इस बात की है कि किशोरों को एक ऐसे वयस्क द्वारा गोपनीय शिक्षा दी जाये जिस पर उसे पूर्ण विश्वास हो।"

यौन शिक्षा द्वारा किशोरों में विषमलिंगी के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित करना चाहिये तथा शिक्षा देते समय इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिये कि शिक्षा उत्तेजना प्रदान करने वाली न हो। घर पर माता-पिता और विद्यालय में शिक्षक बालकों को इस प्रकार की शिक्षा दे सकते हैं। 

विद्यालय में अध्यापकों को चाहिये कि वे किशोरों को अधिक से अधिक रचनात्मक कार्यों में लगायें जिससे उनकी काम शक्ति का मार्गान्तीकरण हो सके। 

समायोजन समस्यायें-किशोरों की समायोजन समस्यायें अधिकांशतः वातावरण सम्बन्धी होती है। जिसमें प्राय: दो प्रकार के वातावरण आते हैं

        (i) पारिवारिक वातावरण, (ii) विद्यालय का वातावरण 

यद्यपि जन्म के पश्चात् परिवार द्वारा ही बच्चे का पालन-पोषण होता है किन्तु किशोरावस्था में देखा जाता है कि बालक अपने परिवार के वातावरण में समायोजन करने में असमर्थ रहते हैं। इसके कई कारण हैं; जैसे-किशोरों को स्वतंत्रता की चाह, उचित महत्व तथा उचित स्थिति प्राप्त करने की प्रबल इच्छा, विषमलिंगी प्रेम आदि। यदि माता-पिता या अभिभावकों द्वारा किशोरों को नियंत्रण में रखा जाता है, उनके ऊपर बन्धन लगाये जाते हैं तो वह परिवार के साथ समायोजन नहीं कर पाता है। अत: माता-पिता को चाहिये कि वे किशोरों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें उनके ऊपर अनुशासन को न थोपें तथा उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने का अवसर दें। 

दूसरी स्थिति तब उत्पन्न होती है जब विद्यालयों में किशोरों को उचित वातावरण नहीं मिलता है। शिक्षकों का व्यवहार, शिक्षण प्रकृति, विद्यालय का अनुशासन, पाठ्य सहगामी क्रियायें आदि किशोरों की समायोजन प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं अतः शिक्षकों को चाहिये कि बालकों के समायोजन में उनकी सहायता करें। किशोरों की शिक्षा के लिये विद्यालयों में उनकी रुचि, योग्यता व क्षमता के अनुसार विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था करनी चाहिये जिनके द्वारा भविष्य में ये किसी व्यवसाय का चुनाव कर सकें। 'शैस' के अनुसार-"विषयों का शिक्षण व्यावहारिक ढंग से होना चाहिये तथा दैनिक जीवन की बातों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित किया जाना चाहिये।" पाठ्यक्रम में पाठ्य सहगामी क्रियाओं का समावेश करना चाहिये इनके द्वारा किशोरों की पाशविक मूल प्रवृत्तियों का शोधन होता है, उनका जीवन सक्रिय तथा साहसिक होता है तथा सहयोग व सामाजिकता की भावना का विकास होता है। विद्यालय बालकों को उनकी उपयोगिता का अनुभव कराकर उनको निराशा कम कर सकता है। सृजनात्मकता का विकास करके उनकी अपराध प्रवृत्ति को कम किया जा सकता है।

किशोरों के स्वस्थ व सुखी प्रौढ़ जीवन के लिये यह आवश्यक है कि उनकी समस्त समस्याओं का समाधान संतोषप्रद तथा प्रभावशाली ढंग से किया जाये। इस दिशा में माता-पिता, शिक्षक तथा स्वयं किशोर तीनों के परस्पर सहयोग की आवश्यकता होती है। 

किशोरों की समस्याओं के निराकरण के लिये माता-पिता तथा शिक्षकों को बड़े धैर्य से काम लेना चाहिये। उन्हें किशोरों के स्वभाव, उनकी समस्याओं तथा समस्याओं को उत्पन्न करने वाले कारणों का अध्ययन गंभीरतापूर्वक करना चाहिये जो प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से उसके समायोजन को प्रभावित कर रहे हैं तदनुसार ही उनका निदान करना चाहिये। जैसे यदि कोई किशोर बालिका चित्रकारी में रुचि रखती है और उसी क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना चाहती है और यदि माता-पिता उसे एक चिकित्सक बनाने की सोचते हैं और उसी प्रकार के विषयों के चुनाव और शिक्षा के लिये बाध्य करते हैं तो उसका समायोजन परिवार और पाठशाला दोनों जगह नहीं हो पाता है अत: यह आवश्यक है कि किशोर स्वभाव को भली-भाँति समझे और उन सभी तथ्यों को जाने जो किशोरों के समायोजन को प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त बालक के सामाजिक सम्बन्धों, उनके ऊपर पड़ने वाले सामाजिक दबावों, उनकी प्रेरक वृत्तियों तथा किशोरों द्वारा अपनाई गई समायोजन विधियों का वांछित ज्ञान प्राप्त करें, साथ ही उन परिस्थितियों की भी जानकारी प्राप्त करें जो किशोरों की समस्याओं की उत्पत्ति के लिये उत्तरदायी हैं- इसके अतिरिक्त उनके साथ सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करें। किशोरों को समस्याओं का मूल्यांकन प्रौढ़ स्तर पर न करें, उनके साथ क्रोध व दण्ड का प्रयोग न करें। किशोरों को स्वयं अपनी समस्याओं पर विचार करने तथा उनके निराकरण का उपायों को ढूंढ़ने के लिये प्रेरित करें। किशोरों के साथ उनकी समस्या पर विचार-विमर्श करें अधिक से अधिक प्रश्न पूछकर समस्या के मूल कारण को जानने का प्रयास करें, तभी निर्देश दें।

किशोरों की समस्याओं को जन्म देने वाले कारण 

सामान्यतः निम्नलिखित दशायें किशोरों की समस्याओं को जन्म देती हैं:-

1. शारीरिक व यौनिक परिपक्वता या अपरिपक्वता ।

2. संवेगात्मक अस्थिरता

3. सामाजिक अपरिपक्वता ।

4. विषमलिंगी यौन सम्बन्ध में असफलता।

5. निम्न सामाजिक व आर्थिक दशायें। 16. परिवार की अनुपयुक्त दशायें।

7. लक्ष्य की प्राप्ति में असफलता।

इस प्रकार किशोर विभिन्न कारणों से अनेकानेक समस्याओं से ग्रसित रहता है। हरलॉक (Hurlock) का कथन है कि "किशोरावस्था प्रौढ़ावस्था की तैयारी है, एक ऐसा समय है जबकि लड़कपन का व्यवहार और अभिवृत्तियाँ प्रौढ़ प्रकार की अभिवृत्तियाँ और व्यवहार में बदल जाती है।"

अतः किशोरों के स्वस्थ प्रौढ जीवन की तैयारी के लिये किशोरावस्था में ही उनकी समस्याओं का समाधान आवश्यक है।

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