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किशोर के विकास से सम्बन्धित अभिनव मुद्दे Recent Issues Related to Adolescent Development


अकेलापन (LONELINESS)

अकेलापन मनुष्य की परिस्थितियों का जन्मजात हिस्सा है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी अकेलापन महसूस करता है। मरफी और कुपशिक (1992) के अनुसार, अकेलापन वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति आन्तरिक खालीपन की और सामाजिक पृथकता की तीव्र संवेदना का अनुभव करता है। 
"Loneliness is a state in which a person describes experiencing an overwhelming sense of inner emptiness and social isolation." - Murphy and Kupschick (1992) 

अकेलापन सामाजिक पृथकता का अनुभव तो कराता ही है, साथ ही में व्यक्ति सम्बन्धहीनता, अस्वीकृति तथा विजातीय भी महसूस करता है। किशोरावस्था में व्यक्ति विविध शारीरिक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों के कारण स्वयं की पहचान ढूँढ़ने का प्रयास करने लगता है और यह जानने का प्रयास करता है कि उसके संवेग, विचार और व्यवहार माता-पिता से कैसे भिन्न हैं, अपने परिवार में अलग किन मूल्यों का वह धारण करता है, वह अन्य लोगों को कैसे देखता है और अन्य लोग उसे कैसे देखते हैं। ये सब कुछ जानने, समझने के लिए किशोर नए मित्र बनाता है और लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयास करता है। इन मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों के कारण खुशमिजाज और सन्तुलित व्यवहार वाले बच्चे दु:खी, चिन्तित और कुसमायोजित किशोर में बदल जाते हैं। संघर्ष और अनिश्चितता की ये स्थितियाँ किशोरों के संवेग और रुचियों में परिवर्तन कर देती हैं, वे गैर-जिम्मेदारी वाला और असन्तुलित उत्तेजना से पूर्ण व्यवहार करने लगते हैं। परिणामस्वरूप किशोर उदासी और अकेलापन अनुभव करने लगते हैं।

अकेलेपन के लक्षण (Symptoms of Loneliness)- अकेलापन महसूस करने वाले किशोरों में अक्सर ये लक्षण दिखाई देते हैं

(i) अक्सर उदासी, भय, क्रोध की भावना प्रकट करते हैं।

(ii) उन्हें लगता है कि लोग उन्हें समझ नहीं पाते।

(iii) स्वयं में दोष निकालते रहते हैं।

(iv) अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। 

(v) स्वयं पर तरस खाते रहते हैं।

(vi) दूसरों को हमेशा दोषी मानते रहते हैं।

(vii) हतोत्साहित होकर नए मित्रों तथा नई परिस्थितियों को पसन्द नहीं करते। 

(viii) लोगों से स्वयं को अलग रखते हैं।

(ix) बिना सोचे-समझे किसी भी व्यक्ति या किसी भी कार्य के लिए स्वयं को उत्तरदायी मानते हैं।

(x) अपने मित्रों से असन्तुष्ट रहते हैं।

(xi) वे अपने को समाज का हिस्सा नहीं समझते। 

(xii) अपने चारों ओर के वातावरण से खिन्न रहते हैं।

(xiii) स्वयं को बेकार मानने लगते हैं।

अकेलेपन के कारण (Causes of Loneliness)-बहुत ही ऐसी स्थितियाँ होती हैं जब किशोर अपने को अकेला अनुभव करने लगा है; जैसे:-

(i) अत्यन्त प्रिय और नजदीकी व्यक्ति की मृत्यु ।

(ii) जीवन में आने वाले असामान्य परिवर्तन।

(iii) परिवार या मित्रों से उपेक्षा।

(iv) निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति।

(v) प्रतिकूल विद्यालयी वातावरण।

(vi) निम्न आत्म-सम्मान।

(vii) दूरवर्ती परिवार।

(viii) निम्न सामाजिक सम्बन्ध, आदि।

अकेलेपन का प्रभाव (Effects of Loneliness)- अकेलेपन का किशोरों के व्यक्तित्व और व्यवहार पर गहरा प्रभाव पड़ता है, जिनमें से कुछ निम्नवत् हैं

(i) वर्तमान सामाजिक सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं,

(ii) मित्रों से सामाजिक सम्बन्ध बनाए रखने में असफलता,

(iii) अपने वातावरण से कुसमायोजन,

(iv) अवसाद उत्पन्न होना,

(v) सामाजिक पृथकता,

(vi) सम्प्रेषण स्तर में गिरावट,

(vii) माता-पिता का निम्न शैक्षिक स्तर, आदि।

अकेलेपन के प्रभाव पर अध्ययन करने के उपरान्त पोनजेट्टी (1990) ने पाया कि सबसे अधिक प्रभाव किशोरों के मनोविज्ञान पर पड़ता है, वे मनोवैज्ञानिक रूप से असहज स्थितियों में पड़ जाते हैं। वीस (1973) के अध्ययन से भी ज्ञात होता है कि अकेलपन का सबसे अधिक प्रभाव किशोरों के सामाजिक और संवेगात्मक विकास पर पड़ता है।

साथियों का दबाव/साथी समूह दबाव (PEER PRESSURE)

किशोरों के जीवन में साथियों का दबाव' एक सामान्य बात है। किशोर अपने समूह में, अपने समूह के साथियों के साथ स्वयं को मजबूत और सुरक्षित महसूस करते हैं। 'साथियों के दबाव' का अर्थ (Meaning of Peer Pressure) जब बालक को किसी कार्य को करने के लिए उसके साथी प्रभावित करते हैं, या डराते हैं तो इसे 'साथियों का दबाव' कहते हैं। 'साथियों का दबाव' 'उस सम्बन्धित समूह के प्रत्येक सदस्य पर समूह के प्रभाव को कहते हैं। समूह के प्रत्येक सदस्य का विचार और कार्य करने का तरीका एक जैसा होना 'साथियों के दबाव' का परिणाम होता है। किशोरावस्था में यह दबाव सबसे अधिक होता है।

किशोरावस्था में 'साथियों के दबाव' की कुछ वास्तविकताएँ (Some Facts about Peer Pressure During Adolescence)

1. किशोर अपने माता-पिता या परिवार की अपेक्षा अपने मित्रों के साथ अधिक समय बिताना चाहते हैं। परिवार के आदर्श और मूल्यों को नकारने लगते हैं। अपने जीवन के मूल्य स्वयं गढ़ने का प्रयत्न करते हैं। किशोर बहुत से मित्र बनाते हैं, और समूह बनाकर समूह प्रवृत्ति का प्रदर्शन करते हैं।

2. किशोर विभिन्न तरीकों से साथियों का दबाव अनुभव करते हैं।

(i) सीधा दबाव (Direct Pressure)- किशोर कोई कार्य न करना चाहे या न पसन्द करता हो, परन्तु साथियों की धौंस या धमकाने पर करना पड़े तो इसे सीधा दबाव कहते हैं।

(ii) घुमा-फिरा कर दबाव (Indirect Pressure) -यह दबाव बहुतायत होता है। किशोर उसी तरह से बात करता है, कपड़े पहनता है या कोई काम करता, जिससे उसे लगता है कि वह अपने समूह में स्वीकार्य होगा क्योंकि उसके साथी भी ऐसा ही रहे हैं।

3. साथी समूह दबाव हमेशा नकारात्मक नहीं होता। साथी समूह के दबाव सामाजिक रीति और तौर-तरीकों को भी सीखते हैं और अपनी स्वायत्तता का भी प्रयोग कर सकते हैं। अपनी रुचियों के अनुसार चुनौतीपूर्ण कार्यों को करने के लिए भी प्रेरित हो सकते हैं।

4. साथी समूह दबाव के पीछे कुछ ऐसे तत्व होते हैं जो परिवार में नहीं पाए जाते:- 

(i) एक मजबूत विश्वास (A strong belief structure),

(ii) नियमों की एक स्पष्ट प्रणाली (A clear system of rules) तथा

(iii) वर्जित विषयों पर बातचीत; जैसे-नशा, सैक्स और धार्मिक प्रकरण (Discussion about tobacco subjects, as-drug, sex and religion) 

5. शैक्षिक सफलता, मादक द्रव्यों के सेवन, जेन्डर भूमिका से साथी समूह का दबाव मजबूत सम्बन्ध रखता है।

6. आयु के साथ-साथ साथी समूह का प्रभाव भी बढ़ता है। जैसे-जैसे बालक परिवार से स्वतन्त्रता प्राप्त करता जाता है उसके ऊपर साथी समूह का दबाव बढ़ता जाता है, इसीलिए किशोरावस्था में साथी समूह का दबाव सबसे अधिक होता है।

7. अक्सर कुछ जुम्ले साथी समूह का दबाव बढ़ाते हैं। उदाहरणार्थ, कोई किशोर किसी कार्य को करने में हिचकिचाता है, तो साथी इस प्रकार कहते हैं-'आओ, आओ, भागो मत', 'डरो मत, किसी को पता नहीं चलेगा'। 

8. किशोर अपने समूह से अलग-थलग न पड़ जाने के डर से साथी समूह के दबाव में जल्दी आ जाते हैं।

9. सभी किशोर साथी समूह के दबाव में आते हैं, परन्तु ऐसे किशोर जल्दी दबाव में आ जाते हैं 

(i) जिनके माता-पिता में से कोई एक अभिभावक हो,

(ii) जिनको अपने परिवार से अत्यधिक स्वतन्त्रता मिलती हो,

(iii) जिनके माता-पिता बहुत कठोर हों,

(iv) जिनके माता-पिता उनके मित्रों पर ध्यान न देते हों,

(v) जिनका आत्म-सम्मान निम्न हो,

(vi) जिनके परिवार व मित्रों का व्यवहार असामाजिक हो, 

(vii) जिनके परिवार का वातावरण कलहपूर्ण हो, तथा

(viii) जिनकी आवश्यकताएँ पूरी न हो पाती हों।

10. साथी समूह के दबाव का खतरा सबसे ज्यादा विद्यालय में होता है। किशोर काफी समय विद्यालय में बिताता है, जहाँ वह अपने साथियों से मिलता है। उसके साथी उसके साथ विद्यालय में ही नहीं रहते, वह अपने साथियों के घर भी जाता है, उनकी सामाजिक जिन्दगी में घुलता मिलता है। इसीलिए विद्यालय में साथी समूह के दबाव का खतरा सबसे ज्यादा होता है।

11. साथी समूह दबाव के निश्चित लक्षण या संकेत नहीं होते। परन्तु निम्न परिवर्तन साथी समूह दबाव के लक्षण अवश्य हैं:-

(i) व्यवहार में परिवर्तन (Change in behavior),

(ii) भाषा में परिवर्तन (Change in language),

(iii) कपड़ों के तरीके में परिवर्तन (Change in clothing). 

(iv) प्रवृत्ति में परिवर्तन (Change in attitude),

(v) प्राथमिकाओं में परिवर्तन, जैसे-संगीत, कला आदि (Change in preferences, as music, art etc.)

(vi) मूल्यों, नैतिकता या विश्वासों में परिवर्तन (Change in value, morals, or beliefs)

सकारात्मक साथी-समूह दबाव (POSITIVE PEER PRESSURE)

कभी-कभी साथी समूह किशोरों में सकारात्मक परिवर्तन भी लाते हैं, जैसे- साथियों के प्रेरित करने पर खेल में भाग लेना, पढ़ाई-लिखाई में कड़ी मेहनत करना। सकारात्मक प्रभावों के निम्न उदाहरण हो सकते हैं:-

(i) नकारात्मक या असामाजिक तरीके से कार्य करने से बचना।

(i) समूह खेलों या सामाजिक गतिविधियों में भाग लेना।

(ii) नए कौशल सीखना (समूह के मित्रों के साथ, जैसे-तैराकी सीखना, खाना पकाना सीखना आदि।

(iv) साथ-साथ मिलकर विद्यालय के लिए गए प्रोजेक्ट को करना।

सकारात्मक दबाव से किशोर को अच्छा महसूस होता है, वह स्वस्थ और प्रसन्न रहता है।

नकारात्मक साथ-समूह दबाव (NEGATIVE PREER PRESSURE)

नकारात्मक दबाव किशोरों को बेचैन करता है, वे अस्वस्थता महसूस करते हैं। नकारात्मक दबाव कुछ उदाहरण निम्न हो सकते हैं:-

(i) धूम्रपान, मद्यपान करने का दबाव,

(ii) सेक्स के लिए दबाव,

(ii) गैरकानूनी कार्य, जैसे तेज रफ्तार में गाड़ी चलाना, चोरी करना आदि,

(iv) परीक्षा में नकल, दूसरों के कक्षा कार्य/गृहकार्य की नकल या अपने कक्षाकार्य/गृहकार्य दूसरों को नकल के लिए देना,

(v) विद्यालय से भागकर मित्रों के साथ अन्य कार्य करना; जैसे- फिल्म देखना, 

(vi) ऐसे कपड़े पहनने का दबाव जिनमें वह सहज न हो,

(vii) कुछ लोगों के साथ न रहने, बात न करने का दबाव, आदि।

नकारात्मक साथी-समूह दबाव: अध्यापकों की भूमिका (NEGATIVE PRESSURE ROLE OF A TEACHER)

जो किशोर नकारात्मक साथी-समूह के दबाव नहीं झेल पाते, वे अपराध व असामाजिक कार्यों में लिप्त होने लगते हैं। किशोरों का अपना जीवन बर्बाद होता है, परिवार और समाज की शान्ति भंग होती है। साथ-समूह के दबाव के प्रभाव से विद्यार्थियों को बचाए रखने के लिए अध्यापकों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी रचनात्मक भूमिका निभाएँ।

इस सन्दर्भ में अध्यापकों के लिए कुछ सुझाव निम्नवत् हो सकते हैं:- 

1. अध्यापकों में क्षमता होनी चाहिए कि वे पहचान सकें कि उनका विद्यार्थी साथियों के दबाव में है, तभी वे उनकी मदद कर सकते हैं।

2. विद्यार्थी के माता-पिता से इस सम्बन्ध में बातचीत करनी चाहिए, अन्य अध्यापकों की भी सलाह लेनी चाहिए।

3. कुछ विद्यार्थी अकेले ही साथियों के दबाव का प्रतिरोध कर लेते हैं, परन्तु सभी विद्यार्थी ऐसा नहीं कर पाते। अध्यापकों को अपने विद्यार्थियों से संवाद करते रहना चाहिए, विद्यार्थियों का विश्वास जीतना चाहिए कि वे अपनी खुलकर बताएँ।

4. साथियों से सम्बन्धित मुद्दों पर बात करते समय अध्यापक को खुले दिमाग से काम लेना चाहिए, किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होना चाहिए।

5. निर्णय लेने में विद्यार्थियों की मदद करनी चाहिए। विद्यार्थियों को यह अहसास करना चाहिए कि उनके निर्णय के क्या सम्भावित परिणाम हो सकते हैं।

6. छोटी-छोटी बातों में हस्तक्षेप न करें, जैसे-हेयर स्टाइल या फैशन। ये सब चीजें थोड़े दिनों के लिए होती हैं।

7. विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करें कि वे सोच-समझ कर मित्र बनाएँ, अगर वे अच्छे मित्र बनाएँगे तो बुरी चीजों से बचे रहेंगे, जैसे-सिगरेट पीना, मद्यपान करना आदि।

8. किशोरों को प्रशिक्षित करना चाहिए कि वे साथी-समूह के दबाव का प्रतिरोध कैसे करें। 

9. विद्यार्थियों को समझाएँ कि हर समय साथियों के अनुसार ही नहीं जीना चाहिए, उन्हीं के अनुसार ही कार्य नहीं करना चाहिए, अपनी वैयक्तिक पहचान भी बनानी चाहिए। 

10. विद्यार्थियों में आत्म-सम्मान का भाव बढ़ाएँ ताकि वे सकारात्मक दबावों को स्वीकार कर सकें और नकारात्मक दबावों को नकार सकें।

बदलती पारिवारिक संरचना (CHANGING FAMILY STRUCTURE)

किशोरों के जीवन में परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। परिवार के सदस्यों की संख्या, सदस्यों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, सदस्यों के आपसी सम्बन्ध, अर्थोपार्जन के तरीके, सदस्यों की शैक्षिक स्थिति, निवास की व्यवस्थायें, पारिवारिक निर्णयों के तरीके आदि सभी का किशोरों के विकास पर गहन प्रभाव पड़ता है।

एकल अभिभावकत्व वाले परिवार के किशोरों का विकास उन परिवारों के किशोरों से भिन्न होता है। जहाँ सन्तानों का पालन-पोषण व समाजीकरण करने के साथ-साथ उन्हें हर प्रकार का संरक्षण व सुविधाएँ प्रदान करने वाले माता-पिता दोनों अभिभावक होते हैं। आज संयुक्त परिवारों में रहने वाले बहुत से लोग एकाकी व नाभिक परिवार स्थापित करने की दृष्टि से सोचते हैं। नाभिक परिवार में माता-पिता और उनके आश्रित बच्चे रहते हैं। ऐसे परिवारों का आकार बहुत ही सीमित होता है। सदस्यों में उच्च भावात्मक सम्बन्ध होता है। संयुक्त परिवार में कई पीढ़ियाँ एक साथ निवास करती हैं। परन्तु अब जीवन स्तर को ऊँचा उठाने की इच्छा में संयुक्त परिवार विघटित होकर छोटे-छोटे परिवार बनने लगे हैं।

किशोरों का व्यवहार बहुत ही विषम होता है। उनके व्यवहार का कोई एक कारण नहीं होता, परन्तु पारिवारिक संरचना के बदलते स्वरूप का प्रभाव उनके व्यवहार पर अवश्य पड़ता है। जिन परिवारों में सदस्यों की संख्या अधिक होती है, निवास स्थान की कमी के कारण शोर-गुल मचा रहता है, पढ़ने-लिखने का वातावरण नहीं रहता, उनमें किशोर सामान्य बुद्धि के होते हुए भी पिछड़ जाते हैं। क्रोध, चिन्ता, भय, व्याकुलता और उदासीनता आदि संवेगों के कारण अपना ध्यान अध्ययन में नहीं लगा पाते।

प्राय: ऐसे घरों में जहाँ विमाता (Step mother) होती हैं या माता-पिता में से किसी एक का देहान्त हो गया हो, समस्यात्मक किशोर पाए जाते हैं। माता-पिता के पारस्परिक सम्बन्धों की प्रतिकूलता, सम्बन्ध विच्छेद, रूढ़िग्रस्त विचारों आदि का कुप्रभाव किशोरों के सामाजिक व संवेगात्मक विकास पर पड़ता है। उनके सामाजिक समायोजन की क्षमता पर असर पड़ता है। कभी-कभी ऐसे किशोर न स्वयं किसी से मित्रता करना चाहते हैं और न ही अन्य लोग इन्हें मित्र बनाना चाहते हैं।

माता का नौकरी करने के कारण अधिकांश समय बाहर रहना भी किशोरों के विकास को प्रभावित करता है। किशोर अक्सर ऐसे मित्र मण्डली या मुहल्ले के दल में शामिल हो जाते हैं, जिनकी संगति का उनके ऊपर बुरा असर पड़ सकता है।

विभिन्न प्रकार की पारिवारिक संरचना का किशोर पर भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ता है। औद्योगीकरण और वैश्वीकरण के इस दौर में परिवार की संरचना में तेजी से परिवर्तन हो रहा है, परिवार के आकार में परिवर्तन हो रहा है, नई पीढ़ी व्यक्तिगत मामलों में स्वयं निर्णय लेना चाहती है, स्त्रियों के पद एवं सम्मान में वृद्धि हो रही है. विवाह के रूप में परिवर्तन हो रहा है, परिवारों में गतिशीलता और अस्थायित्व में वृद्धि हो रही है, पारिवारिक नियन्त्रण का ह्यस हो रहा है तथा धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक कार्यों में परिवर्तन हो रहा है। इन सबके प्रभावों से किशोर अछूते नहीं रह पाते।

सूचनाओं का अत्यधिक भार (INFORMATION OVERLOAD)

हालांकि 'सूचनाओं के अत्यधिक भार' को कोई निश्चित परिभाषा नहीं है, ज्यादातर लोग इसका अनुभव करते हैं और कुछ लोग इसे पहचान नहीं पाते। जिन लोगों के पास न्यूनतम सूचनाएँ होती हैं या सूचनाएँ नहीं होतीं, वे अच्छे और लाभदायक निर्णय नहीं ले पाते। जैसे-जैसे सूचनाओं की मात्रा बढ़ती है और व्यक्ति सूचनाओं को परिरक्षित (process) करता है उसके निर्णय में गुणवत्ता आती है। जब वह ऐसे बिन्दु तक पहुँच जाता है, जहाँ वह अधिक से अधिक सूचनाएँ तो प्राप्त कर लेता है, परन्तु उन्हें परिरक्षित नहीं कर पाता, 'सूचनाओं का अत्यधिक भार' उत्पन्न हो जाता है और निर्णय लेने की योग्यता घट जाती है। परिरक्षित करने की क्षमता से अधिक सूचनाएँ व्यक्ति इकट्ठा कर लेता है तो भ्रान्ति (confusion) पैदा होती है, जिसका नकारात्मक प्रभाव व्यक्ति की योग्यता पर पड़ता है। वह समझ नहीं पाता कि किन सूचनाओं को प्रमुखता दे और पहले की सूचनाओं को याद रखना भी कठिन हो जाता है। सूचनाओं के अत्यधिक भार को पाश्र्व चित्र से समझा जा सकता है-सूचनाओं के अत्यधिक भार को अन्य तरह से परिभाषित करने के लिए सूचनाओं की मात्रा और उन्हें परिरक्षित करने के लिए दिए गए समय को आधार बनाया जा सकता है।

आज का युग सूचनाओं का है। किशोर विभिन्न तकनीकी माध्यमों से विभिन्न क्षेत्रों से सूचनाएँ एकत्र करने में घण्टों लगे रहते हैं। कुछ अपनी अकादमिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए, कुछ अपने अभिभावकों और साथियों के दबाव में कुछ परीक्षा में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त करने के लिए कुछ मनोरंजन के लिए सूचनाओं के भंडारण में लगे रहते हैं। वे अनियोजित प्रकरणों से प्रतिक्रिया करने में अपना अधिक से अधिक समय लगाते रहते हैं। ज्ञात तो महज एक औपचारिकता बन जाती है, किशोर न्यूनतम विश्लेषण से शीघ्रतम निर्णय लेने का प्रयास करते हैं। परीक्षण स्तर से अधिक सूचनाएँ, अपर्याप्त सूचनाओं की स्थिति पैदा कर देते हैं। सूचनाओं का अत्यधिक भार किशोरों की अधिगम क्षमता और समस्या समाधान की योग्यता को प्रभावित करता है।

सूचनाओं के अत्यधिक भार का प्रभाव (Impact of information overload) - सूचनाओं के अत्यधिक भार का प्रभाव शारीरिक और मानसिक दोनों स्वास्थ्य पर पड़ता है।

सूचनाओं का अत्यधिक भार दबाव/तनाव के स्तर को बढ़ा देता है, यह दबाव/तनाव जब अधिक समय तक रहता है तो स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे व्यक्तिगत और सामाजिक सम्बन्धों पर कुप्रभाव पड़ता है।

मानसिक स्वास्थ्य पर सूचनाओं के अत्यधिक भार का अत्यन्त नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। स्मरण शक्ति पर अधिक दबाव के कारण अधिगम क्षमता का ह्रास होता है। क्रोध, उलझन की स्थितियाँ लगातार पैदा होती रहती हैं। अधिक उद्दीपन के कारण मस्तिष्क कार्य करना बन्द कर देता है, जिससे सफलता के मार्ग बन्द हो जाते हैं।

सूचनाओं के अत्यधिक भार के कारण (Causes of information overload)-सूचनाओं के अत्यधिक भार के विविध कारण हो सकते हैं। किशोरों के सन्दर्भ में निम्न विविध कारण हो सकते हैं:-

1. सूचना परिरक्षण क्षमता (information processing capacity) में कमी,

II. प्रेरणा प्रवृत्ति और सन्तुष्टि, 

III. वैयक्तिक गुण (अनुभव, कौशल, विचारधारा, आयु),

IV. वैयक्तिक स्थितियाँ (समय, वातावरण, नींद की मात्रा),

V. सूचनाओं को प्रेषित करने का निम्न स्तर,

VI. अत्यधिक सूचना प्राप्त करने की चाह,

VII कई शिक्षण तथा कोचिंग संस्थाओं से जुड़ना, 

VIII. लगातार एक ही जैसे कार्य में लगे रहने से,

IX. बिना किसी के मार्गदर्शन के कार्य करने की प्रवृत्ति, 

X. ज्ञान/सूचनाओं के माध्यम से प्रबल होने की आकांक्षा,

XI. अपनी वैयक्तिक समस्याओं से भागने के लिए सूचनाओं में उलझे रहना,

XII. तकनीकी आकर्षण (attraction to technology), 

XIII. वांछित समय से अधिक सूचना सम्प्रेषण तकनीकी में लगे रहना, आदि। एपलर (2002) ने सूचना के अत्यधिक भार के निम्न कारण चिह्नित किए हैं:- 

(i) अभिनव सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी,

(ii) पुश सिस्टम (push systems),

(iii) ई-मेल,

(iv) इंट्रानेट, एक्ट्रानेट, इंटरनेट (intranet, extranet, internet),

(v) टेलीविजन चैनेलों की बढ़ती तादात, आदि।

यौन दुराचार (SEXUALABUSE)

किशोरावस्था के इस संक्रमण काल में किशोरों को बहुत से परिवर्तनों और चुनौतियों से गुजरना पड़ता है, जिसमें विविध प्रकार के शारीरिक, संज्ञानात्मक, संवेगात्मक, व्यवहारगत और शारीरिक परिवर्तन सम्मिलित होते हैं। दुर्भाग्यवश बहुत से किशोरों को यौन दुराचार की पीड़ा भी सहनी पड़ती है।

यौन दुराचार की कोई विश्व-मान्य परिभाषा अभी तक सामने नहीं आ सकी है। परन्तु सामान्य रूप से उस स्थिति को यौन दुराचार की स्थिति के रूप में समझा जाता है जहाँ कोई प्रौढ़ व्यक्ति अपनी व्यक्ि अनुभव और संसाधनों के बल पर किसी बालक को जबरदस्ती यौन क्रियाओं में उलझा लेता है। और दुराचार का क्षेत्र बड़ा व्यापक है, जिसमें सम्पर्क और सम्पर्क रहित, दोनों प्रकार के व्यवहार सम्मिलि होते हैं। सम्पर्क व्यवहार के उदाहरण हो सकते हैं-सेक्स भावना के साथ चुम्बन, शरीर के अंतरंग भाग को छूना, बालक की जननेद्रियों को सहलाना, बालक के शरीर के गोपनीय भागों में उँगली या किसी वस्तु का प्रवेश कराना या बालक से समागम करना आदि। सम्पर्क रहित व्यवहार के अन्तर्गत बालक के शरीर को झाँकना, बालक के अन्दरूनी अंगों की तस्वीर खींचना, अपराधी का बालक के सामने अपने अन्दरूनी शारीरिक अंगों का प्रदर्शन, यौन उत्तेजना पैदा करने वाली सामग्री को देखने के लिए बालक को मजबूर करना, बालक पर सेक्स सम्बन्धी टिप्पणी करना आदि आते हैं।

बाल यौन दुराचार में कुछ विशिष्ट तथ्य इस प्रकार पाए गए हैं:- 

I. बालक से यौन दुराचार करने वाले हमेशा अजनबी ही नहीं होते, बालक उन्हें जानता है और उन पर भरोसा करता है।

II. महिलाओं की अपेक्षा पुरुष अपराधी/दुराचारी अधिक होते हैं।

III. लड़कियाँ अधिकांशत: अपने ही परिवार के सदस्यों द्वारा यौन दुराचार की शिकार हो जाती हैं, जैसे-अभिभावक, सौतेला अभिभावक, बाबा, नाना, चाचा, मामा, चचेरे भाई या सगे भाई।

IV. लड़के अधिकांशतः परिवार के बाहर के लोगों द्वारा पीड़ित किए जाते हैं; जैसे-कोच अध्यापक, पड़ोसी आदि।

V. इंटरनेट एक नया माध्यम बन गया है जिसके द्वारा अपराधी उन बच्चों तक पहुँच जाते हैं जिन्हें आसानी से गिरफ्त में किया जा सकता है।

VI. वे किशोर आसानी से शिकार बनाए जाते हैं जिनके परिवार में विविध प्रकार की समस्या होती हैं, माता-पिता का नियन्त्रण स्तर निम्न होता है, आत्मविश्वास की कमी होती है। 

VII. कुछ मामलों में अपराधी भय दिखाकर, धमकी देकर, भय दिखाकर या बलपूर्वक ये घृणित कृत्य करता है। इस श्रेणी में सामान्यतः किशोर ही अपराधी पाए जाते हैं। 


यौन दुराचार के लक्षण (Symptoms of sexual abuse)-किसी बालक या किशोर के साथ यौन दुराचार हुआ है या हो रहा है, इसका कोई खास या विशेष लक्षण नहीं होता। अलग-अलग बालका में अलग-अलग तरह के लक्षण होते हैं। बहुत से लक्षण शारीरिक होते हैं और बहुत से व्यवहारगत् ।

शारीरिक लक्षण (Physical symptoms) -

1. नींद में बाधा (Sleep disturbances),

II. डरावने सपने (Night mares), III. चलने और बैठने में परेशानी,

IV जननेन्द्रियों में दर्द, जलन, खराश या रक्तस्राव, V. मूत्र नलिका से सम्बन्धित संक्रमण,

VI. गुम चोट (Unexplained bruis),

VII. गर्भ धारण (Pregnency) |


व्यवहारगत लक्षण (Behavioural symptoms)

1. यौन व्यवहार का विस्तृत ज्ञान,

II. अतीत के व्यवहार में वापस चले जाना; जैसे-बिस्तर गीला करना, बोल न पाना आदि, 

III. शारीरिक शिक्षा या व्यायाम की क्रियाओं से दूर भागना,

IV. अत्यधिक शम्र,

V. सबसे अलग रहना, 

VI. स्वयं को नुकसान पहुँचाने वाला व्यवहार करना,

VII. अपनी प्रतिभा का दुरुपयोग करना,

VIII. घर से भागना,

IX. आत्महत्या का प्रयास करना,

X. किसी की नजदीकी से भय

कुछ विशेष लक्षण (Some typical symptoms) -

1. गुप्तांगों के लिए नए शब्दों का प्रयोग, 

II कपड़े बदलने का विरोध करना,

III. अन्य बालकों से यौनगत व्यवहार करने को कहना, 

IV. खिलौने से यौन व्यवहार करना, आदि।

अध्यापकों का कर्त्तव्य (DUTY OF A TEACHERS)

यदि किसी अध्यापक को आभास होता है कि किसी विद्यार्थी के साथ यौन दुराचार हो रहा है, तो अध्यापकों को अपने सम्प्रेषण कौशल का कुशल प्रयोग करके समस्या को समझ कर विद्यार्थी की सहायता करनी चाहिए। कोई भी विद्यार्थी अपने साथ हो रहे दुराचार को बताने में भय, अपराध, शर्म, क्रोध और बेबसी अनुभव करता है। अतः अध्यापक का कर्त्तव्य है कि:-

I. बालक की बात सुनकर उससे घृणा या उस पर अविश्वास न करे, बालक को विश्वास दिलाए कि उसकी कोई गलती नहीं है।

II. बालक को यह बोध कराए कि दुराचार को रोकने के लिए इसकी रिपोर्ट करना आवश्यक है। 

III. विद्यार्थी को विद्यालय में सुरक्षित और स्वस्थ वातावरण देने का प्रयास करे।

IV. विद्यार्थी का बात सुनने के बाद उसे आवश्यक सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिए विद्यालय के मानसिक स्वास्थ्य विभाग से सम्पर्क करे, विद्यालय में बालक को परामर्श सेवाएँ उपलब्ध कराएँ। 

V. विद्यार्थी के माता-पिता से सम्पर्क करना चाहिए और विद्यार्थी को सहायता पहुँचाने का प्रयास करना चाहिए।

नशा (SUSBSTANCE USE)

किशोरावस्था में साथी-समूह के दबाव के कारण किशोरों में नशे की लत बढ़ती जा रही है, • जिसमें निकोटिन, ड्रग, एल्कोहल सभी शामिल हैं। किशोरावस्था में नए अनुभव करने की ललक भी किशोरों को नशे की ओर बढ़ाती हैं। किशोरों के नशा करने के पीछे विविध कारण हो सकते हैं-मित्रों के साथ समय बिताने का तरीका है, उन्हें लगता है कि इससे वे मशहूर हो जाएँगे और समूह उनको स्वीकार करेगा, इससे उनकी सामाजिक और अन्य क्रियाकलाप बढ़ते हैं। वे ये भी सोचते हैं यदि वे साथियों के साथ नशा करने से मना कर देगा तो उसके साथी उसे छोड़ देंगे और वह अकेला रह जाएगा।

पहले तो वे साथियों के दबाव में आकर नशा आरम्भ करते हैं, परन्तु आदत पड़ जाने पर उन्हें लगता है कि नशा करने के बाद उन्हें अच्छा लगता है क्योंकि इससे वे अपनी परेशानियों को भूल जाते हैं। इससे पता चलता है कि आज का किशोर बेहद तनाव में रहता है और अपने तनाव को कम करने के लिए, दुखद अनुभवों को भूलने के लिए, नकारात्मक संवेगों से बचने के लिए, दु:ख और चिन्ता मिटाने के लिए, दैनिक जीवन की चुनौतियों से बचने के लिए नशे का सहारा लेता है। अतः केवल साथियों का दबाव ही नशे का कारण नहीं होता, परन्तु शुरुआत का कारण अधिकतर साथियों का दबाव ही होता है।

नशा सेवन के परिणाम (CONSEQUENCES OF SUBSTANCE USE)

नशे का परिणाम केवल किशोरों तक ही सीमित नहीं होता, उनका परिवार समुदाय यहाँ तक कि पूरा समाज इससे प्रभावित होता है। किशोरों के नशे की आदत के परिणाम निम्नवत् हो सकते हैं:- 

1. शैक्षिक उपलब्धि (Academic achievement)- नशा करने वाले किशोर परीक्षा में अच्छा नहीं कर पाते, विद्यालय तथा अन्य क्रियाकलापों से गायब रहते हैं, पढ़ने में उसका ध्यान नहीं लगता। किशोर संज्ञानात्मक और व्यावहारिक समस्याओं में घिर जाते हैं। 

2. शारीरिक स्वास्थ्य (Physical health)- किशोर अक्सर नशे में गाड़ी चलाते हुए दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं। नशा शारीरिक अक्षमता और विविध बीमारियों का कारण बनता है, यहाँ तक भी आत्महत्या या मृत्यु की स्थितियाँ भी आ जाती हैं।

3. मानसिक स्वास्थ्य (Mental health)- तनाव, विकास की गति का धीमा पड़ जाना, उदासीनता, मनोवैज्ञानिक विकार आदि नशे के परिणाम हैं। किशोरों में तनाव पैदा होता है, उनका व्यक्तित्व विकास गड़बड़ा जाता है। उनकी स्मृति, अधिगम, मनोगतिकी (psychomotor) कौशल पर कुप्रभाव होता है। किशोरों का संवेगात्मक विकास भी प्रभावित होता है।

4. मित्र / साथी (Peers) - नशा करने वाले किशोर अक्सर अपने मित्रों से दूर हो जाते हैं, अकेले और अलग-थलग पड़ जाते हैं। वे सामुदायिक और विद्यालयी क्रियाकलापों में भी भाग नहीं ले पाते, क्योंकि साथी किसी समूह काय में उन्हें अपने साथ लेना ही नहीं चाहते। 

5. परिवार (Family)- किशोरों का परिवार भी उनके नशे के परिणामों को भुगतता है। परिवार में कलह होती है, समुदाय ऐसे परिवारों का नकारने लगता है, परिवार के आर्थिक संसाधनों पर असर पड़ता है।

6. सामाजिक और आर्थिक परिणाम (Social and economic consequences) - किशोरों नशे का प्रभाव सामाजिक और आर्थिक स्थितियों पर भी पड़ता है। पूँजी का नुकसान होता है, किशोर अपराध करने लगते हैं, चिकित्सा में खर्च बढ़ जाता है, समाज ऐसे किशोरों को पृथक् करने का प्रयास करता है।

7. अपराध (Delinquency)-नशा करने वाले किशोर अक्सर अपराध के रास्ते पर बढ़ जाते हैं या बढ़ा दिए जाते हैं। उनकी इच्छाओं को दमन करने की योग्यता समाप्त हो जाती है। वे नशा खरीदने के लिए अपने ही घर में या अन्य स्थानों पर चोरियाँ करने लगते हैं। ऐसे किशोर दूसरों के हाथ का । खिलौना बन जाते हैं और अपराध-जगत में आसानी से ढकुल दिए जाते हैं।

नशे का प्रयोग करने वाले किशोरों की पहचान (WARNING SIGNS TO SUSPECT AN ADOLESCENT OF DRUG USE)

कोई अध्यापक या अभिभावक नहीं चाहता कि बच्चे के नशे की आदत पड़े, लेकिन सचेत रहना आवश्यक है। निम्न लक्षण नशा प्रयोग करने के हो सकते हैं:-

I. शैक्षिक परिणामों में गिरावट,

II कक्षा से गायब होना,

III. पाठ्य सहगामी क्रियाओं से नदारत रहना,

IV. माता-पिता एवं अध्यापकों की अवज्ञा करना,

V. नियमों को तोड़ना,

VI. हर समय नींद आना, 

VII. माता-पिता और भाई-बहिनों के प्रति व्यवहार में परिवर्तन,

VIII कमरे में अकेले रहने की चाह,

IX. झूठ बोलना,

X. दूसरों के व्यवहार को गलत ठहराना, XI. घर की वस्तुओं या अपनी महँगी वस्तुओं को बेचना,

XII. चोरी करना,

XIII. गोपनीय टेलीफोन वार्ता,

XIV. शारीरिक और शाब्दिक हिंसा,

XV. तरह-तरह के बहाने बनाना,

XVI. चुपचाप रहना,

XVII. जल्दी-जल्दी मूड बदलना, XVIII. जल्दी परेशान हो जाना,

XIX. आँखों का लाल रहना आदि।

अध्यापक की भूमिका (ROLE OF A TEACHER)

अध्यापक का कर्त्तव्य होता है कि वह विद्यार्थियों को ऐसे कृत्यों से बचाने का प्रयास करे, जिनसे विद्यार्थियों का जीवन बर्बाद हो सकता है। अध्यापक अपने विद्यार्थियों की मदद निम्नवत् कर सकता है

1. यदि अध्यापक को सन्देह होता है कि विद्यार्थी नशा कर रहा है, ते तुरन्त उसके माता-पिता से सम्पर्क करे। माता-पिता को सलाह दे कि 'ड्रग परामर्शदाता' की सहायता लें।

2. अध्यापकों के लिए यह आवश्यक है कि नशे के कारणों और प्रभावों से अवगत हों, उन्हें यह कौशल आना चाहिए कि नशा करने वाले विद्यार्थियों से कैसे व्यवहार किया जाए कि वे इस बुराई से दूर रहें।

3. अध्यापकों को समय-समय पर अपनी कक्षा में इस बुराई के बारे में बातचीत करनी चाहिए, ताकि विद्यार्थी पहले से सचेत रहें, नशे की बुराइयों और परिणामों को समझ सकें और इससे दूर रहें।

4. अध्यापकों को बड़ी सतर्कता से इन पर निगाह रखनी चाहिए:-

        1. विद्यार्थी पर,

        II अपनी कक्षा पर,

        III. विद्यार्थी के सामाजिक समूह/ मित्रों पर,

        IV. इरादतन बने समूह पर,

        V. कक्षा के अन्य विद्यार्थियों से प्राप्त पृष्ठ पोषण (feed back) पर 

5. किशोरों को आत्म-नियन्त्रण कौशल का प्रशिक्षण देना चाहिए जिससे कि वे स्वयं पर नियन्त्रण कर नशे से दूर रह सकें। 

6. विद्यार्थी और अध्यापक के मध्य सकारात्मक सम्बन्ध बचाव का एक तरीका हो सकता है।

7. ऐसे विद्यार्थियों को पाठ्य सहगामी क्रियाओं में लगाना लाभकर होता है।

8. किशोरों को उनके भविष्य की एक सफल तस्वीर दिखाना और उसके लिए योजना बनाने में उनको सहायता करनी चाहिए, जिसे वे निराशा और हताशा में नशे की ओर न बढ़े। 

9. अध्यापक को चाहिए कि किशोर और उसके साथियों में नशे के प्रति नकारात्मक विचारों को बढ़ाए।

10. अध्यापक किशोरों की कक्षा में उपस्थिति पर विशेष ध्यान दें। अधिक अनुपस्थित होने वाले किशोरों के माता-पिता से सम्पर्क करें।

11. अध्यापक द्वारा विद्यार्थियों को नेतृत्व और निर्णय लेने के अवसर प्राप्त होने चाहिए।

12. नशा मुक्ति / नशे से बचाव से सम्बन्धित विविध कार्यक्रम आयोजित करना चाहिए: जैसे- विद्वतजनों के भाषण, नाटक, कविता, कहानी, निबन्ध आदि प्रतियोगिताएँ ।

किशोरों पर मीडिया का प्रभाव (IMPACT OF MEDIA ON ADOLESCENTS) 

आज किशोरों के लिए इंटरनेट, मोबाइल आदि का प्रयोग एक साधारण और आम बात बन चुकी है। विगत पाँच वर्षों में किशोरों द्वारा फेसबुक और माई साइट्स जैसे सोशल मीडिया साइट का प्रयोग तेजी से बढ़ा है किशोर जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा दिन में कई-कई बार सोशल मीडिया साइट को देखता है, उनके अपने सेल फोन हैं। अतः किशोरों के सामाजिक और संवेगात्मक विकास पर इंटरनेट और सेल फोन (मोबाइल) का गहन प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। ये प्रभाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह का प्रभाव किशोरों पर पड़ता है।

किशोरों पर सोशल मीडिया के सकारात्मक प्रभाव (POSITIVE IMPACT OF SOCIAL MEDIA ON ADOLESCENTS)

समाजीकरण और सम्प्रेषण (Socialization and communication)-बहुत से सामाजिक क्रिया-कलाप या आवश्यकताएँ ऐसी होती हैं जिसे किशोर सोशल मीडिया के द्वारा पूरा कर लेते हैं; जैसे-मित्रों और परिवार के सम्पर्क में रहना, नए मित्र बनाना, चित्रों और विचारों का आदान-प्रदान करना आदि। स्वयं को अपने समुदाय को और विश्व को समझने में सोशल मीडिया किशोरों की सहायता करते हैं। निम्न क्रिया-कलापों में सोशल मीडिया विशेष रूप से सहायक सिद्ध हो सकता है

1. सामुदायिक कार्यों में प्रतिभागिता के अवसर प्राप्त करने में,

II सामाजिक कार्यों के लिए स्वयं सेवा प्रदान करने के अवसर प्राप्त करने में,

III. राजनैतिक और लोकोपकार कार्यों में संलग्न होने के लिए, 

IV. वैयक्तिक और सामूहिक सृजनात्मकता के उन्नयन में, किशोर कलात्मक और संगीत सम्बन्धी प्रयासों और विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं, 

V. ब्लॉग, वीडिया आदि के माध्यम से विचारों में वृद्धि और विकास,

VI. ऑन-लाइन सम्बन्धों का विस्तार,

VII. वैश्विक मुद्दों को समझने में,

VIII. अन्य व दूरवर्ती स्थानों की संस्कृति के प्रति सम्मान, सहिष्णुता में वृद्धि करने में,

IX. वैयक्तिक पहचान और विशिष्ट सामाजिक कौशलों के विकास में।

अधिगम के अवसरों में वृद्धि (Enhancement in learning opportunities)-किशोर अक्सर गृहकार्य या समूह परियोजना के सन्दर्भ में इंटरनेट का प्रयोग करते हैं, एक-दूसरे से सोशल मीडिया पर सम्पर्क करते रहते हैं। प्रदत्त कार्य के सन्दर्भ में अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। बहुत से शिक्षण संस्थान ब्लॉग (blogs) को शिक्षण उपकरण के रूप में प्रयुक्त करते हैं।

स्वास्थ्य सूचनाओं की प्राप्ति (Accessing health information)-किशोरों के स्वास्थ्य से सम्बन्धित बहुत सी ऑन लाइन सूचनाएँ आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं, जैसे- यौन संक्रमण, तनाव नियन्त्रण, हताशा के लक्षण आदि। लम्बी बीमारी से पीड़ित किशोर अपने जैसे पीड़ित अन्य लोगों से सम्पर्क करने जीवन से हताशा से बच सकते हैं। इन सूचनाओं को किशोर ने सही तरह से समझा है, इस पर अभिभावकों का नियन्त्रण आवश्यक है।

किशोरों पर सोशल मीडिया के नकारात्मक प्रभाव (NEGATIVE IMPACT OF SOCIAL MEDIA ON ADOLESCENTS)

अक्सर सोशल मीडिया का प्रयोग कर किशोर अवांछित कार्य या व्यवहार करने लगते हैं; जैसे-मित्रों का अवांछित समूह बनाना, अनुचित विषयों, लेखों में रुचि लेना, किसी की निजता का उल्लंघन करना, विज्ञापनों का कुप्रभाव आदि। कुछ नकारात्मक प्रभावों का वार्धन निम्नवत् किया जा सकता है

साइबर-दबंगई व ऑन-लाइन सताना (Cuber bullying and online harassment )- आजकल इस तरह की घटनाएँ देखने-सुनने में मिल ही जाती हैं कि किशोर साइबर दबंगई कर रहे हैं या  ऑन-लाइन दूसरों को प्रताड़ित कर रहे हैं। इससे हताशा, चिन्ता, अकेलेपन तथा आत्महत्या जैसी घटनाएँ सामने आ रही हैं।

सेक्स से सम्बन्धित बर्ताव (Sexting)- सेल फोन या इंटरनेट का प्रयोग करके बहुत से किशोर सेक्स सम्बन्धी सन्देश या तस्वीरें दूसरों को भेज देते हैं या समाज में फैला देते हैं। कभी-कभी ऐसे किशोर अपराध के घेरे में आ जाते हैं। साथ ही साथ वै विद्यालय से भी निकाल दिए जाते हैं। फेसबुक उदासी (Facebook depression) - विभिन्न शोध अध्ययनों से यह तथ्य सामने आया है कि किशोर जब बहुत अधिक समय सोशल साइट पर बिताते हैं तो उदासी के लक्षण दिखने लगते हैं। किशोर अपने साथियों के सम्पर्क में हर समय रहना चाहते हैं। ऑन लाइन अधिक समय तक रहने के कारण वे सामाजिक अलगाव की समस्या में फँस जाते हैं। और बहुत से किशोर इंटरनेट साइट और ब्लॉग से सहायता लेने का प्रयास करते हैं, ऐसे में वे स्वयं को नुकसान पहुँचाने वाले व्यवहार को अपना लेते हैं। विज्ञापनों का प्रभाव (Influence of advertisement)- बहुत से साइट्स पर आयु, लिंग, शिक्षा, विवाह आदि से सम्बन्धित बहुत तरह के विज्ञापन दिखाए जाते हैं, ये सब विज्ञापन किशोरों में खरीदने की प्रवृत्ति ही नहीं पैदा करते, उनके विचारों को भी प्रभावित करते हैं।

किशोरावस्था : उदासी और आत्महत्या (ADOLESCENT: DEPRESSION AND SUICIDE)

उदास रहने वाले किशोरों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। अक्सर प्रौढ़ लोग किशोरों में उदासी को अवस्था समझ नहीं पाते, उन्हें लगता है कि किशोर मूडी (moody) हो गया है। किशोर अक्सर अपनी भावनाओं को न तो अच्छी तरह समझ पाते हैं और न ही व्यक्त कर पाते हैं। वे उदासी स्वयं या उनके अभिभावक उदासी के लक्षण भी नहीं समझ पाते, इसलिए वे किसी से सहायता प्राप्त करने का प्रयास भी नहीं करते।

उदासी के लक्षण (SYMPTOMS OF DEPRESSION)

निम्न लक्षण यदि दो सप्ताह से अधिक समय तक बने रहते हैं तो इन्हें उदासी के लक्षण समझा जा सकता है:-

(i) विद्यालय के कार्यों में असफलता,

(ii) मित्रों से विमुख होना,

(iii) निष्क्रियता,

(iv) उत्साह, शक्ति एवं प्रेरणा की कमी,

(v) क्रोध एवं हिंसा,

(vi) आलोचना पर अति-प्रतिक्रिया,

(vii) आत्म-सम्मान में कमी,

(viii) निर्णय क्षमता में ह्रास, 

(ix) एकाग्रता में कमी,

(x) विस्मरण में वृद्धि,

(xi) बेचैनी और उत्तेजना,

(xii) भोजन और निद्रा की आदतों में परिवर्तन,

(xii) दुर्व्यवहार,

(xiv) आत्महत्या का विचार या सम्बन्धित क्रियायें।

उदासी की अवस्था से बचने के लिए कुछ किशोर नशे का सेवन करने लगते हैं। कभी-कभी वे अपनी उदासी की अभिव्यक्ति क्रोध, उत्तेजना और खतरनाक व्यवहार से करते हैं, जिससे उनके सामने नई समस्यायें पैदा हो जाती हैं-उदासी का गम्भीर स्तर, विद्यालय के लोगों, परिवार के सदस्यों तथा मित्रों से सम्बन्ध खराब हो जाना आदि। कभी-कभी किशोर इतना उदास हो जाते हैं कि अपना जीवन समाप्त करने की सोचते हैं।

आत्महत्या (SUICIDE)

बहुत से किशोर जो आत्महत्या कर लेते हैं, वे या तो उदासी से घिरे होते हैं या अन्य मानसिक अस्वस्थता के भी शिकार होते हैं, जैसे-चिन्ता अव्यवस्था (anxiety disorder), अवधान अव्यवस्था (attention deficit disorder), आदि। प्रत्येक किशोर का व्यक्तित्व, जैविक बनावट और वातावरण अलग होता है। इसीलिए आत्महत्या के विविध कारक हो सकते हैं। आत्महत्या की ओर उन्मुख होने वाले किशोर अस्थायी परिस्थितियों को स्थायी समझ लेते हैं। अपराध-बोध के साथ क्रोध और नाराजगी के वशीभूत होकर आत्मघाती कदम उठा लेते हैं। आत्महत्या के कुछ चेतावनी-चिह्न (warning signs) निम्नवत् हो सकते हैं

(i) सीधे-सीधे या घुमा-फिरा कर आत्महत्या की धमकी देना,

(ii) मृत्यु से सम्मोहन (obsession with death),

(iii) ऐसी कविताएँ, कहानियाँ या चित्र जो मृत्यु की ओर इंगित करती हों,

(iv) अपनी चीजें बाँट देना, 

(v) व्यक्तित्व में आश्चर्यजनक परिवर्तन,

(vi) विवेकहीन व्यवहार,

(vii) अत्यधिक अपराध-बोध या शर्म व प्रतिकार महसूस करना, 

(viii) भोजन और निद्रा के तरीकों में परिवर्तन,

(ix) विद्यालयी कार्यों में अत्यधिक असफलता।

अभिभावकों व अध्यापकों का कर्त्तव्य (DUTY OF A TEACHER AND GUARDIAN)

किशोर ये नहीं समझ पाते कि वे आत्महत्या का चयन क्यों कर रहे हैं, परन्तु अपने को रोक नहीं पाते। अध्यापकों को और अभिभावकों को विशेष रूप से सतर्क रहना चाहिए, क्योंकि बालक अपनी भावनाओं को न तो अच्छी तरह समझ पाते हैं और न ही प्रदर्शित कर पाते हैं। इन परिस्थितियों से किशोरों को बचाने के लिए अभिभावकों और अध्यापकों से अग्रलिखित अपेक्षाएँ की जा सकती हैं:-

I. बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य की विशेष जानकारी रखें।

II. बच्चों को समझाएँ कि परिस्थितियाँ हमेशा एक सी नहीं रहतीं। 

III. परेशानी के समय बच्चों के मित्र बने रहें।

IV. यदि उदासी या आत्महत्या के चिह्न दिखाई देते हैं तो तुरन्त प्रतिक्रिया करें। 

V. बच्चों को अच्छे मित्र बनाने के लिए प्रेरित करें।

VI. विद्यालय व घर में स्वस्थ मनोरंजन की व्यवस्था करें।

VII. ऐसे बच्चों की सहायता में सभी को एकजुट करें- मनोचिकित्सक, अभिभावक, रिश्तेदार, विद्यालय के लोग, मित्र, पड़ोसी व बच्चे के जीवन से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण लोग।

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