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विकास की अवस्थाएं Stages of Development 

विकास की अवस्थाएं:- प्रत्येक मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक विकास की कई अवस्थाओं से होकर गुजरता है | जिसका मानसिक भाषाई संवेगात्मक सामाजिक और चारित्रिक विकास निरंतर होता रहता है | यह सब विकास उसके विभिन्न आयु स्तरों पर भिन्न भिन्न रूप में होता है, इन आयु स्तरों को ही विकास की अवस्थाएं कहते हैं | भिन्न-भिन्न मनोवैज्ञानिकों ने मानव विकास की अवस्थाओं को भिन्न भिन्न रूप में वर्गीकृत किया है:-

भारत में मनुष्य जीवन को निम्न 7 अवस्थाओं में विभाजित करके देखा समझा जाता है
1 गर्भाधान से जन्म तक गर्भावस्था
2 जन्म से 5 वर्ष तक शैशवावस्था
3 5 वर्ष से 12 वर्ष तक बाल्यावस्था
4 12 वर्ष से 18 वर्ष तक किशोरावस्था
5 18 वर्ष से 25 वर्ष तक युवावस्था
6 25 वर्ष से 55 वर्ष तक प्रौढ़ावस्था
7 55 वर्ष से मृत्यु तक वृद्धावस्था

 

विकास की अवस्थाएं हरलॉक के अनुसार 
1 गर्भाधान से जन्म तक गर्भावस्था
2 जन्म से 14 दिवस तक प्रारंभिक शैशवावस्था
3 14 दिवस से 2 वर्ष तक उत्तर शैशवावस्था
4 2 वर्ष से 11 वर्ष तक बाल्यावस्था
5 11 वर्ष से 13 वर्ष तक प्रारंभिक किशोरावस्था
6 13 वर्ष से 17 वर्ष तक किशोरावस्था
7 17 वर्ष से 21 वर्ष तक उत्तर किशोरावस्था

 

विकास की अवस्थाएं रास के अनुसार 
1 1 से 3 वर्ष तक शैशवावस्था
2 3 से 6 वर्ष तक प्रारंभिक बाल्यकाल 
3 6 से 12 वर्ष तक उत्तर बाल्यकाल 
4 12 से 18 वर्ष तक किशोरावस्था

 

कालेसनिक  ने विकास की अवस्थाओं को 8 वर्गों में विभाजित किया है
1 गर्भाधान से जन्म तक पूर्व जन्म काल/शैशवावस्था
2 जन्म से 3-4 सप्ताह तक नव शैशव काल 
3 1 माह से 15 माह तक  आरंभिक शैशवावस्था 
4 15 माह से 30 माह तक  उत्तर शैशवावस्था 
5 ढाई वर्ष से 5 वर्ष तक  पूर्व बाल्यावस्था 
6 5 वर्ष से 9 वर्ष तक  मध्य बाल्यावस्था 
7 9 वर्ष से 12 वर्ष तक  उत्तर बाल्यावस्था 
8 12 वर्ष से 21 वर्ष तक किशोरावस्था

  

सैले मानव विकास का अध्ययन
1 1 से 5 वर्ष तक शैशवावस्था
2 5 से 12 वर्ष तक बाल्यावस्था
3 12 से 18 वर्ष तक किशोरावस्था

 

डॉक्टर अरनेस्ट जॉन्स के अनुसार मनुष्य का विकास 4 अवस्थाओं में होता है
1 जन्म से 5 या 6 वर्ष तक शैशवावस्था
2 5 से 12 वर्ष तक बाल्यावस्था
3 12 से 18 वर्ष तक किशोरावस्था
4 18 वर्ष के बाद प्रौढ़ावस्था

 

विकास की अवस्थाओं का वर्गीकरण कोल के अनुसार निम्नलिखित प्रकार से है
1 जन्म से 2 वर्ष तक शैशवावस्था 
2 2 से 5 वर्ष तक प्रारंभिक बाल्यावस्था 
3 बालक 6 से 12 वर्ष तक बालक 6 से 10 वर्ष तक  मध्य बाल्यवस्था 
4 बालक 13 से 14 वर्ष तक बालिका 11 से 12 वर्ष तक  पूर्व किशोरावस्था या उत्तर बाल्यावस्था 
5 बालक 15 से 16 वर्ष तक बालिका 12 से 14 वर्ष तक  प्रारंभिक किशोरावस्था 
6 बालक 17 से 18 वर्ष तक बालिका 15 से 17 वर्ष तक  मध्य किशोरावस्था 
7 बालक 19 से 20 वर्ष तक बालिका 18 से 20 वर्ष तक  उत्तर किशोरावस्था 
8 21 से 34 वर्ष तक  प्रारंभिक प्रौढ़ावस्था 
9 35 से 49 वर्ष तक  मध्य प्रौढ़ावस्था 
10 50 से 64 वर्ष तक  उत्तर प्रौढ़ावस्था 
11 65 से 74 वर्ष तक  प्रारंभिक वृद्धावस्था 
12 75 वर्ष से आगे  वृद्धावस्था

 

एरिक एरिकसन ने विकास को व्याख्यान करने के लिए मानव जीवन को निम्न 8 अवस्थाओं में विभाजित किया है
1 जन्म से 18 माह तक  शैशवावस्था 
2 2 से 3 वर्ष तक  बाल्यावस्था 
3 3 से 5 वर्ष तक  विद्यालय अवस्था
4 6 से 11 वर्ष तक  विद्यालय अवस्था
5 12 से 18 वर्ष तक  किशोरावस्था 
6 19 से 40 वर्ष तक  मध्य किशोरावस्था 
7 40 से 65 वर्ष तक  मध्य प्रौढ़ावस्था 
8 65 से मृत्यु तक परिपक्व अवस्था 

 

हेविगहर्स्ट के अनुसार
1 0 से 5 वर्ष तक  शैशवावस्था तथा बाल्यवस्था 
2 6 से 12 वर्ष तक  मध्य शैशवावस्था 
3 13 से 18 वर्ष तक  किशोरावस्था 
4 19 से 29 वर्ष तक  प्रौढ़ावस्था 
5 30 से 60 वर्ष तक  मध्य प्रौढ़ावस्था 
6 60 से अंत तक परिपक्ववावस्था

शिक्षक और शिक्षा की दृष्टि से शैशवावस्था बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था विशेष रूप से महत्वपूर्ण होते हैं | इन अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तन के आधार पर ही अध्यापक अधिगम अवसरों का सृजन कर सकता है तथा विकास को दिशा दे सकता है | विकास एक क्रमिक प्रक्रिया है तथा शिक्षा व्यवहार में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया है | इन परिवर्तनों का स्वरूप भिन्न-भिन्न अवस्था में भिन्न-भिन्न होता है तथा विकासात्मक कार्यों की सफलता और असफलता से निर्देशित होता है |

विकासात्मक कार्यों पर पूर्ण नियंत्रण से बालक संतुष्ट होता है और नई चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए तैयार रहता है | विकासात्मक कार्यों पर नियंत्रण के अभाव में कार्य संपादन की प्रगति और लक्ष्य प्राप्त करने की गति धीमी हो जाती है | विकास की भिन्न-भिन्न  अवस्थाओं की चर्चा करने से पूर्व विकासात्मक का अर्थ समझ लेना आवश्यक है |

विकासात्मक कार्य (DEVELOPMENT TASKS)

1972 में रॉबर्ट हेवीघर्स्ट (Robesrt Havighurst) ने विकासात्मक कार्यों को परिभाषित करते हुए लिखा कि "प्रत्येक व्यक्ति शैशवास्था से वृद्धावस्था तक विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता है, प्रत्येक अवस्था विशिष्ट विकासात्मक कार्यों से सम्पृक्त होती है। विकासात्मक कार्य वह कार्य है जो किसी व्यक्ति के जीवन में निश्चित समय पर क्रमिक रूप से स्थान लेता है। सफलतापूर्ण उपलब्धि होने पर व्यक्ति को आनन्द प्राप्त होता है और भविष्य में सफलता के लिए प्रयास करता असफलता प्राप्त व्यक्ति दुःखी होता है, समाज द्वारा अमान्य हो जाता है और भविष्य के कार्यों में उसे है, जबकि परेशानी उठानी पड़ती है।" Developmental task is a task which series at or about a certain time in the life of an individual, successful achievement of which leads to his happiness and to success with later tasks, while failure leads to unhappiness in the individual, disapproval by the society and difficulty with later tasks'. -Havighurst, 1972

हेवीघर्स्ट ने विकासात्मक कार्यों के निम्नलिखित तीन स्रोत प्रस्तुत किए:-

(I) शारीरिक परिपक्वता (Physical maturation)-जैसे-चलना व बोलना सीखना, किशोरावस्था के समय विपरीत लिंग के प्रति व्यवहार आदि। 

(II) व्यक्तिगत स्रोत (Personal source)-जैसे-व्यक्तित्व परिपक्वता से तथा व्यक्तिगत मूल्यों एवं आकांक्षाओं से उत्पन्न कार्य जैसे-व्यावसायिक कौशल।

(III) सामाजिक दबाव (Pressure of society)-जैसे-उत्तरदायी नागरिक की भूमिका सोखना। विकासात्मक कार्यों अवधारणा को धीरे-धीरे शिक्षण विधियों और शिक्षण शैली के क्षेत्र में महत्वपूर्ण माना जाने लगा है। शैशवास्था, बाल्यावस्था और किशोरावस्था का विस्तृत वर्णन करने के पूर्व हेवीघटं द्वारा प्रस्तुत इन अवस्थाओं के विकासात्मक कार्यों का उल्लेख करना उचित होगा:- 

शैशवास्था एवं प्रारम्भिक बाल्यावस्था (0 से 5 वर्ष तक) के विकासात्मक कार्य

I. चलना सीखना (Learning to walk)

II. ठोस पदार्थ खाना सीखना (Learning to take solid foods)

III बोलना सीखना (Leaming to talk)  

IV शरीर के त्याज्य पदार्थों को रोकने पर नियन्त्रण सीखना (Leaming to control the elimination of body wastes) |

V. लिंग भिन्नता व लैंगिक विनम्रता सीखना (Learning sex differences and sexual modesty)। 

VI. सामाजिक व शारीरिक वास्तविकताओं को वर्णित करने के प्रत्यय और भाषा अर्जित करना (Acquiring concepts and language to describe social and physical reality)  

VII पढ़ने के लिए तैयार रहना (Readiness for reading)।

VIII. सही व गलत में अन्तर करना सीखना तथा चेतना का विकास (Leaming to distinguish right from wrong developing a conscience) |


मध्य बाल्यावस्था (6 से 12 वर्ष तक) के विकासात्मक कार्य

1. सामान्य खेलों के लिए आवश्यक शारीरिक कौशल सीखना (Leaming physical skills necessary for ordinary games) !

II स्वयं के प्रति हितकर प्रवृत्ति का निर्माण (Building a wholesome attitude towards one self)

III. हमउम्र साथियों के साथ रहना सीखना (Learning to get along with age-mates)।

IV. लिंग के अनुरूप उचित भूमिका सीखना (Learning an appropriate sex role)। V. पढ़ने, लिखने तथा गणना करने के मूलभूत कौशलों का विकास (Developing fundamenta skills in reading, writing and calculating)

VI नित्यप्रति जीवन के लिए आवश्यक अवधारणाओं का विकास (Developing concepts necessary for everyday living) I

VII चेतना, नैतिकता और मूल्यों के एक स्तर का विकास (Developing conscience, morality and a scale of values) I

VIII व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अर्जन (Achieving personal independance) |

IX समाज के प्रति मान्य प्रवृत्तियों का विकास (Developing acceptable attitudes toward society) 1


किशोरावस्था (13 से 18 वर्ष तक) के विकासात्मक कार्य

1. दोनों लिंगों के साथ परिपक्व सम्बन्धों का अर्जन (Achieving mature relations with both sexes)।

II पुरुष या महिला की सामाजिक भूमिका सीखना (Achieving a masculine of feminine social role)।

III अपने शारीरिक गठन को स्वीकार करना (Accepting one's physique)

IV प्रौढ़ संवेगात्मक स्वतन्त्रता अर्जित करना (Achieving ernotional independence of adults) 

V. विवाह एवं पारिवारिक जीवन की तैयारी करना (Preparing for marriage and family life)

VI आजीविका की तैयारी (Preparing for economic career)। 

VII. मूल्यों तथा अपने व्यवहार को निर्देशित करने के लिए एक नैतिक प्रणाली का अर्जन (Acquiring values and an ethical system to guide behaviour) | 

VIII सामाजिक रूप से उत्तरदायी व्यवहार की इच्छा करना तथा अर्जन करना (Desiring and achieving socially responsible behaviour) 

आगे, मनोवैज्ञानिकों के विचारों के आधार पर क्रमश: शैशवास्था, बाल्यावस्था और किशोरावस्था में बालकों के विकास की चर्चा की गई है।


शैशवावस्था में विकास (DEVELOPMENT DURING INFANCY)

शैशवावस्था जन्म होने के उपरान्त मानव विकास की प्रथम अवस्था है। शैशवावस्था की जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण काल माना जाता है। साधारणत: इस अवस्था को व्यक्ति के विकास की नींव कहा जाता है। अतः इस अवस्था में शिशु के विकास पर जितना ध्यान दिया जाता है, उतना ही अच्छा उसका विकास एवं भावी जीवन होता है।

न्यूमैन के अनुसार-" पाँच वर्ष तक की अवस्था शरीर तथा मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहणशील होती है।" मनोवैज्ञानिक फ्रायड भी शैशवावस्था को निर्माण काल मानते हैं-"मनुष्य को जो कुछ बनना होता है, वह चार-पाँच वर्षों में बन जाता है।" 

शैशवावस्था के महत्व के बारे में कुछ मनोवैज्ञानिकों के विचार निम्न प्रकार हैं:-

एडलर के अनुसार-"बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही निश्चित किया जा सकता है कि जीवन में उसका क्या स्थान है।" "One can determine how a child stands in relation to life a few months after his birth." -Adler

स्ट्रैंग के अनुसार-"जीवन के प्रथम दो वर्षों में बालक अपने भावी जीवन का शिलान्यास करता है। यद्यपि किसी भी आयु में उसमें परिवर्तन हो सकता है, पर प्रवृत्तियाँ और प्रतिमान सदैव बने रहते हैं।" "During the first two years of life, the child lays the foundation for his future. Although change is possible at any age, early trends and patterns tend to persist." - Strang

गुडएनफ के अनुसार-"व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है, उसका आधा तीन वर्ष के की आयु तक हो जाता है।" "One-half of an individuals ultimate mental stature has been attained by the age of three months." - Goodenough 

मनोवैज्ञानिकों के इन विचारों के आधार पर यह बात अच्छी तरह सिद्ध होती है कि शैशवावस्था को जीवन का आधार कहा जा सकता है, जिस पर बालक के भावी जीवन का निर्माण होता है।


शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ (CHIEF CHARACTERISTICS OF INFANCY)

शैशवावस्था की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास से सम्बन्धित कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :-

1. शारीरिक विकास में तीव्रता (Rapidity in Physical Growth)- बालक के जीवन में प्रथम तीन वर्षों में शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है। प्रथम वर्ष में लम्बाई तथा भार दोनों में तीव्र गति से वृद्धि होती है। उसकी कर्मेन्द्रियों, आन्तरिक अंगों माँसपेशियों आदि का भी उत्तरोत्तर विकास होता है।

2. मानसिक क्रियाओं में तीव्रता (Rapidity in Mental Processes)- शिशु की मानसिक क्रियाओं जैसे-ध्यान, स्मृति, कल्पना, अवधान, संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, कल्पना आदि का विकास तीव्र गति से होता है। तीन वर्ष की आयु तक शिशु की लगभग सब मानसिक शक्तियाँ भली-भाँति कार्य करने लगती हैं।

3. सीखने में तीव्रता (Rapidity in Learning)- शिशु के सीखने की प्रक्रिया में बहुत तीव्रता होती है। वह अनेक आवश्यक बातों को जल्दी सीख लेता है। गेसेल का कथन है- "बालक प्रथम 6. वर्षों में बाद के 12 वर्षों से दुगुना सीख लेता है।"

4. कल्पना (Imagination) - शैशवावस्था में कल्पना का बाहुल्य होता है। शिशु परियों को कहानी को सत्य समझता है, उसे लगता है कि सचमुच परी सफेद कपड़ों में छड़ी लेकर उसके सपने में आती है। शिशु कल्पना जगत् को ही यथार्थ समझता है। यथार्थ जगत् को गतिविधियाँ उसे प्रभावित नहीं करती। शिशु की कल्पना शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह बहुत सी बातों की कल्पना कर लेता है; जैसे-लाठी को घोड़ा समझना, पहिए को रेल समझना आदि। दूरदर्शन पर आने वाले कार्यक्रमों के नायकों के एक्शन करने का प्रयास करता है, क्योंकि वह काल्पनिक जगत् में पहुँच कर स्वयं को नायक के स्थान पर देखता है। इससे कभी-कभी बड़ी दुर्घटनाएँ भी हो जाती हैं।

5. दोहराने की प्रवृत्ति (Tendency of Repetition)-शैशवावस्था में शिशु में शब्दों, वाक्यों अथवा क्रियाओं को बार-बार दोहराने की प्रवृत्ति विशेष रूप से पाई जाती है। दोहराने में शिशु एक प्रकार के आनन्द का अनुभव करता है।

6. दूसरों पर निर्भरता (Dependence on Others)- मानव शिशु जन्म से कुछ समय बाद तक | नितान्त असहाय स्थिति में होता है। वह अपनी भौतिक तथा संवेगात्मक आवश्यकताओं के लिए अपने माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों पर आश्रित रहता है। खाने-पीने कपड़े पहनने, विस्तर पर लेटने आदि सभी कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, ज्यादातर वह अपनी माँ पर निर्भर करता है। दूसरे बच्चों से झगड़ा होने पर तुरन्त अपने माता-पिता से शिकायत करता है। स्नेह, प्रेम, सुरक्षा आदि के लिए अपने माता-पिता या अन्य बड़ों पर निर्भर रहता है।

7. अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति (Attitude of Learning by Imitation)– शिशु सबसे अधिक और जल्दी अनुकरण विधि से सीखते हैं। परिवार में माता-पिता, भाई-बहिनों तथा अन्य सदस्य के व्यवहार का वह अनुकरण करता है और सीखता है।

8. मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार (Instinctive Behaviour)- शैशवावस्था में बालक के अधिकतर व्यवहार मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होते हैं; जैसे-भूख लगने पर पास में पड़ी हुई कोई वस्तु मुँह में रख लेता है तथा उसकी कोई प्रिय वस्तु (खिलौना, कपड़ा आदि) उठा लेने पर वह रोने-चिल्लाने लगता है।

9. संवेगों का प्रदर्शन (Expression of Emotions)- शिशु जन्म से ही संवेगात्मक व्यवहार प्रदर्शित करता है। जन्म से ही वह रोने, चिल्लाने, हाथ-पैर पटकने आदि क्रियाएँ प्रदर्शित करता है। इस प्रकार जन्म के समय भी उसमें उत्तेजना का संवेग रहता है। सन् 1932 में अपने अध्ययनों से ब्रिजेज ने यह निष्कर्ष निकाला था- "दो वर्ष की आयु तक बालक में लगभग सभी संवेगों का विकास हो जाता है। " बाल मनोवैज्ञानिकों ने शिशु में मुख्यत: चार संवेग माने हैं-भय, क्रोध, प्रेम तथा पीड़ा।

10. स्वप्रेम की भावना (Feeling of Self Love)- शैशवावस्था में अपने प्रति प्रेम की भावना का बाहुल्य होता है। वह अपने माता-पिता की गोद में किसी अन्य बच्चे को देखकर ईर्ष्या करता है। वह सभी वस्तुएँ, माता-पिता व भाई-बहिनों का सम्पूर्ण स्नेह व लाड़ प्यार अपने लिए ही चाहता है। वह अपनी किसी भी चीज में अन्य बच्चों को साझीदार नहीं बनाना चाहता। शिशु की ईर्ष्या तब और भी स्पष्ट हो जाती है जब उसका कोई नवजात भाई या बहिन आ जाता है, वह माँ के पास उसे सोने नहीं देता, उसे चोट पहुँचाने की कोशिश करता है क्योंकि वह अपनी माँ पर केवल अपना अधिकार समझता है।

11. नैतिक भावना का अभाव (Lack of Moral Feeling)- इस अवस्था में शिशु में नैतिक भावना जाग्रत नहीं हो पाती है। उसे उचित-अनुचित, अच्छी-बुरी बातों का ज्ञान नहीं हो पाता है। वह, वही कार्य करता है जिसमें उसे आनन्द आता है, भले ही वह नैतिक रूप से अवांछनीय ही क्यों न हो? उन कार्यों को वह कभी नहीं करता जिसमें उसे दुःख होता है। इस प्रकार उसमें नैतिक भावना का पूर्ण अभाव होता है।

12. सामाजिक भावना का विकास (Development of Social Feeling) -4-5 माह का शिशु दूसरे बच्चों की ओर आकर्षित होता है। 10-11 माह का शिशु खेल खेलने में व्यस्त रहता है। 11-12 माह का बच्चा खिलौना छोड़कर दूसरे बालकों की ओर जाता है। शैशवावस्था के उत्तरकाल में बालक अन्य बालकों की सहायता करने लगता है। दूसरों के कष्ट के प्रति सहानुभूति प्रकट करता है। दूसरों को तंग करके अपना मनोरंजन करता है।

13. प्रत्यक्षात्मक अनुभव द्वारा सीखना (Learning Perceptual Experience) - मानसिक रूप से परिपक्व न होने के कारण वह प्रत्यक्ष और स्थूल वस्तुओं के सहारे सीखता है। किन्डरगार्टन तथा मॉण्टेसरी प्रणाली में उपहारों तथा शिक्षा उपकरणों का प्रयोग किया जाता है। इनका निरीक्षण वह करता है तथा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अनुभव प्राप्त करता है।
 
14. दूसरे शिशुओं के प्रति रुचि (Interest Forwards other Infants) स्किनर के विचारों में-"बालक एक वर्ष का होने से पूर्व ही अपने साथियों में रुचि व्यक्त करने लगता है। आरम्भ में इस रुचि का स्वरूप अनिश्चित होता है, पर शीघ्र ही यह अधिक निश्चित रूप धारण कर लेता है और रुचि एवं अरुचि के रूप में प्रकट होने लगती है।"

15. काम प्रवृत्ति (Sex Instinct)- फ्रायड तथा अन्य मनोविश्लेषणवादियों का कहना है कि "इस अवस्था में शिशु की प्रेम भावना काम प्रवृत्ति पर आधारित होती है। यह प्रवृत्ति बड़ी प्रवल होती है. किन्तु उसका प्रकाशन व्यस्कों की भाँति नहीं होता। शिशु का अपने अंगों से प्रेम करना, माता का स्तनपान करना, हाथ-पैर का अंगूठा चूसना आदि काम प्रवृत्ति के सूचक है।"


शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप (NATURE OF EDUCATION IN INFANCY)

शिक्षा की दृष्टि से मानव जीवन में शैशव काल का बहुत महत्व है। वैलेन्टाइन ने इसे 'सीखने का आदर्शकाल' (Ideal Period of Learning) कहा है। इसी प्रकार वाटसन ने भी अपने विचार व्यक्त किए है

शैशवावस्था में सीखने की सीमा और तीव्रता, विकास की और किसी अवस्था की तुलना में बहुत अधिक होती है।" "The scope and intensity of learning during infancy exceeds that of any other period of development." - Watson.

अतः शैशवावस्था में शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में निम्नलिखित बातों को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए

1. स्नेहपूर्ण व्यवहार (Affectionate Behaviour)-इस अवस्था में बालक दूसरों पर निर्भर रहता है। दूसरों के स्नेह का भूखा रहता है। अत: माता-पिता या अध्यापकों को उन्हें मारना-डाँटना नहीं चाहिए तथा न उन्हें भय दिखाना चाहिए और न ही क्रोध बालक के प्रति प्रेम, दया, सहानुभूति और शिष्टता का व्यवहार रखना चाहिए। इससे उनमें सीखने के लिए रुचि उत्पन्न होगी और उचित दिशा में विकास होगा।

2. जिज्ञासा की संतुष्टि (Satisfaction of Curiosity)-"शिशु शीघ्र ही अपनी आस-पास की वस्तुओं के सम्बन्ध में अपनी जिज्ञासा व्यक्त करने लगाता है।" यह को एवं क़ो का विचार है। वह उनके विषय में अनेक प्रकार के प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा को शान्त करना चाहता है। उसके माता-पिता और अध्यापक को उसकी जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिए।

3. वास्तविकता का ज्ञान (Knowledge of Reality) - शिशु काल्पनिक जगत् को ही वास्तविक संसार समझता है। अतः उसे ऐसे विषयों का ज्ञान दिया जाना चाहिए जो उसे वास्तविकता का ज्ञान कराए। मॉण्टेसरी पद्धति में पारियों की कहानी को इसलिए स्थान नहीं दिया गया है क्योंकि ये वास्तविकता से परे होती है।

4. व्यक्तिगत स्वच्छता की शिक्षा (Education of Individual Cleanliness)- शिशु कुछ बड़ा हो जाए तो उसे व्यक्तिगत स्वच्छता की शिक्षा देनी चाहिए। उसे मंजन करने, नहाने, स्वच्छ कपड़े पहनने आदि के लाभ बताने चाहिए।

5. मूल प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन (Initiative to Instincts)- शिशु की मूल प्रवृत्तियों का दमन न किया जाए। मूल प्रवृत्तियों को दबाने का बुरा प्रभाव बालक के शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ता है।

6. पालन-पोषण (Nurture)- शिशु के शारीरिक विकास में पोषण का बहुत महत्व होता है। शिशु के आहार पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है क्योंकि अन्य सभी विकास (बौद्धिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक) का आधार शारीरिक विकास ही होता है, अतः शिशु के पोषण में सभी तत्वों का होना जरूरी है। पोषण के साथ-साथ निद्रा, स्वच्छता, वस्त्र तथा स्नेह प्यार का अत्यधिक महत्व होता है।

7. आत्मनिर्भरता का विकास (Development of Self-dependence)- आत्मनिर्भरता से शिशु से शिशु को स्वयं सीखने, कार्य करने और विकास करने की प्रेरणा मिलती है। अतः उसको स्वतंत्रता प्रदान करके, आत्म निर्भर बनने का अवसर दिया जाना चाहिए।

8. सामाजिक भावना का विकास (Development of Sociability)- शैशवावस्था में बच्चों में अन्य बालकों के साथ रहना, उनसे सहायता प्राप्त रना, उनकी सहायता करना, दूसरों के कष्ट के प्रति सहानुभूति प्रकट करना जैसी विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं। अतः भाषा विकास के साथ सामाजिकता का विकास होने लगता है। इस समय बड़ों का अभिवादन करना, अपरिचितों से व्यवहार करना आदि सिखाना उचित रहता है। अन्य बालकों के साथ उसे अन्तर्क्रिया के अवसर उपलब्ध कराने चाहिए; जैसे-अन्य बालकों के साथ खेलना, साथ-साथ खाना, वार्ता आदि। इससे वे दूसरों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करना सीखेंगे, दुर्बल बालकों के प्रति सहानुभूति की भावना का विकास होगा।

9. आत्म-प्रदर्शन के लिए अवसर (Opportunity for Self-assertion) - शिशु के आत्म प्रदर्शन की प्रवृत्ति होती है। अतः माता-पिता/अभिभावक तथा अध्यापकों को उससे ऐसे कार्य कराने चाहिए जिससे उसे आत्म प्रदर्शन का अवसर मिले।

10. आत्माभिव्यक्ति के लिए अवसर (Opportunity for Self-expression) - शिशु को आत्माभिव्यक्ति का पूर्ण अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। आत्माभिव्यक्ति के लिए मातृभाषा सबसे अच्छा माध्यम है। अतः अभिभावकों और अध्यापकों को चाहिए कि शिशु की छोटी-छोटी कहानियाँ, कविताएँ सुनाएँ और याद करवाएँ तथा उससे सरल भाषा में बात चीत करें।

11. क्रिया तथा खेल द्वारा शिक्षा (Learning by Doing and Playing) - शिशु जन्म से ही क्रियाशील होता है। खेल में उसकी सहज रुचि होती है। अतः खेल द्वारा और करके सीखने का उसे पूर्ण अवसर देना चाहिए। इस सम्बन्ध में स्ट्रैंग ने कहा है-"शिशु अपने और संसार के बार में अधिकांश बातें खेल द्वारा सीखता है।"

12. मानसिक क्रियाओं के अवसर (Opportunities for Mental Activities)- शिशु को ऐसे अवसर अधिक से अधिक उपलब्ध कराने चाहिए कि वह ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा मानसिक क्रियाओं (सोचना, विचारना, समझना, पहचानना) में संलग्न हो सके। बर्ट के अनुसार, "3 वर्ष का बालक वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रित कर सकता है।"

13. अच्छी आदतों का निर्माण (Formation of Good Habits)- व्यक्ति की आदते ही उसके भावी जीवन का निर्माण करती हैं। शिशु को प्रारम्भ से ही दैनिक व्यवहार और सामाजिक शिष्टाचार के लिए प्रेरित करना चाहिए।

14. व्यक्तिगत विभिन्नता पर ध्यान (Attention on Individual Differences)- विकास का स्वरूप बताता है कि शिशुओं में व्यक्तिगत विभिन्नताएँ होती है। यहाँ तक कि एक हो माता-पिता के दा बच्चों में व्यक्तिगत विभिन्नताएँ पाई जाती है। अतः शिक्षा देते समय व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ध्यान रखा जाना चाहिए। 

15. संवेगात्मक सुरक्षा (Emotional Security)- शिशु के विकास में सबसे महत्वपूर्ण तत्व स्नेह होता है। जब उसे दूसरों से स्नेह मिलता है तो वह भी दूसरों को स्नेह देने का प्रयत्न करता है। अतः अभिभावकों और अध्यापकों को चाहिए कि वे शिशुओं को स्नेह देकर उनके साथ इस तरह का व्यवहार करें कि वे स्वयं दूसरों के प्रति स्नेह अनुभव करें।

बाल्यावस्था में विकास (DEVELOPMENT IN CHILDHOOD)

शैशवावस्था के तुरन्त बाद बाल्यावस्था आरम्भ हो जाती है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बाल्यावस्था 'बालक का निर्माणकारी काल' है। इस अवस्था में बालक व्यक्तिगत, सामाजिक और शिक्षा सम्बन्धी बहुत-सी आदतों, व्यवहारों, रुचियों तथा इच्छाओं के प्रतिरूपों का निर्माण कर लेता है। इस काल में बालकों में आदतों, इच्छाओं, रुचियों के जो भी प्रतिरूप बनते हैं वे लगभग स्थायी रूप धारण कर लेते हैं और उन्हें सरलतापूर्वक रूपान्तरित नहीं किया जा सकता सामान्यत: बाल्यावस्था मानव जीवन के लगभग 6 से 12 वर्ष के बीच की आयु का वह काल है जिसमें बालक के जीवन में स्थायित्व आने लगता है और वह आगे आने वाले जीवन की तैयारी करता है। बाल्यावस्था की यह आयु शिक्षा आरम्भ करने के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है।

बाल्यावस्था की मुख्य विशेषताएँ (CHIEF CHARACTERISTICS OF CHILDHOOD)

बालक-विकास की दृष्टि से बाल्यावस्था की निम्नलिखित विशेषताएँ है 

1. शारीरिक एवं मानसिक विकास में स्थिरता (Stability in Physical and Mental Growth)- बाल्यावस्था में विकास की गति में स्थिरता आ जाती है। विकास की दृष्टि से इस अवस्था को दो भागों में बाँटा जा सकता है:-

a. 6 से 9 वर्ष - संचयकाल (Conservation Period)

b. 10 से 12 वर्ष -  परिपाक काल (Consolidation Period)


शैशवावस्था और पूर्व बाल्यकाल (6 से 9 वर्ष) में विकास हो जाता है वह प्राकृतिक नियमों के अनुसार उत्तर बाल्यकाल (10 से 12 वर्ष) में दृढ़ होने लगता है। उनकी चंचलता शैशवावस्था की अपेक्षा कम हो जाती है और वयस्कों के समान व्यवहार करता दिखाई पड़ता है। इसीलिए रॉस ने बाल्यावस्था को 'मिथ्या परिपक्वता' (Pseudo Maturity) का बताते हुए कहा है-"शारीरिक और मानसिक स्थिरता बाल्यावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है।"

2. मानसिक योग्यताओं का विकास (Development in Mental Abilities)- बर्ट के अनुसार इस अवस्था में बालकों में सभी आवश्यक मानसिक योग्यताएँ विकसित होने लगती हैं। मूर्त तथा प्रत्यक्षी वस्तुओं के लिए सरलता से चिंतन कर लेता है। समझने, स्मरण करने, तर्क करने आदि की योग्यताए विकसित हो जाती हैं।

3. प्रबल जिज्ञासा प्रवृत्ति (Intense in Curiosity)- बाल्यावस्था में जिज्ञासा की प्रवृत्ति बहुत । तीव्र हो जाती है। वह अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए माता-पिता व घर के अन्य सदस्यों से प्रश्न पूछता है। शैशवावस्था में उसके प्रश्नों की प्रकृति 'क्या' तक सीमित रहती है, परन्तु बाल्यावस्था में वह 'क्यों' और 'कैसे' भी जानना चाहता है।

4. वास्तविक जगत से सम्बन्ध (Relationship with Real World)- बालक काल्पनिक जगत् से निकल कर वास्तविकता जगत् में विचरण करने लगता है। वह वास्तविक जगत् की प्रत्येक वस्तु से आकर्षित होता है तथा इसके बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। स्टैंग के अनुसार- "बालक अपने को अति विशाल संसार में पाता है और उसके बारे में जल्दी से जल्दी जानकारी प्राप्त करना चाहता है।" 

5. आत्मनिर्भरता की भावना (Feeling of Self-dependence) - इस समय शैशवावस्था की भाँति बालक शारीरिक एवं दैनिक कार्यों के लिए पराश्रित नहीं रहता। वह अपने दैनिक कार्य (महाना-धोना, कपड़े पहनना, स्कूल जाने की तैयारी आदि) स्वयं कर लेता है।

6. रचनात्मक कार्यों में रुचि (Interest in Constructive Works)- बाल्यावस्था में रचनात्मक कार्यों में रुचि की बहुलता होती है। बालक-बालिकाएँ निर्माण कार्य करने में आनन्द और संतोष अनुभव करते हैं। लड़के-लड़कियाँ अपनी रुचि के अनुसार विविध कार्यों को करने में रुचि दिखाते हैं। जैसे-दफ्तों से गुलदस्ता या मकान बनाना, मिट्टी से खिलौने बनाना, रंगीन कागज तथा कपड़े से फूल आदि बनाना, लड़की की कोई वस्तु बनाना, गुड़िया बनाना आदि।

7. संवेगों पर नियंत्रण (Control on Emotions)- बाल्यावस्था में संवेगों में स्थिरता आ जाती है। बालक भय और क्रोध को नियंन्त्रित करना सीख लेता है। वह अपने माता-पिता व अध्यापकों के सामने भी अपनी भावनाएँ प्रकट करने में संकोच करते हैं। साथ ही वे यह भी सीख लेते हैं कि किसके सामने कौन-सी भावना को व्यक्त करना लाभकारी हो सकता है।

8. सामाजिक गुणों का विकास (Development of Social Qualities)- बालक, विद्यालय के विद्यार्थियों और अपने समूह के सदस्यों के साथ पर्याप्त समय व्यतीत करता है। अतः उसमें अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है, जैसे-सहयोग, सद्भावना, सहनशीलता और आज्ञाकारिता आदि। 

9. सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता (Intensity in Group Feeling)- बालक अधिक से अधिक समय दूसरे बालकों के साथ व्यतीत करना चाहता है। वह किसी-न-किसी समूह का सदस्य वन जाता है। अत: बालक में प्रबल सामूहिक प्रवृत्ति होती है। रॉस का विचार है-' बालक प्रायः अनिवार्य रूप से किसी-न-किसी समूह का सदस्य बन जाता है, जो अच्छे खेल खेलने और ऐसे कार्य करने के लिए नियमित रूप से एकत्रित होते हैं, जिसके बारे में बड़ी आयु के लोगों को कुछ नहीं बताया जाता है। '

10. बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास (Development of Extrovert Personality)- इस अवस्था में बालकों में बर्हिमुखी प्रवृत्ति विकसित होने लगती है। वे बाहर घूमने बाहर की वस्तुओं को देखने, दूसरों के प्रति जानने आदि में रुचि प्रदर्शित करने लगते हैं।

11. संग्रह प्रवृत्ति का विकास (Development of Acquisition Instinct)-संग्रह की प्रवृत्ति बाल्यावस्था में तीव्र होती है। बालक विशेष रूप से पुराने स्टाम्प, गोलियाँ, खिलौने, मशीनों के कल-पुर्जे और पत्थर के टुकड़े और बालिकाएँ विशेष रूप से खिलौने, गुड़िया, कपड़े के टुकड़े आदि संग्रह करती देखी जाती हैं।

12. घूमने-फिरने/ भ्रमण की प्रवृत्ति (Tendency of Roaming)- मनोवैज्ञानिकों ने अनेक अध्ययनों के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि 9-10 वर्ष की अवस्था में बालकों में बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति तीव्र होती है। इसीलिए उनमें प्राय: स्कूल से कक्षाएँ छोड़कर भागने, आलस्यपूर्ण ढंग से समय बर्बाद करने आदि जैसी आदतें विकसित हो जाती हैं। 13. काम प्रवृत्ति में परिवर्तन (Change in Sence of Sex)- शैशवावस्था समाप्त होते होते बालक वातावरण से समायोजन स्थापित करने लगता है। माँ से अत्यधिक लगाव तथा पिता से विरोध की भावना न्यूनतम हो जाती है। बच्चों में समलिंगी प्रेम पनपने लगता है। लड़के लड़कों को अपना दोस्त बनाते हैं और लड़कियाँ लड़कियों को अपनी सहेली बनाती है।

बाल्यावस्था में शिक्षा (EDUCATION DURING CHILDHOOD)

इस अवस्था में बालक विद्यालय जाने लगता है और उसे नवीन अनुभव प्राप्त होते हैं। औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा प्रक्रिया के मध्य उसका विकास होता है। ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन के अनुसार बाल्यावस्था में ही व्यक्ति के आधारभूत दृष्टिकोणों, मूल्यों तथा आदर्शों का काफी सीमा तक निर्माण होता है। इस प्रकार यह अवस्था जीवन की आधारशिला है। शिक्षा आरम्भ करने की दृष्टि से भी इसे अत्यधिक उपयुक्त माना गया है।

शिक्षा विकास की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। बालक के निर्माण और विकास का पूर्ण उत्तरदायित्व माता-पिता, अध्यापक और समाज के ऊपर होता है। अतः बालक का स्वरूप निर्धारित करते समय निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है

1. शारीरिक विकास पर ध्यान (Attention on Physical Development)- बाल्यावस्था में प्रथम तीन वर्षों ( 6 से 9) तक शारीरिक विकास होता है। अंतिम तीन वर्षों (9 से 12) तक इसी विकास पर दृढ़ता प्राप्त करता है। बाल्यावस्था में हड्डियों में दृढ़ता आ जाती है और माँसपेशियों पर नियंत्रण प्राप्त होने लगता है। अत: खेलकूद, ड्रिल आदि का विशेष आयोजन किया जाना चाहिए और विद्यार्थियों को प्रतिभागिता के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। उत्तम वातावरण भी उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

2. भाषा विकास पर ध्यान (Attention on Language Development)- बालक के भाषा विकास पर आरम्भ से ही ध्यान देना चाहिए। इसके लिए उपयुक्त विषयों पर वार्तालाप करना, कहानियाँ सुनाना, बाल पत्रिकाएँ पढ़ने के लिए देना चाहिए। विद्यालय में वाद-विवाद, सम्भाषण, कहानी प्रतियोगिता तथा कविता पाठ आदि में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। 

3. उपयुक्त विषयों का चुनाव (Selection of Subjects)- बालक के लिए कुछ ऐसे विषयों का अध्ययन आवश्यक है, जो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें और उसके लिए हितकारी भी हों। जैसे-भाषा, अंकगणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, ड्राइंग, चित्रकला, सुलेख, पत्र-लेखन, निबन्ध रचना आदि।

4. रोचक विषय सामग्री (Interesting Subject Matter)- रुचियों की दृष्टि से बालक भिन्न होते हैं। अतः बालक के पुस्तकों की विषय-वस्तु में रोचकता और भिन्नता होनी चाहिए। बालक की पुस्तकों में नाटक, वीर पुरुष, साहसी कार्य, आश्चर्यजनक बातें, शिकार आदि से सम्बन्धित विषय-वस्तु रखनी चाहिए।

5. बाल मनोविज्ञान पर आधारित शिक्षा (Education based on Child Psycho Education) बालक बालिकाएँ कठोर अनुशासन पसन्द नहीं करते हैं। डाँट-फटकार, शारीरिक दण्ड, बल प्रयोग आदि से वे घृणा करते हैं। इस अवस्था के बालकों के लिए सहयोग, प्रेम व सहानुभूति पर आधारित । शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। 6. खेल एवं क्रिया द्वारा शिक्षा (Education through Play and Activity)- बाल्यावस्था में शिक्षण विधि रुचिकर तथा क्रिया व खेल के सिद्धान्त पर आधारित होनी चाहिए। बालक की रुचि के अनुसार शिक्षण विधि में आवश्यकतानुसार चयन भी करते रहना चाहिए। आधुनिक शिक्षा प्रणालियों में किन्डरगार्टन, मॉण्टेसरी, बेसिक, प्रोजेक्ट, डाल्टन आदि क्रिया, खेल तथा स्वानुभव पर आधारित शिक्षा प्रणालियाँ हैं।

7. जिज्ञासा की सन्तुष्टि (Satisfaction of Curiosity)- बालक की जिज्ञासा प्रवृत्ति को शान्त करने वाली शिक्षा उसे दी जानी चाहिए। बालक में जिज्ञासा प्रवृत्ति काफी प्रबल होती है। वह प्रत्येक नई वस्तु या नई घटना के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करना चाहता है। अतः माता-पिता और अध्यापकों को बालक की जिज्ञासा शान्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।

8. सामूहिक प्रवृत्ति की तुष्टि (Satisfaction of Gregariousness) - बालक में समूह में रहने की प्रबल प्रवृत्ति होती है। वह अन्य बालकों के साथ मिलना-जुलना और उनके साथ कार्य करना या खेलना पसन्द करता है। उसे इन सब बातों का अवसर देने के लिए विद्यालय में सामूहिक कार्यों और सामूहिक खेलों का उचित आयोजन किया जाना चाहिए। कॉलेसनिक ने कहा है-"सामूहिक खेल और शारीरिक व्यायाम प्राथमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग होना चाहिए।"

9. पाठ्यसहगामी क्रियाएँ (Co-curricular Activities)- बालक की मानसिक एवं सामाजिक शक्तियों के विकास के लिए विद्यालय में प्रकृति निरीक्षण, भ्रमण, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, उत्सव, प्रदर्शनी, खेलकूद तथा समाज सेवा कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए। इनसे बालक की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास होता है।

10. सामाजिक गुणों का विकास (Development of Social Qualities)-इस अवस्था में बालक अपने घर से बाहर विद्यालय और पास-पड़ोस में अन्तर्क्रिया करता है। इन नए वातावरण में वह अपने को समायोजित करने का प्रयास करता है। इस अवस्था में प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, सहयोग, सहिष्णुता, सह-अस्तित्व आदि का बच्चों के सामाजिक विकास पर बहुत प्रभाव पड़ता है। शिक्षा का लक्ष्य है सामाजिक गुणों का विकास सामाजिक गुणों के विकास के लिए पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन किया जाना चाहिए। विभिन्न खेल-कूदों, सांस्कृतिक व साहित्यिक आयोजनों, समाजसेवा कार्य आदि के माध्यम से बालकों में नेतृत्व के गुण, सहयोग की भावना, सहिष्णुता की भावना, अनुशासन, मैत्री - भाव आदि गुणों का विकास किया जा सकता है।

11. पर्यटन व स्काउटिंग की व्यवस्था (Excursion and Scouting) - लगभग 9 वर्ष की आयु में बालक में निरुद्देश्य इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए पर्यटन और स्काउटिंग को उसकी शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए।

12. नैतिक शिक्षा (Moral Education)- पियाजे ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया है कि लगभग 8 वर्ष का बालक अपने नैतिक मूल्यों का निर्माण और समाज के नैतिक नियमों का निर्माण और समाज के नैतिक नियमों में विश्वास करने लगता है। उसे इन मूल्यों का उचित निर्माण और नियमों में विश्वास करने लगता है। कॉलेसनिक का मत है- "बालक को आनन्द प्रदान करने वाली सरल कहानियों द्वारा नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए।"

13. मानसिक विकास पर बल (Emphasis on Mental Development)- मानसिक विकास से तात्पर्य समझने, तर्क करने, विचार करने, समस्या समाधान करने, अवधान करने, प्रत्यय ज्ञान, स्मृति, कल्पना आदि शक्तियों से है। इस अवस्था में बालकों को बड़ा समृद्ध और रचनात्मक वातावरण उपलब्ध कराना चाहिए। खेल-खिलौनों का अच्छा प्रवन्ध होना चाहिए। बौद्धिक क्रियाकलापों में विद्यार्थियों की प्रतिभागिता सुनिश्चित करनी चाहिए। घर तथा विद्यालय दोनों स्थानों पर समस्या समाधान के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। तार्किक क्रियाओं में भाग लेने का अवसर उपलब्ध कराना चाहिए।

किशोरावस्था में विकास DEVELOPMENT IN ADOLESCENCE)

किशोरावस्था मानव जीवन के विकास की सबसे महत्वपूर्ण अवस्था है। किलपैट्रिक ने तो इस अवस्था को जीवन का सबसे जटिल काल माना है। यह समय बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था का सन्धिकाल होता है जिसमें वह न तो बालक ही रह जाता है और न तो प्रौढ़ ही बन पाता है।

शैक्षिक दृष्टि से किशोरावस्था के महत्व पर प्रकाश डालते हुए इंग्लैण्ड की हैडो कमेटी ने अपने प्रतिवेदन में लिखा है-"ग्यारह या बारह वर्ष की आयु में बालक की नसों में ज्वार उठना आरम्भ हो जाता है, इसे किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है। यदि इस ज्वार की बाढ़ के समय ही उपयोग कर लिया जाय एवं इसकी शक्ति और धारा के साथ-साथ नई यात्रा आरम्भ कर दी जाए, तो सफलता प्राप्त की जा सकती है। "

"There is a tide which begins to rise in the views of youth at the age of eleven or twelve. It is called by the name of adolescence. It that tide can be taken at the flood and a new voyages begun in the strength and along the flow of its current, we think that it will move on the fortune." - Hadow Committee

स्टैनली हॉल के अनुसार-"किशोरावस्था प्रबल दबाव तथा तूफान एवं संघर्ष काल है।" किशोरावस्था को अंग्रेजी में 'एडोलेसेन्स' (Adolescence) कहते हैं, जो लैटिन भाषा के 'एडोलिसियर' (Adolescere) से बना है; जिसका अर्थ है-परिपक्वता की ओर बढ़ना (To grow to Maturity), अत: किशोरावस्था वह अवस्था है जिसमें बालक परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है तथा जिसकी समाप्ति पर वह परिपक्व व्यक्ति बन जाता है। प्रायः 12 से 18 वर्ष की आयु के बीच की अवधि को किशोरावस्था माना जाता है।

किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करने से पूर्व किशोरावस्था के अन्तर्गत समाहित भिन्न-भिन्न आयु वर्गों में विशिष्ट विकासात्मक कार्यों को समझना लाभप्रद होगा।

I. 12 से 14 वर्ष में विकासात्मक कार्य (Progressive activities between 12 to 14 years) 

1. अपनी पहचान प्राप्त करने का प्रयास (Trying to find his/her identify)

2. तीव्र शारीरिक परिवर्तन (लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा पहले परिपक्व होती हैं) (Rapid body changes girls mature before boys) |

3. मनमौजी (Moodiness)।

4. शर्मीला (Shyness) |

5. एकान्तता में रुचि (Interest in privacy) । 

6. स्वयं को अच्छी तरह अभिव्यक्त कर सकना (Can express himself/herself better) |

7. भावनाओं के सम्प्रेषण के लिए शब्दों की अपेक्षा क्रिया का अधिक प्रयोग (Uses actions more than words to communicate feelings) |

8 घनिष्ठ मित्रता महत्वपूर्ण (Close friendship gain importance) 

9 समान उम्र के साथियों से प्रभावित (Influence by peer groups)

10. समान लिंगी मित्र व सामूहिक क्रियाकलाप (Same-sex friends and group activities)।

11 माता-पिता से कम स्नेह प्रदर्शन (Shows parents less affection) |

12 माता-पिता को गलत समझना (Realizes that parents have faults) 

13. वर्तमान पर अधिक ध्यान देना (Focuses mostly on present)

14 स्वयं के ऊपर कोई मुसीबत न समझना (Feels like nothing bad could possibly happen to him/her) I 

15 नियमों व मादक पदार्थों के साथ प्रयोग (Experiment with rules and alcoholic things)।

16. अव्यावहारिक चिन्तन (Abstract thinking) |

II. 14 से 17 वर्ष में विकासात्मक कार्य (Progressive activities between 14 to 17 years)

1. स्वयं को कार्य में शामिल करना (Self-involvement)

2. माता-पिता से शिकायत कि वे उनकी स्वतन्त्रता में बाधा उत्पन्न करते हैं (Complains that parents get in the way of his/her independence) I

3. अपने बाह्य स्वरूप, शरीर व आकर्षण को महत्व देना (Very concerned with appearance, body and attractiveness) | 

4. अक्सर सम्बन्धों में परिवर्तन (Changes relationship often) |

5. अभी भी समझना कि उसके ऊपर कोई मुसीबत नहीं आएगी (Still feels like nothing bad could happen to him/her) I

6. खतरनाक व्यवहारों में स्वयं को डालना (Engages in risky behaviours) | 

7. माता-पिता के प्रति गुणवत्ता विहीन धारणा (Poorer opinion of parents) |

8. नए मित्र बनाने का प्रयास (Tries to make new friends )  

9. प्रतिस्पर्धात्मक एवं चुनिन्दा साथी समूह (Competitive and selective peer groups) |

10. खिन्नता की अवधि (Period of sadness)।

11. बौद्धिक रुचियाँ महत्वपूर्ण (Intellectual interests are important)।

12. स्नेह और भावावेश की भावना (Feelings of love and passion) |

13. सिद्धान्तों का विकास (Development of principles)

14 रोल मॉडलों का चयन (Selection of role models) |

15 चेतना के अधिक नियमित प्रमाण (More consistent evidence of conscience)।

16. अच्छी तरह से लक्ष्य निर्धारण (Ability to set goals is better)।

17. नैतिक तर्क में रुचि (Interest in moral reasoning) |

III. 17 से 19 वर्ष में विकासात्मक कार्य (Progressive activities between 17 to 19 years)

1. पक्की पहचान (Firmer identity) 

2. सन्तुष्टि पर नियन्त्रण (Can delay gratification)  

3. आर-पार का विचार (Thinks ideas through) 

4. शब्दों में भावनात्मक अभिव्यक्तिकरण (Expresses feelings in words) 

5. विनोद का तरीका अधिक विकसित (Sense of humour more developed) 

6. रुचियों में स्थायित्व (Interests are stable)

7. संवेगात्मक स्थिरता (Emotional stability is greater)

8. स्वतन्त्रत निर्णय ले सकता है (Can make independent decisions)

9. समझौता कर सकता (Can compromise)

10. अपने कार्य के प्रति गौरव (Prade in his/her work)

11 अधिक आत्म-विश्वासी और आत्म निर्भर (More self-reliant and independent) 

12 साथी समूह उतना महत्वपूर्ण नहीं होता, जितना कि कुछ अच्छे मित्र (Peer group not as important as a few good friends)

13. अन्यों के लिए अधिक चिन्ता (Greater concern for others)

14. पुनः माता-पिता के सुझाव सुनने लगता है (Starts listening to parents advice again)

15. भविष्य के लिए अत्यधिक चिन्ता (Greater concern for the future) 

16. स्वयं की जीवन भूमिका के बारे में सोचना (Thinks about his/her life)

17. सम्बन्धों में गम्भीरता (Concerned with serious relationship)

18. लाभदायक अन्तर्दृष्टि (Useful insight)।

19. लक्ष्य निर्धारित कर उन्हें प्राप्त करने का प्रयास (Can set goals and follow through) 

20. सामाजिक संस्थाओं और सांस्कृतिक परम्पराओं को स्वीकार करना (Accepts social institutions and cultural traditions) 

21. अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा स्वयं के लिए किशोरों की दृष्टि पर आधारित आत्म-विश्वास (Self-esteem is based on the adolescent's view of himself/herself, rather than other people)

किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ (CHIEF CHARACTERISTICS OF ADOLESCENCE)

किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक तथा नैतिक विकास की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :-

1. शारीरिक विकास (Physical Development)-किशोरावस्था में आन्तरिक तथा बाह्य शारीरिक परिवर्तन अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं। इस अवस्था में लड़कों की आवाज़ भारी होने लगती है, जबकि लड़कियों की मधुर उनके चलने-फिरने का अंदाज भी बदलने लगता है। लड़कियाँ अपने शरीर के प्रति चैतन्य होने लगती हैं। हड्डियों में लचीलापन कम होने लगता है, परिपक्वता आती है। मांसपेशियाँ दृढ़ हो जाती हैं। लड़कों में पुरुषोचित और लड़कियों में महिला सम्बन्धी विकास और परिवर्तन आता है। आन्तरिक अंगों की वृद्धि और विकास भी तेजी से होता है। मस्तिष्क, हृदय, श्वसन तथा पाचन अंगों का एवं स्नायु तंत्र शारीरिक वृद्धि के परिप्रेक्ष्य में परिपक्व हो जाते हैं। इस अवस्था में शारीरिक विकास उत्परिवर्तनीय (Saltory) तथा निरन्तरता (Continuous) के सिद्धान्त पर होता है।

2. मानसिक विकास ( Mental Development)-किशोर के मस्तिष्क का चतुर्दिक विकास होता है। उसमें कल्पना एवं दिवा स्वप्नों की बहुलता, बुद्धि का अधिकतम विकास, सोचने विचारने एवं तर्क करने की शक्ति में वृद्धि तथा विरोधी मानसिक दशाओं आदि गुणों का विकास होता है। कॉलेसनिक के अनुसार-"किशोर की मानसिक जिज्ञासा का विकास होता है। अतः वह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं में रुचि लेने लगता है। वह इन समस्याओं के सम्बन्ध में अपने विचारों का निर्माण भी करता है।"

3. घनिष्ठ व व्यक्तिगत मित्रता (Fast and Personal Friendship)-किसी समूह का सदस्य होते हुए भी किशोर एक या दो बालकों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है, जो उसके परम मित्र होते हैं तथा जिनसे वह अपनी समस्याओं के बारे में स्पष्ट रूप से बातचीत करता है। वेलेन्टाइन के अनुसार-"घनिष्ठ और व्यक्तिगत मित्रता उत्तर किशोरावस्था की विशेषता है।"

4. स्थायित्व एवं समायोजन का अभाव (Lack of Stability and Adjustment)- इस समय किशोर की मनःस्थिति अस्थिर होती है। रॉस ने किशोरावस्था को 'शैशवावस्था की पुनरावृत्ति' कहा है। इस समय उसमें इतनी तेजी से परिवर्तन होते हैं कि वह कभी कुछ विचार करता है और कभी कुछ। उसकी मनोदशा अस्थिर होती है। परिणामस्वरूप वह अपने को पर्यावरण से समायोजित करने में असमर्थ होता है।

5. व्यवहार में विभिन्नता (Difference in Behaviour)- किशोर में आवेगों और संवेगों में बड़ी प्रबलता होती है। यही कारण है वह विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का व्यवहार करता है। उदाहरणार्थ- किसी समय वह अत्यधिक क्रियाशील होता है और किसी समय अत्यधिक आलसी, किसी परिस्थिति में साधारण रूप से उत्साहपूर्ण और किसी में असाधारण रूप से उत्साहहीन । बी. एन. झा ने लिखा है- "हमारे सबके संवेगात्मक व्यवहार में कुछ विरोध होता है, पर किशोरावस्था में यह व्यवहार विशेष रूप से स्पष्ट होता है।"

6. बुद्धि का अधिकतम विकास (Maximum Development of Intelligence) - किशोरावस्था में बुद्धि का विकास लगभग पूर्ण हो जाता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार 16 वर्ष की आयु तक, सामान्यतः बुद्धि में वृद्धि होती है। पूर्ण बौद्धिक विकास के कारण उसमें ये क्षमताएँ आ जाती हैं-प्रत्ययों के आधार पर अमूर्त चिन्तन की क्षमता, तर्क करने तथा निर्णय लेने की क्षमता, ध्यान केन्द्रित करने की क्षमता, स्मृति-विस्तार की क्षमता तथा सर्जनात्मक कल्पना की क्षमता। 

7. रुचियों में परिवर्तन तथा स्थायित्व (Changes and Stability in Interest) – इस अवस्था में रुचियाँ परिवर्तित होती रहती हैं। किशोर अपने समूह या आस-पास या मीडिया से प्रभावित होकर अपनी रुचियाँ निर्धारित करने लगते हैं। लड़के और लड़कियों की रुचियों में कुछ समानताएँ और कुछ विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। आजकल इस अवस्था के लड़के-लड़कियाँ सेल फोन तथा इण्टरनेट एवं कम्प्यूटर के प्रति विशेष रुझान रखते हैं। इस अवस्था में विषमलिंगी मित्रता का रुझान अधिक होता है। लड़के-लड़कियाँ एक साथ पर्यटन के लिए जाना या समाज सेवा कार्य करना पसन्द करते हैं। प्रोजेक्ट से सम्बन्धित कार्यों में किशोर-किशोरियाँ बहुत रुचि लेते हैं। आत्म-सम्मान सम्बन्धित वस्तुओं और विचारों में रुचि अधिक होती है। लड़के घर के बाहर के कार्यों में और लड़कियाँ घर के अंदर के कार्यों में अधिक रुचि लेती हैं।

8. काम भावना का विकास (Development of Sex Instincts)- किशोरावस्था में काम- प्रवृत्ति क्रियाशील हो उठती है। बाल्यावस्था में समलिंगीय प्रेम भावना किशोरावस्था में विषम-लिंगीय प्रेम में बदल जाती है। इस अवस्था में लड़के-लड़कियों से सम्पर्क या सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करते हैं तथा लड़कियाँ, लड़कों से बोलने, साथ घूमने तथा सम्पर्क स्थापित करने की इच्छा रखती हैं।

9. मानसिक स्वतंत्रता और विद्रोह की भावना (Mental Independence and Feeling of Revolt)- किशोरावस्था में मानसिक स्वतंत्रता की भावना बहुत प्रबल होती है। किशोर बड़ों के आदेशों विभिन्न परम्पराओं, रीति-रिवाजों और अंधविश्वासों के बंधन में न रहकर स्वतंत्र रहना चाहता है। वह बिना तर्क किए किसी बात को मानने को तैयार नहीं होता। उसके ऊपर कोई नियन्त्रण या प्रतिबन्ध लगाया जाता है तो वह उसका विरोध करता है। कॉलेसनिक के अनुसार- “किशोर, प्रौढ़ों को अपने मार्ग में बाधा समझता है जो उसे अपनी स्वतंत्रता का लक्ष्य प्राप्त करने से रोकते हैं।"

10. कल्पना का बाहुल्य (Excuberance of Imagination)- किशोर अत्यधिक कल्पनाशील होता है। व्यावहारिक जीवन में किशोर अपनी सभी अभिलाषाओं को पूरा करने में अपने को असमर्थ पाता है। फलस्वरूप वह अपनी इन अभिलाषाओं की पूर्ति वास्तविक जीवन में न करके कल्पना जगत् में करने लगता है। छोटी-छोटी बातों को लेकर वह कल्पना में डूब जाता है। कल्पना की प्रबलता के कारण इस आयु में दिवास्वप्न देखने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति की अधिकता के कारण वह आत्म केन्द्रित तथा अन्तर्मुखी हो जाता है। इस प्रवृत्ति से कभी-कभी हानि भी होती है। कुछ किशोरों में समाज विरोधी भावनाएँ उत्पन्न हो जाती है, वे असामाजिक और अनैतिक व्यवहार करने लगते हैं। प्रायः वे अपराधी बन जाते हैं। किन्तु कभी-कभी वे कल्पना और दिवास्वप्नों के कारण साहित्य, संगीत और ललित कलाओं में सौन्दर्यात्मक और रचनात्मक कल्पना शक्ति का प्रकाशन करते हैं। वे कहानियाँ, नाटक लिखने तथा अभिनय करने में रुचि दिखाते हैं। कल्पना प्रवृत्ति के उन्नयन द्वारा उनमें कलात्मक शक्ति का विकास होता है और वे कवि, कलाकार, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार, चित्रकार या संगीतज्ञ बनाए जा सकते हैं।

11. समूह को महत्व (Importance to Group)-किशोर जिस समूह का सदस्य होता है, उसको वह अपने परिवार और विद्यालय से अधिक महत्वपूर्ण समझता है। यदि उसके माता-पिता और समूह के दृष्टिकोणों में अन्तर होता है, तो वह समूह के दृष्टिकोण को ही चुनता है और उन्हीं के अनुसार अपने व्यवहार, रुचियों, इच्छाओं आदि में परिवर्तन करता है। बिग एवं हण्ट का कथन है-"जिन समूहों से किशोरों का सम्बन्ध होता है, उनसे उनके लगभग सभी कार्य प्रभावित होते हैं। समूह उनकी भाषा, नैतिक मूल्यों, वस्त्र पहनने की आदतों और भोजन को विधियों को प्रभावित करते हैं।"

12. परमार्थ की भावना (Altruism)-शैशवावस्था की स्वार्थ भावना, किशोरावस्था में परमार्थ भावना अर्थात् दूसरों का उपकार करने की भावना का रूप ले लेती है। इस समय किशोर में त्याग और बलिदान की भावना प्रबल दिखाई देती है। वह देश और समाज के लिए अपने प्राणों को उत्सर्ग करने में भी संकोच नहीं करता है। इस समय उनमें अदम्य उत्साह और साहस होता है जो कि परमार्थ भावना को जन्म देती है।

13. आत्म-सम्म की भावना (Feeling of Self-respect)- किशोर और किशोरियाँ आत्म-सम्मान के प्रति सजग रहते हैं। छोटी-छोटी बातों में वे अपने को अपमानित और तिरस्कृत समझने लगते हैं। आत्म-सम्मान को ठेस लगने के कारण ही किशोरों में घर से भागने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है।

14. धार्मिक भावना (Religious Feelings)- किशोरावस्था में धार्मिक भावना बड़ी प्रबलता से विकसित होती है। वह अपनी सफलता या असफलता का कारण ईश्वर की मर्जी मानता है। अक्सर देखा जाता है कि परीक्षा में जाने से पूर्व किशोर-किशोरियाँ धार्मिक कृत्य करना, मंदिर आदि अवश्य जाना चाहते हैं। धार्मिक आदर्शों के प्रति किशोरों के मन में स्थायी भाव बन जाते हैं।

15. वीर पूजा (Hero Worship)- इस अवस्था में वीर पूजा की प्रवृत्ति बहुत प्रबल हो जाती है। किशोर-किशोरियाँ इतिहास, फिल्म, पत्र-पत्रिकाओं आदि के किसी चरित्र से प्रभावित होकर जैसा ही आचरण करने का प्रयास करते हैं, वैसी ही मनोवृत्ति विकसित कर लेते हैं। यहाँ तक कि उनके अन्दर अपने आदर्शों को ईश्वर-तुल्य मानने की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है।

16. व्यवसाय चुनाव की चिन्ता (Anxiety for Vacational Selection) इस अवस्था में ही किशोर अपने भावी व्यवसाय चुनने की चिन्ता करने लगता है। वह एक कुशल डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, अध्यापक, कलाकार या सफल किसान बनकर जीवन व्यतीत करने की कल्पना और चिन्ता किया करता है तथा व्यवसाय के अनुसार ही पाठ्य-विषयों का चुनाव भी करता है।

उपर्युक्त विवेचन के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि किशोरावस्था में बालक की अनेक नवीन विशेषताएँ दिखाई देती हैं। इस सम्बन्ध में स्टेनले हॉल का कहना है-"किशोरावस्था एक नया जन्म है, क्योंकि इसी में उच्चतर एवं श्रेष्ठतर मानव विशेषताओं के दर्शन होते हैं।" "Adolescence is a new birth, for the higher and more completely human traits are new born." - Stanley Hall

किशोरावस्था में शिक्षा (EDUCATION IN ADOLESCENCE)

किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन और जटिल समय होता है। इस अवस्था में वह अच्छा या बुरा, धार्मिक या अधार्मिक, परिश्रमी या अकर्मण्य, सभ्य या असभ्य, सामाजिक या असामाजिक, देशप्रेमी या देशद्रोही बन सकता है। अतः इस अवस्था के लिए शिक्षा व्यवस्था करते समय निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए

1. शारीरिक विकास के लिए शिक्षा (Education for Physical Development) किशोरावस्था में शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है और अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन देखने को मिलते हैं। इसलिए इस समय स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना आवश्यक है। घर व विद्यालय, दोनों का ही उत्तरदायित्व होता है कि वे किशोर के शरीर को स्वस्थ बनाने का प्रयत्न करें। इसके लिए पौष्टिक भोजन, स्वास्थ्य शिक्षा, शारीरिक व्यायाम, खेल-कूद की व्यवस्था अनिवार्य रूप से की जानी चाहिए। विद्यालय के पाठ्यक्रम में शारीरिक शिक्षा, स्वास्थ्य शिक्षा को प्रमुख स्थान दिया जाना चाहिए। पाठ्यसहगामी क्रियाओं के रूप में खेल-कूद, भ्रमण, प्राकृतिक निरीक्षण आदि को उचित स्थान प्रदान किया जाना चाहिए।

2. मानसिक विकास के लिए शिक्षा (Education for Mental Development)- किशोर की मानसिक शक्तियों का सर्वोत्तम और अधिकतम विकास करने के लिए शिक्षा स्वरूप उसकी रुचियों, रुझानों और दृष्टिकोणों एवं योग्याताओं के अनुरूप होना चाहिए। अतः उसकी शिक्षा में निम्न को स्थान के दिया जाना चाहिए

I. कला, विज्ञान, साहित्य, भूगोल, इतिहास आदि सामान्य विद्यालय विषय,

II किशोर की जिज्ञासा सन्तुष्ट करने और उसकी निरीक्षण शक्ति को प्रशिक्षित करने के लिए प्राकृतिक, ऐतिहासिक आदि स्थानों का भ्रमण,

III. उसकी रुचियों, कल्पनाओं और दिवास्वप्नों को साकार करने के लिए पर्यटन, वाद-विवाद, कविता-लेखन, साहित्यिक गोष्ठी आदि पाठ्यसहगामी क्रियाएँ।

3. संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा (Education for Emotional Development) किशोर का जीवन अत्यधिक संवेगात्मक होता है। माता-पिता तथा अभिभावकों को उसके अदम्य उत्साह पर ध्यान देना चाहिए। किशोर जो संकल्प करता है उस संकल्प को कार्य रूप में परिणत करने में उसकी सहायता करनी चाहिए। निराशा और उदासीनता की स्थिति में बहुत ही स्नेह व सहानुभूति के साथ किशोरों से व्यवहार करना चाहिए और उन्हें धैर्य देना चाहिए। उनकी कठिनाइयों को सुनना कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास करना, उनके दृष्टिकोण के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करना चाहिए।

4. सामाजिक विकास के लिए शिक्षा (Education for Social Development) किशोरावस्था में सामाजिक भावना परिपक्व व उन्नत दशा में होती है। समाज सेवा, मानव जाति से प्रेम, आदर्श समाज की स्थापना आदि शिक्षा किशोरों को दी जानी चाहिए। सामूहिक कार्य करने के अधिक से अधिक अवसर प्रदान किए जाने चाहिए; जैसे-स्काउटिंग/गाइडिंग, भ्रमण टोली कार्य, पर्यटन, खेलकूद आदि। किशोर को प्रेरित कर, उनको प्रोत्साहित कर सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूक करना चाहिए जैसे प्रदूषण, जनवृद्धि, बालश्रम, महिलाओं के प्रति हिंसा, निरक्षरता, बेरोजगारी आदि।

5. निर्देशन एवं परामर्श (Guidance and Counselling)- किशोर को अपने भविष्य के लिए मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। विषयों के चयन, व्यवसाय के सम्बन्ध में उसे अनुभवी व्यक्तियों से सलाह लेने की आवश्यकता महसूस होती है। किशोर को अपने भविष्य के निर्माण एवं व्यवसाय के प्रति चेतना आ जाती है। अतः बुद्धि परीक्षण, व्यक्तित्व परीक्षण, अभिरुचि परीक्षण, किशोर से साक्षात्कार, माता-पिता साक्षात्कार आदि के आधार पर उन्हें परामर्श देना चाहिए। विभिन्न कारणों से कभी-कभी किशोर असामाजिक गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं, ऐसे में उन्हें निर्देशन और परामर्श द्वारा सही मार्ग पर लाया जा सकता है।

6. व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षा (Education based on Individual Differences)- किशोर में व्यक्तिगत भिन्नताओं और आवश्यकताओं को सभी शिक्षाविद् स्वीकार करते हैं। अतः विद्यालयों में विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे कि किशोरों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूर्ण किया जा सके। माध्यमिक शिक्षा आयोग के प्रतिवेदन में कहा गया है-"हमारे माध्यमिक विद्यालयों के छात्रों की विभिन्न प्रवृत्तियों, रुचियों और योग्यताओं को पूर्ण करने के लिए विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रमों की व्यवस्था करनी चाहिए।"

7. पूर्व-व्यावसायिक शिक्षा (Pre-Vocational Education)- किशोर अपने भावी जीवन के लिए कोई-न-कोई व्यवसाय चुनकर उसके बारे में योजना बनाना चाहता है। परन्तु उसे इस बात का ज्ञान नहीं होता है कि उसके लिए कौन-सी व्यवस्था उपयुक्त होगी। इसके लिए विद्यालयों में कुछ व्यवसायों की प्रारम्भिक शिक्षा की व्यवस्था अवश्य की जानी चाहिए। इस उद्देश्य प्राप्ति के लिए ही हमारे देश में अनेक बहुउद्देशीय विद्यालय खोले गए हैं जिनमें व्यावसायिक विषयों की शिक्षा की व्यवस्था को गयो है। इसके साथ ही किशोर, किशोर को व्यवसाय के चयन में सहायता प्रदान करने के लिए विद्यालय में व्यावसायिक निर्देशन की व्यवस्था भी की जानी चाहिए।

8. यौन शिक्षा की व्यवस्था (Organisation of Sex Education)- किशोरावस्था में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यौन शिक्षा अवश्य दी जानी चाहिए। यौन से सम्बन्धित गलत आचरण के प्रति किशोरों को जागरूक करना आवश्यक है। उपयुक्त यौन शिक्षा से किशोरों का मानसिक संतुलन तथा सामाजिक समायोजन विकृत होने से बचाया जा सकता है। सम्बन्धित भ्रान्तियों और गलत धारणा से उन्हें मुक्त कराया जा सकता है। किशोर-किशोरियों को रचनात्मक कार्यों के अवसर प्रदान कर काम भावना के | शोधन तथा मार्गान्तीकरण का प्रयास करना चाहिए।

9. जीवन दर्शन की शिक्षा (Education for Philosophy of Life)- किशोर अपने जीवन दर्शन का निर्माण करना चाहता है, पर उचित पथ-प्रदर्शन के अभाव में वह ऐसा करने में असमर्थ रहता है। इस कार्य का उत्तरदायित्व विद्यालय पर है। इसका समर्थन करते हुए ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन ने लिखा है-"किशोर को हमारे जनतंत्रीय दर्शन के अनुरूप जीवन के प्रति दृष्टिकोणों का विकास करने में सहायता देने का महान् उत्तरदायित्व विद्यालय पर है।"

10. धार्मिक तथा नैतिक विकास के लिए शिक्षा (Education for Religious and Moral Development)-किशोरावस्था आदर्श स्थापना, स्थायी भाव निर्माण, समाज सेवा की प्रवृत्ति की अवस्था है। अतः साहित्य, इतिहास, महापुरुषों की जीवनी, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से किशोरों में उच्च नैतिक विकास किया जा सकता है। उचित एवं सन्तुलित रूप से धार्मिक शिक्षा देकर राष्ट्रीय एकीकरण का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। प्रत्यक्ष शिक्षा के बजाए अप्रत्यक्ष ढंग से धार्मिक व नैतिक शिक्षा देना अधिक उपयोगी होता है। दृष्टान्तों का प्रभाव बहुत स्थायी होता है। अध्यापकों को चाहिए कि यथास्थान पर दृष्टान्तों का प्रयोग करें। अध्यापकों के चरित्र का प्रभाव किशोरों पर बहुत पड़ता है। अध्यापकों को बहुत सचेत रहने की आवश्यकता है।

11. शिक्षण-शैलिया (Teaching Methods)-किशोरों का बौद्धिक विकास लगभग पूरा हो चुका होता है। उनमें अमूर्त चिंतन व तर्क करने की क्षमता विकसित हो जाती है। डाल्टन योजना का अधिकाधिक प्रयोग इस अवस्था में किया जा सकता है। रेडियो, टेलीविजन, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से बहुत कुछ सिखाया जा सकता है। सृजनात्मक चिंतन के विकास से उन्हें कवि, साहित्यकार, गणितज्ञ, वैज्ञानिक, कलाकार, आदि बनाया जा सकता है। वाद-विवाद प्रतियोगिता, निबंध लेखन, कवि गोष्ठी, विज्ञान तथा गणित के क्लब जैसे आयोजन करके विद्यार्थियों को सृजनात्मक चिंतन की ओर प्रेरित किया जा सकता है। स्वाध्याय पर बल देना, पुस्तकालयों तथा वाचनालय के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित करना आवश्यक है।

12. सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार (Sympathy)- किशोरावस्था में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन होने के कारण, किशोर हर समस्या किसी-न-किसी समस्या को लेकर एक द्विविधा या उलझन की स्थिति में रहता है। उसकी कठिनाइयों तथा समस्याओं का समाधान करने के लिए माता-पिता, अभिभावकों तथा अध्यापकों को उससे सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। इस अवस्था में किशोर बड़ों द्वारा लगाए नियंत्रणों और बंधनों को पसन्द नहीं करता। वह अपने कार्यों को करने के लिए स्वतंत्रता चाहता है। अतः उसे उत्तरदायित्व देकर सहानुभूतिपूर्ण ढंग से कार्य करने का अवसर देना चाहिए।

13. किशोर के महत्व की मान्यता (Recognition of Adolescence) - किशोर के मन में प्रबल इच्छा होती है कि वह भी कुछ करे और उसे भी उचित महत्व तथा स्थान मिले। अतः उसकी इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसे कुछ ऐसे उत्तरदायित्व दिए जाने चाहिए, जिनमें उसकी रचनात्मक का प्रदर्शन हो सके, नेतृत्व की भावना को संतुष्टि मिले, लोगों के सामने आने का अवसर मिल सके, जैसे- विद्यालय में आयोजित किए जाने वाले सांस्कृतिक या सामाजिक कार्यक्रमों का आयोजन एवं संचालन, विद्यालय पत्रिका का सम्पादन, विद्यार्थी सहायक सेवाओं की देखरेख आदि। इससे प्रतिभासम्पन्न किशोरों को विविध प्रकार के अवसर मिलेंगे कि वे कुछ नया या पहचान दिलाने वाला कार्य कर सकें। विद्यालय की संस्थागत योजनाओं के क्रियान्वयन में उनकी भूमिका सुनिश्चित की जानी चाहिए।

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