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पाठ्यचर्या विकास के विभिन्न उपागम Different Approaches of Curriculum Development

पाठ्यचर्या विकास के विभिन्न उपागम (Different Approaches of Curriculum Development


किसी भी प्रभावशाली शिक्षण हेतु पाठ्यचर्या की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है और उससे भी महत्वपूर्ण है कि पाठ्यचर्या का विकास कैसे किया जाये क्योंकि यह एक विशेष क्षेत्र होता है। इसमें शिक्षकों से यह अपेक्षा की जाती है कि उन्हें पाठ्यचर्या की अवधारणा व अधिगम अनुभवो के विषय में उचित जानकारी हो जिसे इस पाठ्यचर्या द्वारा समाज के अभीष्ट उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके। पाठ्यचर्या विकास (Curriculum Development) का अर्थ निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया से है जो कभी समाप्त नहीं होती है। शिक्षक शिक्षण की आवश्यकता के अनुसार पाठ्यचर्या द्वारा अधिगम समूह या लक्ष्य समूह की आवश्यकताओं को सज्ञान में रखते हुए विभिन्न आधारिक तत्वों को ध्यान में लेकर पाठ्यचर्या का विकास करता है। इसे हम दूसरे शब्दों में कह सकते है कि शिक्षक यह जानने का प्रयास करता है कि अधिगम अवसरों के नियोजन द्वारा छात्रों के व्यवहारों में विशिष्ट परिवर्तन किस प्रकार लाया जा सकता है व यह किस सीमा तक जाना जा सकता है कि उनमें कितना अपेक्षित परिवर्तन हुआ है। इसी प्रत्यय को पाठ्यक्रम विकास की संज्ञा दी जाती है।


पाठ्यचर्या विकास : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (CURRICULUM DEVELOPMENT: HISTORICAL PERSPECTIVES)

विगत चार दशकों में एन. सी. ई. आर टी. विद्यालयी शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर एक अग्रणी घटक के रूप में उभरी है, अतः उसे पाठ्यचर्या विकास और पाठ्यपुस्तक रचना की प्रक्रिया में सीधे-सीधे संलग्न भी किया गया है। राज्य/केन्द्र शासित क्षेत्रों के स्तर पर पाठ्यचर्या निर्माण और पाठ्य पुस्तक रचना से सम्बन्धित तकनीकी और शोध सहयोग प्रदान करने के लिए धीरे-धीरे इस प्रक्रिया का अन्त सरण राज्य शिक्षा संस्थानों, पाठ्य पुस्तक मंडलों और राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषदों की स्थापना के द्वारा किया जाने लगा।

एन.सी.ई.आर.टी ने 1975 में दस वर्षीय विद्यालय के लिए पाठ्यचर्या एक रूपरेखा और 1976 में हायर सैकेण्डरी एजूकेशन एंड इट्स वोकेशनलाईजेशन प्रकाशित करके विद्यालयी शिक्षा की पुनर्रचना और शिक्षा आयोग (1646-66) द्वारा अनुशासित 10 + 2 प्रणाली को अपनाने के प्रयासों को ठोस रूप दिया। इसके पश्चात् तत्सम्बन्धी पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तके तैयार की जो राज्यों और केन्द्र शासित क्षेत्रों में आदर्श के रूप में इस्तेमाल की गई। इसी प्रकार सामाजिक सांस्कृतिक राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं के साथ-साथ कुछ महत्वपूर्ण शिक्षा शास्त्रीय सरोकारों को शामिल करते हुए जिन मुख्य विषयों और सिफारिशों पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) और कार्य योजना (अगस्त 1986) ने विशेष बल दिया था. उनको एन सी ई. आर टी द्वारा 1988 में तैयार की गई प्रारम्भिक और माध्यमिक शिक्षा के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम एक रूपरेखा में सम्बोधित किया गया।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) में जिन शिक्षाशास्त्रीय मुद्दों पर विशेष जोर दिया गया था उनको पर्याप्त रूप से (1988) की पाठ्यचर्या में प्रतिबिम्बित किया गया। सतत् और समग्र मूल्यांकन के साथ-साथ शैक्षिक प्रौद्योगिकी के उपयोग पर भी बल दिया गया। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि 1988 की पाठ्यचर्या रूपरेखा में समान स्तरों को सुनिश्चित करते हुए विद्यालयी शिक्षा की एक राष्ट्रीय प्रणाली विकसित करने में योगदान किया। इसके अतिरिक्त जो लक्ष्य भारतीय संविधान में निर्धारित किए गए थे उन्हें प्राप्त करने को भी 1988 की पाठ्यचर्या रूपरेखा का महत्वपूर्ण उद्देश्य बनाया। गया था तथा 1975 के अनुसार ही विद्यालयी शिक्षा के विभिन्न स्तरों के लिए विस्तृत पाठ्यक्रम तैयार करने उद्देश्य से समग्र रूप से दिशा-निर्देश पुनः विकसित किए गए।

विगत एक दशक में मानवीय प्रयास के प्रत्येक क्षेत्र में जो परिवर्तन हुए और जिनका प्रभाव पड़ा वे गत पाँच-छ: दशकों की तुलना में कहीं अधिक प्रभावशाली रहे। शैक्षिक और सामाजिक मार्गों भी परिवर्तन आया। सच पूछा जाय तो शिक्षण और अधिगम दोनों तत्वों का कायाकल्प हो गया। भारत एवं अनेक देशों ने अपनी-अपनी शिक्षा प्रणाली की तटस्थ आलोचनात्मक समीक्षा की और वे एक सच्चे तथ्य और स्पष्ट आकलन के साथ सामने आए द चैलेंज ऑफ एजूकेशन (भारत. 1985) ए नेशन एट रिस्कर (संयुक्त राज्य अमेरिका, 1983) और लर्निंग टू सक्सीड (यूनाइटेड किंगडम, 1993) के माध्यम से अपनी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का गम्भीर विश्लेषण किया गया। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यूनेस्को द्वारा लर्निंग द ट्रेजर विदिन (Learning: The treasure within) 1986 नामक दस्तावेज में शिक्षा के विश्व परिदृश्य की विवेचना की गई और अनेक दीर्घकालीन उपयोगी और सार्थक सुझाव दिए गए।

पाठ्यचर्या निर्माण आवश्यक रूप से एक अंतहीन प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत समाज में घटित होने वाले परिवर्तनों की दृष्टि से शिक्षा में गुणात्मक विकास की सतत् खोज की जाती है। इस दृष्टि से यह कोई जड़ प्रक्रिया न होकर एक गतिशील आयाम है। एक सार्थक पाठ्यचर्या को समाज के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए और उसमें शिक्षार्थी की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की झलक मिलनी चाहिए। यहाँ तक कि नई सहसाब्दी में भी कुछ देशों के मुख्य सामाजिक सरोकार अपरिवर्तित बने रहेंगे क्योंकि पूर्व में उन सरोकारों को पर्याप्त रूप से क्रियान्वित नहीं किया जा सका। इसके अतिरिक्त अनेक नए सरोकारो का उदय देश और विश्व के तेजी से बदलते सन्दर्भों में हुआ है। पाठ्यचर्या को इस प्रकार की शिक्षा की रचना करनी होगी जो असमानता के विरुद्ध संघर्ष कर सके और शिक्षार्थी की सामाजिक सांस्कृतिक, भावनात्मक और आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा कर सके। यह केवल सम्पूर्ण शैक्षिक प्रयासों में घटिया तत्वों या मामूली बातों को अपनाकर सम्भव नहीं हो सकता। अतः अगर वर्तमान और भविष्य की बहुआयामी चुनौतियों का मुकाबला करना है तो उत्कृष्टता ही पहली जरूरत है।

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