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सामाजिक विकास, सामाजिक विकास का अर्थ Social Development, Meaning of Social Development

सामाजिक विकास Social Development


जन्म के समय मनुष्य सामाजिक नहीं होता, जैसे-जैसे उसका शारीरिक और मानसिक विकास होता जाता है, समाजीकरण का भी विकास होता है। जन्म के उपरान्त माँ की गोद से शिशु का जीवन आरम्भ होता है। 3-4 साल की अवस्था में शिशु घर से बाहर निकलता है और वह साथी बनाता है और अपने साथियों के साथ खेलना-कूदना, घूमना-फिरना पसन्द करता है। मनोवैज्ञानिक इस प्रवृत्ति को 'सामाजिकता' मानते हैं। समाजिकता की अपूर्व विशेषता के कारण मनुष्य अन्य वर्गों से भिन्न तथा उत्तम •माना जाता है। वह समाज में रहकर जीना चाहता है और सामाजिक बन्धनों को बनाने तथा दूसरों के साथ समायोजन की चेष्टा करता है। सामाजिक विकास या समाजीकरण मानव वृद्धि और विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण स्थान रखता है, मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन समाजीकरण की प्रक्रिया से होकर गुजरता है।


सामाजिक विकास का अर्थ है:-

बालक का समाजीकरण करना। समाज में रहकर ही वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और अपनी जन्मजात शक्तियों और प्रवृत्तियों का विकास करता है। उसकी समस्त शक्तियों का विकास तथा आचरण व्यवहार का परिमार्जन और सामाजिक गुणों का विकास सामाजिक वातावरण में ही सम्भव है। समाज में रहकर ही दूसरों से सम्पर्क स्थापित करता है और धीरे-धीरे सामाजिक आदर्शों तथा प्रतिमानों का अनुकरण करना सीखता है। इस प्रकार सीखने और समायोजन करने की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। सामाजिकता के विकास से बालक में समायोजन की क्षमता उत्पन्न होती है। व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है और शिक्षा समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति अपने समाज की जीवनशैली को सीखता है। समाज के मूल्यों और विश्वासों में आस्था रखने लगता है। अपने समाज में अनुकूलन स्थापित करने की योग्यता को सामाजिक विकास कहते हैं।

घर, परिवार, पड़ोस, मित्र-मंडली, विद्यालय, समुदाय, जनसंचार साधन तथा राजनीतिक और सामाजिक संस्थाएँ बालक के समाजीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। बालक के सामाजिक विकास को शैक्षिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। आधुनिक समय में शिक्षा के एक प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति का सामाजिक विकास करना स्वीकार किया जाता है। अतः शिक्षा के द्वारा बालकों के न केवल शारीरिक व मानसिक विकास को प्रोत्साहित किया जाता है वरन् उनके सामाजिक विकास को भी सही दिशा प्रोत्साहित करने का प्रयास किया जाता है।


अध्यापकों के लिए सामाजिक विकास के निहितार्थ (IMPLICATIONS OF SOCIAL DEVELOPMENT FOR TEACHERS)


बालकों की शिक्षा में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अध्यापक की होती है। अध्यापकों द्वारा प्रयुक्त शिक्षण संव्यूहन (teaching strategies), विद्यार्थियों के साथ व्यवहार तथा अन्तःक्रिया, बालकों के सामाजिक विकास पर प्रभाव डालता है। अध्यापक का कर्तव्य होता है कि वह बालक को समाज और परिस्थितियों के अनुरूप बनाए। बालकों में सामाजिक अनुकूलन की क्षमता पैदा करने में अध्यापक तभो प्रभावी हो सकता है जब उसे बालकों के सामाजिक विकास के विभिन्न आयामों और तत्वों का ज्ञान हो। अध्यापक अपने शिक्षण और व्यवहार के द्वारा बालक को समाज के मूल्यों, मानदण्डों, नियमों, कानूनों, आदर्शों आदि का अवबोध करा सकता है। अतः अध्यापकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह बालकों को उचित-अनुचित में भेद करने तथा समाज-सम्मत व्यवहार करने का प्रशिक्षण दे। बालक के सामाजिक विकास का ज्ञान रखने वाला अध्यापक बड़ी कुशलता से बालक को समाज की आदर्शात्मक व्यवस्था से परिचित करा सकता है। 


अध्यापकों के लिए बालकों के सामाजिक विकास के निहितार्थों को निम्नवत् प्रस्तुत किया जा सकता है

1. अध्यापक और विद्यार्थियों के मध्य घनिष्ठता पैदा होनी चाहिए, जिससे कि अध्यापक का विद्यार्थी पर नैतिक दबाव और नियन्त्रण बना रह सके। 

2. अध्यापकों को चाहिए कि विभिन्न पाठ्य-सहगामी क्रिया-कलापों का आयोजन करें और विद्यार्थियों को प्रतिभागिता के लिए प्रोत्साहित करें। इससे उन्हें सामूहिक जीवन के अनुभव प्राप्त होंगे। 

3. अध्यापक को चाहिए कि वह कक्षा के अन्दर तथा कक्षा के बाहर विद्यार्थियों को विविध प्रकार के क्रियाकलापों में व्यस्त करना चाहिए। ये क्रियाकलाप केवल व्यक्तिगत हो न हों, सामूहिक भी हों। इन क्रियाकलापों के आयोजन में अध्यापक को जनतान्त्रिक मूल्यों को आधार बनाकर विद्यार्थियों में स्पष्ट विचार, अनुशासन, सहनशीलता, सहयोग, देश-प्रेम आदि गुणों के विकास पर ध्यान देना चाहिए।

4. अध्यापकों का कर्त्तव्य है कि बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया में अपनी सक्रिय भूमिका निभाए। अध्यापक को विद्यार्थियों के माता-पिता से सम्पर्क स्थापित करना चाहिए ताकि वह विद्यार्थियो की रुचियों मनोवृत्तियों आदि को समझ सके और बालक का समाजीकरण उचित दिशा में कर सके।

5. कक्षा, खेल के मैदान में, साहित्यिक व सांस्कृतिक क्रियाओं में अध्यापक सामाजिक व्यवहार के आदर्श प्रस्तुत करता है। बालक अपनी अनुकरण की मूल प्रवृत्ति के कारण अध्यापक के कार्य/व्यवहार के तरीकों और ढंगों का अनुकरण करता है। अतः अध्यापक को सदैव सतर्क रहना चाहिए कि उसके गलत आचरण से विद्यार्थी प्रभावित न हो। 

6 अध्यापक को स्नेह, पक्षपात रहित तरीके से विद्यार्थियों को उनके असामाजिक व्यवहार के लिए आगाह करना चाहिए। यदि असामाजिक व्यवहार करने वाले बालकों को अन्य बालकों के साथ मिलने-जुलने से रोक दिया जाएगा तो उनमें सुधार आने की सम्भावना कम रहेगी, उसका सामाजिक विकास गलत दिशा में होने की सम्भावना अधिक हो जाएगी।

7. अध्यापकों को बालकों में सामाजिक उत्तरदायित्व (Social responsibility) उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों से अवगत होना चाहिए ताकि वे विद्यार्थियों को उत्तरदायित्वपूर्ण गृहकार्य देकर सामाजिक शीलगुणों के विकास के अवसर प्रदान कर सकें।

8. विद्यार्थियों में सामाजिक सूझ (Social insight) का विकास करना भी अध्यापकों का दायित्व है। अध्यापकों को चाहिए कि विविध व खास-खास सन्दर्भों को पढ़ाते समय विभिन्न प्रकार के सामाजिक व्यवहारों को सीखने लिए विद्यार्थियों को प्रेरित करें। विभिन्न प्रकार की सामाजिक समस्याओं से विद्यार्थियों को अवगत कराएँ।

9. सहकारी अधिगम (Cooperative learning) से सम्बद्ध अनुदेशन विधियाँ सामाजिक दक्षता (Social competency) विकास में सहायक होती हैं। अध्यापकों को चाहिए कि अवसर के अनुसार किसी विषय या प्रश्न पर विद्यार्थियों से उनके विचार लिखवाएँ, फिर उन्हें 2 या 4 के समूह बनाकर अपने विचारों का आदान-प्रदान करने को प्रेरित करें।

10. विद्यार्थियों में शैक्षिक दक्षता (Academic competency) के साथ-साथ ही सामाजिक दक्षता का विकास करने का प्रयास किया जाना चाहिए।

11. सहकारी समूहों में विद्यार्थी संफलतापूर्वक कार्य करें, इसके लिए यदि आवश्यकता हो तो अध्यापक विद्यार्थियों को सामाजिक कौशल के लिए सीधे निर्देश दे सकता है, जैसे- दूसरों की बात सुनने, समूह विचार-विमर्श में भाग लेने साथियों के साथ सम्मानपूर्वक अन्तःक्रिया व तर्क-वितर्क करने, बड़ों से व्यवहार करने आदि से सम्बन्धित निर्देश।

12. प्राथमिक कक्षाओं के अध्यापकों को अपनी पाठ योजना इस प्रकार तैयार करनी चाहिए जिससे कि कुछ विशिष्ट क्षेत्रों का प्रकाशन हो सके, जैसे- संवेगों का अभिव्यक्तिकरण, सामाजिक जागरूकता, निर्णय क्षमता का उन्नयन, क्रोध और तनाव पर नियन्त्रण आदि ।

13. अध्यापक को कक्षा-कक्ष का प्रबन्धन इस तरह करना चाहिए कि बालक को कोर्स सीखने के साथ-साथ सामाजिक कौशल के विकास का भी अवसर प्राप्त हो सके।

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