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बच्चों के शारीरिक और नैतिक विकास में माता-पिता और अध्यापकों की भूमिका ROLE OF PARENTS AND TEACHERS IN PHYSICAL AND MORAL DEVELOPMENT OF CHILDREN

बच्चों के शारीरिक और नैतिक विकास में माता-पिता और अध्यापकों की भूमिका (ROLE OF PARENTS AND TEACHERS IN PHYSICAL AND MORAL DEVELOPMENT OF CHILDREN)



बच्चों के शारीरिक और नैतिक विकास में माता-पिता और अभिभावकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आइए, विचार करें :-

बच्चों के शारीरिक विकास में माता-पिता की भूमिका (Role of Parent in Physical Development of Children)- 

(i) जन्मोपरान्त बालक के शारीरिक विकास पर भौतिक वातावरण का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। माता-पिता का दायित्व है कि घर की भौतिक दशा, जलवायु, प्रकाश ह सभी तत्वों का ध्यान रखें जिससे कि बच्चों का शारीरिक विकास सन्तुलित और अपेक्षित रूप में हो सके।

(ii) जो बच्चे शैशवावस्था अथवा बाल्यावस्था में अक्सर बीमार पड़ते रहते हैं, उनका शारीरिक विकास उचित रूप से नहीं हो पाता। माता-पिता का कर्तव्य है कि बच्चों को इन बीमारियों से बचाएँ उचित समय पर टीके लगवाएँ, उचित और पोषण युक्त भोजन की व्यवस्था करें, संक्रमण से बचाएँ, बीमार पड़ने के लक्षण दिखाई पड़ते ही चिकित्सक की सेवाएँ लें।

(iii) बच्चों को मिलने वाला आहार उसके शारीरिक विकास को जन्म के पूर्व और जन्म के बाद विभिन्न अवस्थाओं में शारीरिक विकास को प्रभावित करता है। सम्पूर्ण गर्भकाल में माँ के द्वारा ग्रहण किया गया संतुलित और पौष्टिक भोजन गर्भस्थ शिशु का शारीरिक विकास सामान्य ढंग से करता है। जन्म के बाद शिशु आहार पौष्टिक और सन्तुलित तत्वों से युक्त होता है तो शिशु का शारीरिक विकास अच्छी तरह होता है। शिशु को पौष्टिक और संतुलित आहार उपलब्ध कराना माता-पिता का कर्तव्य है।

(iv) बालक के शारीरिक विकास का माता के स्वभाव से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। माँ को सर्वदा प्रसन्न और आशावादिता के साथ रहना चाहिए ताकि गर्भस्थ शिशु का शारीरिक विकास उत्तम तरीके से हो सके। अन्य अवस्थाओं में भी माता का क्रोध, चिन्ता, दुःखी रहना बालक के शारीरिक विकास करें प्रभावित करता है। 

(v) यदि माता-पिता अपने बच्चों के स्वास्थ्य का बिल्कुल ध्यान नहीं रखते अथवा वे अपने बच्चों को अत्यधिक कड़े अनुशासन में रखते हैं तो बालक का शारीरिक विकास संतुलित रूप से नहीं हो पाता है।

(vi) बच्चों को शारीरिक दुर्घटनाओं से बचाना माता-पिता का एक अहम् कर्तव्य होता है। बच्चों को जोखिम भरे खेलों, कार्यों से बच्चों को दूर रखना चाहिए। ऐसे खेलों व कार्यों से बच्चे अपंग हो सकते हैं। बच्चों की शरीर रचना और स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है।

(vii) माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को नियमित दिनचर्या का प्रशिक्षण दें। समय से खाना-पीना, खेलना, सोना आदि शारीरिक विकास के लिए आवश्यक है। 

(viii) माता-पिता को चाहिए कि बच्चों के स्वस्थ और सन्तुलित शारीरिक विकास के लिए उन्हें खेल और व्यायाम के समुचित अवसर प्रदान करें। बच्चों के विश्राम और निद्रा पर भी विशेष ध्यान रखना चाहिए, तभी बच्चों का अच्छा शारीरिक विकास हो सकेगा। 


बच्चों के शारीरिक विकास में अध्यापकों की भूमिका (Role of Teachers in Physical Development of Children)- 

बालक के शारीरिक विकास के सन्दर्भ में अध्यापकों की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसका निर्वहन इस प्रकार होना चाहिए

(i) उपयोगी कार्यों से बालकों को नियमित दिनचर्या का महत्व समझाना आवश्यक है। 

(ii) शारीरिक विकास की दृष्टि से प्रत्येक बालक भिन्न-भिन्न होता है। उनकी इस वैयक्तिक भिन्नता को अनुकूल कार्यक्रमों में लगाकर विकसित किया जाना चाहिए। 

(ii) कक्षा और कक्षा के बाहर ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करना चाहिए जिससे बालकों को शारीरिक शक्ति, चाल और विशुद्धता को बढ़ाने का अवसर मिल सके। 

(iv) बालकों के लिए खेलकूद और व्यायाम की क्रियाओं का आयोजन करना चाहिए।

(v) बालकों को यह सिखाना आवश्यक है कि वे किस प्रकार स्वस्थ रह सकते हैं और अपने स्वास्थ्य के स्तर को उच्च बना सकते हैं।

(vi) बालकों को सन्तुलित आहार, शुद्ध जल, वायु, प्रकाश एवं व्यायाम सम्बन्धी नियमों का ज्ञान कराएँ।

(vii) विद्यार्थियों को दुर्घटनाओं एवं विभिन्न बीमारियों के कारण एवं उनसे बचने के विषय में बताएँ।

(viii) अध्यापकों का कर्तव्य है कि वे उन दोषों से विद्यालय स्वास्थ्य केन्द्र के चिकित्सक को अवगत कराएँ जिनके लक्षण बालकों में विकसित होने की सम्भावना है।

(ix) जो विद्यार्थी सुस्त, स्फूर्ति से वंचित, उदासीन रहते हैं, जो खेलकूद या व्यायाम में भाग लेने से जी चुराते हैं, उनके अभिभावकों से मिलकर समस्या की जानकारी देनी चाहिए। 


बच्चों के नैतिक विकास में माता-पिता की भूमिका (Role of Parent in Moral Development of Children)- 

बालकों की सक्रिय भूमिका रहती है, जिसे इस प्रकार समझा जा सकता है:-

(1) नैतिक विकास घर-परिवार से ही आरम्भ होता है। बालक के माता-पिता स्वयं नैतिक रूप से संस्कारित होंगे, तो उसका प्रभाव निश्चित रूप से पारिवारिक वातावरण पर पड़ेगा। ऐसे वातावरण में बच्चों का नैतिक विकास उत्तम ही होगा।

(ii) बच्चों की मूल प्रवृत्तियों का समाजीकरण गृह में रहकर ही होता है। माता-पिता से बालक को स्नेह, दया, सहयोग, सहानुभूति, ममता, त्याग, बलिदान आदि की सीख प्राप्त होती है।

(iii) जीवन की सरलता, सहजता और समग्रता का पाठ माता-पिता को ही पाना होता है। अपने बच्चों को उचित-अनुचित में अन्तर करना, न्याय-अन्याय को समझा आदि की शिक्षा माता-पिता दे सकते हैं। 

(iv) माता-पिता का सौहार्दमय व्यवहार बच्चों के नैतिक विकास का प्रेरक होता है। कटोर व्यवहार बच्चों के नैतिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। 

(v) बच्चों के नैतिक विकास में मित्र और साथियों का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। बच्चों की नैतिक अभिवृत्तियाँ, आस्थाएँ, रुचियाँ, मनोभाव, आदत व चरित्र पर मित्र और संगी-साथियों का प्रबल प्रभाव पड़ता है। सचेत और सतर्क माता-पिता साथियों के दबाव (Peer pressure) से अपने बच्चों को सुरक्षित रखते हैं।

(vi) माता-पिता बालक को अपने जीवन में नैतिक मूल्यों का पालन करना सिखाते हैं, तो वह अपने किसी भी कृत्य से डरता नहीं है क्योंकि वह जानता है कि उसका कृत्य नियमों के विरुद्ध नहीं है। अतः वह किसी भी समस्या पर स्वतन्त्रतापूर्वक अपने विचार रख सकता है। 

(vii) माता-पिता जिस धर्म में आस्था रखते हैं, उसका बालक के नैतिक विकास पर प्रभाव पड़ता है, जो स्थायी होता है।

(viii) खाली समय में बालक किस प्रकार अपना समय व्यतीत करता है, इस पर भी उसका नैतिक व्यवहार निर्धारित होता है। बालक को पढ़ने के लिए अच्छा साहित्य, खेलने के लिए रचनात्मक उपकरण और सामग्री, मनोरंजन के लिए उचित साधन उपलब्ध कराके माता-पिता बच्चों के नैतिक विकास में अपनी सफल भूमिका निभा सकते हैं। 


बच्चों के नैतिक विकास में अध्यापकों की भूमिका (Role of Teachers in Moral Development of Children)- 

बालक के नैतिक विकास के लिए अध्यापकों से बहुत सी अपेक्षाएँ होती हैं। बालक के लिए उसका अध्यापक आदर्श होता है, अत: बालक के नैतिक विकास में अध्यापकों की भूमिका निम्नवत् आँको जाती है

(i) बालक अपने अध्यापक का अनुकरण और अनुसरण करता है। अपने विद्यार्थियों की उपस्थिति में अध्यापक जैसा आचरण करता है, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में विद्यार्थी उसे आत्मसात् करता है। 

(ii) अध्यापकों को अपने विद्यार्थियों के सामने नैतिक आदर्शों को प्रस्तुत करने चाहिए और उन्हें प्राप्त करने के तरीके बताने चाहिए।

(iii) अध्यापक को चाहिए कि बालकों में सत्य, अहिंसा, सहयोग, ईमानदारी, आज्ञाकारिता, न्याय और समाज सेवा जैसे मनोभावों, आदतों तथा नैतिक अभिवृत्तियों को विकसित करने के लिए सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय उत्सवों का समयानुसार आयोजन करें।

(iv) बालक की मूल प्रवृत्तियों का दमन न करके, मूल प्रवृत्तियों का मार्गान्तरीकरण और शोधन करके, उनके व्यवहार को समाज के अनुकूलन बनाना चाहिए। 

(v) बालक के संवेगात्मक विकास का अध्ययन करके उनका उचित मार्ग निर्देशन करना चाहिए। 

(vi) विद्यार्थियों को नैतिकता की शिक्षा नियमित रूप से देनी चाहिए। बालकों को अच्छे गुणों और कार्यों का अनुकरण करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए तथा आत्म-निर्देश की क्षमता जागृत करनी चाहिए।

(vii) अध्यापक बालकों में बहुमुखी क्षमता का विकास करके उन्हें नैतिकता की ओर उन्मुख कर सकता है। इसके लिए मूर्त और अमूर्त पुरस्कारों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

(viii) बच्चों के सामने महान लोगों के उदाहरण प्रस्तुत करने चाहिए। महापुरुषों की जीवनियाँ पढ़ने के लिए विद्यार्थी को प्रेरित करना चाहिए।

(ix) नैतिक समस्याओं पर परिचर्चा आयोजित करना लाभप्रद होता है।

(x) बच्चों के नैतिक विकास के लिए सामूहिक प्रार्थना, प्रातःकालीन वंदना, उदात्त चरित्रवान लोगों की बातें और वर्तमान में कार्यरत विद्वानों की वार्ताएँ नैतिक विकास में सहायक होती है।

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