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समाजवादी नारीवाद - वर्ग, लिंग तथा विभाजन (Socialist Feminism—Class, Gender and Division)

समाजवादी नारीवाद - वर्ग, लिंग तथा विभाजन (Socialist Feminism—Class, Gender and Division)

मुख्य बिन्दु (MAIN POINTS)

1. विषय प्रवेश

2. समाजवादी नारीवाद, वर्ग, लिंग तथा विभाजन

3. निष्कर्ष


1. विषय-प्रवेश (INTRODUCTION)

स्त्रियों के साथ बालपन से ही भेदभाव किया जाता है जिसके कारण उनका विकास समुचित रूप से नहीं हो पाता है। स्त्रियों के समाज में वे जिस स्थान सम्मान और अधिकार की हकदार है वह नहीं मिल पाता है। इसके लिए उन्हें लम्बा संघर्ष करना पड़ रहा है और आज भी उनके अधिकारों के लिए संघर्ष हो रहा है। हमारी सामाजिक संरचना में स्त्रियों हमेशा हाशिये पर रही हैं। वैदिक काल से ही स्त्रियों को राजनैतिक तथा आर्थिक अधिकार प्राप्त नहीं थे पर उनकी स्थिति आज के सापेक्ष अच्छी थी। धीरे-धीरे स्त्रियों की स्थिति में पतन होता गया और उनके अधिकारों का परिसीमन भी होता गया, परन्तु स्त्रियों की स्थिति दयनीय करके और उनके अधिकारों से वंचित करके कोई भी राष्ट्र सभ्य बनने के स्वप्न को पूर्ण नहीं कर सकता है। अतः स्त्रियों की स्थिति में उन्नयन के लिए निरन्तर प्रयास किये जाते रहे हैं।


2. समाजवादी नारीवाद: वर्ग, लिंग तथा विभाजन (SOCIALIST FEMINISM : CLASS, GENDER AND DIVISION) 

समाज में स्त्री और पुरुष दोनों के समेकित प्रयासों से ही सामाजिक व्यवस्था और सृष्टि सुचारु रूप से चल रही है। बिना स्त्री और बिना पुरुष के समाज की परिकल्पना नहीं की जा सकती है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ये दोनों परस्पर पूरक है, फिर भी इन्हें विपरीत मानकर क्यों लिंगीय भेदभाव किये जाते हैं, यह समझने का सबका अपना-अपना दृष्टिकोण है। कोई समाज कोई संस्कृति, सुरक्षा आर्थिक कारणों इत्यादि से पुत्र की चाह करते हैं और पुत्री को अनचाहा मानकर उसके साथ भेदभाव करते हैं। लिंगीय भेदभावों की जड़ें इतनी गहरी है कि इसकी पहचान करना और समझना भी दुष्कर हो जाता है। अतः लिंगीय भेदभावों को समाप्त करने से पूर्व इसके प्रति जागरूकता लाने की आवश्यकता है। समाज का प्रत्येक वर्ग और व्यक्ति जब तक लिंगीय भेदभावो की समाप्ति के लिए दृढ़ संकल्पित नहीं होगा तब तक बालक-बालिका के मध्य भेद विद्यमान ही रहेगा।

बाल-विवाह, विधवा पुनर्विवाह निषेध, दहेज, कन्या भ्रूण हत्या कन्या शिशु हत्या अन्तिम संस्कार बालकों द्वारा ही सम्पन्न किया जाना, पैतृक सम्पत्ति में अधिकार न प्राप्त होना, पुत्र उत्पन्न करने के लिए दबाव समानता और स्वतन्त्रता आदि के अधिकारों से वंचित होना इत्यादि हमारे समाज में व्याप्त है। बालिकाओं के रहन-सहन, खान-पान, शिक्षा, सामाजिक वातावरण से अन्त क्रिया के अवसर तथा धार्मिक आयोजनो इत्यादि में दोहरा व्यवहार किया जाता है। समाजवादी नारीवादियों का मुख्य ध्येय नारियों को समाज की मुख्य धारा में लाना है जो निम्न कार्यों के द्वारा ही सम्भव हो सकेगा


1. सामाजिक कुरीतियों, जैसे बाल-विवाह, पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा कन्या भ्रूण हत्या तथा कन्या शिशु हत्या के विरुद्ध जागरूकता उत्पन्न करना। 

2. सामाजिक कुरीतियों के बंधनों को तोड़ने के लिए नारियों के आगे करना जैसे आजकल अन्तिम संस्कार पुत्र ही करेगा, इस कुरीति को समाप्त करने के लिए पुत्रियों को आगे किया जा रहा है, दहेज मुक्त परिवार गाँव और समाज बनाने पर बल दिया जा रहा है. बाल-विवाह के खिलाफ आज बालिकायें आवाज उठाकर अपने लिए पढ़ने के अधिकार को माँग रही हैं।

3. नारियों को मुख्य धारा में लाने के लिए उन्हें जागरूक किया जा रहा है। 

4. नारियों को और समाज के अन्य व्यक्तियों की शिक्षा पर बल दिया जा रहा है।

5. अनपढ़ लोगों को भी सरल शब्दों में समझाकर स्त्रियों की स्थिति में भागीदार बनाया जाना।

6. सरकार और प्रशासन के ऊपर यह दबाव बनाना कि जो नियम तथा कानून बनाये गये हैं, नारियों के हितों की रक्षा के लिए उनका सख्ती से पालन हो सके तथा आवश्यकतानुरूप नये नियमों और कानूनों को लागू करना।

7. नारियों को सामाजिक क्रियाकलापों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना। 8. अनिवार्य और सार्वभौमिक शिक्षा के संकल्प को पूर्ण करना।

9. पृथक् विद्यालयों तथा व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की व्यवस्था करना। 

10. नारियों को आर्थिक अधिकार प्रदान करना।


इस प्रकार समाजवादी नारीवाद नारियों की स्थिति में ह्रास के तत्वों को सामाजिक परम्पराओं. कुरीतियों तथा लम्बे समय से चली आ रही परम्पराओं में निहित मानते हैं। यह सत्य भी है कि आज हमारे संविधान ने स्त्रियों की स्वतन्त्रता के लिए भले ही कितने ही प्रावधान क्यों न कर दिये हों,परन्तु समाज यदि जागरूक नहीं है तो ये प्रावधान उतने प्रभावी नहीं होंगे जितना कि इन्हें होना चाहिए। संविधान, सरकार, शासन और प्रशासन समाज के लिए है और यहाँ कार्य करने वाले व्यक्ति भी समाज से ही जाते हैं। यदि समाज में कुरीतियाँ और अन्धविश्वास समाया रहेगा तो उस समाज के लोगों की सोच में भी उसका प्रतिबिम्ब कहीं-न-कहीं रहेगा और इन्हीं में से कुछ चुनिन्दा लोग जो शासन और सरकार में जायेंगे, वे निष्पक्ष होकर नारियों के हितों के लिए कार्य नहीं कर पायेंगे, जिसके परिणामस्वरूप नारियों की उन्नति नहीं हो सकेगी और न ही समाज और राष्ट्र की उन्नति होगी। अतएव समाज में परिवर्तन लाना होगा और यह परिवर्तन सहसा न होकर धीरे-धीरे होगा। इसके लिए अत्यधिक प्रयास की आवश्यकता होगी। गाँव तथा शहर शिक्षित और अशिक्षित, स्त्री और पुरुष, अमीर और गरीब के मध्य का भेद मिटाकर जागरूकता लानी होगी।


वर्ग (CLASS)


प्राचीनकालीन सामाजिक व्यवस्था के कुछ आधार स्तम्भ निम्न प्रकार थे

1. चतुर्वणाश्रम व्यवस्था, 

2. पुरुषार्थ चतुष्ट्य


चतुर्वर्णाश्रम व्यवस्था में चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद में विभाजन कर ऋग्वेद के अनुसार इन चारों वर्णों की उत्पत्ति क्रमशः परमपुरुष के मुख, भुजाओं, जंघा तथा पैरों से मानी गयी और चारों वर्गों के लिए कार्य विभाजन क्रमशः अध्ययन-अध्यापन, रक्षा, व्यापार, सेवा तथा कृषि के रूप में किया गया। वर्णाश्रम व्यवस्था जाति व्यवस्था से पूर्णतया भिन्न थी क्योंकि इसमें कर्म के अनुसार परिवर्तन हो सकता था। इस प्रकार वर्णाश्रम व्यवस्था जटिल न होकर सरल और गतिशील समाज की परिचायक थी। उत्तर वैदिक काल तक आते-आते वर्णाश्रम व्यवस्था में जटिलता आने लगी जो कालान्तर में रूढ़ और जन्मना होकर 'जाति' (Caste) के रूप में परिवर्तित हो गयी।


वर्तमान युग में वैज्ञानिक आविष्कारों ने संचार और सूचना सम्प्रेषण के क्षेत्र में क्रान्ति ला दी जिसके परिणामस्वरूप 'भूमण्डलीकरण' (Globlisation) तथा 'उदारीकरण' (Liberalisation) जैसी प्रवृत्तियाँ आ गयी हैं जिसने एक भौतिकतावादी प्रवृत्ति को जन्म दिया है और इस प्रवृत्ति ने बाजारीकरण और आधुनिकीकरण की गति को बढ़ाया है जिसके परिणामस्वरूप समाज में व्यापक परिवर्तन आये हैं। हमारी सामाजिक संरचना में अमूल परिवर्तन आया है। अब जाति की रूढ़ियाँ धीरे धीरे टूट रही है और इसके स्थान पर वर्गों का उदय हो रहा है। वर्ग की संकल्पना आज की नहीं है, पहले भी बुर्जवा वर्ग, सर्वहारा वर्ग इत्यादि थे, परन्तु आज वर्ग अत्यधिक प्रचलन में है। 

वर्ग (Class) से तात्पर्य ऐसी सामाजिक संरचना की व्यवस्था से है जो लोगों की साम्यता को प्रदर्शित करती है। आज वर्ग के आधार निम्नांकित है—

1. आर्थिक आधार

2. व्यापार या कार्य सम्बन्धी आधार 

3. आयु के आधार पर

4.. शिक्षा के आधार पर


1. आर्थिक आधार आर्थिक आधार पर वर्ग के अन्तर्गत ऐसे व्यक्तियों का वर्ग आता है जिनकी आर्थिक स्थिति में सामंजस्य होता है।

2. व्यापार या कार्य सम्बन्धी आधार-व्यापारियों तथा अन्य प्रकार के संगठित और असंगठित क्षेत्र वर्ग के आधार पर विभाजन है। 

3. आयु के आधार पर आयु के आधार पर जैसे बच्चों, बड़ों तथा बूढ़ों के पृथक-पृथक वर्ग होते हैं।

4. शिक्षा के आधार पर शिक्षा के आधार पर वर्गों को देखा जा सकता है, जैसे अशिक्षित, कम पढ़े-लिखे तथा शिक्षित व्यक्तियों के वर्ग पृथक-पृथक होते हैं।


वर्ग के कार्य तथा महत्व निम्न प्रकार है

1. वर्ग के कारण आज जातीय भेदभावों में कमी आ रही है।

2 समान व्यापार, कार्य, आयु तथा शिक्षा प्राप्त व्यक्ति अपने-अपने वर्गों द्वारा सूचनायें और विचारों का आदान-प्रदान कर रहे हैं। 

3. संगठित होने की प्रवृत्ति का विकास।

4. एक वर्ग के व्यक्ति संगठित रूप से आज सामाजिक सरोकारों के प्रति भी गम्भीरतापूर्वक कार्य कर रहे हैं। 

5. वर्गों के द्वारा सामाजिक तथा आर्थिक गतिशीलता आती है।

6. वर्ग के द्वारा विविध वर्गों के लोग संगठित होकर अपनी समस्याओं का समाधान करते है।


दोष वर्ग के कुछ दोष भी है

1. अनावश्यक रूप से सरकार पर दबाव अपनी माँग पूरी कराने के लिए। 

2. वर्ग के कारण सामाजिक एकता को चोट पहुँची है।

3. वर्गों के कारण व्यक्ति के मध्य खाई बढ़ी है जो राष्ट्र की एकता में बाधक है।

4. वर्गों के कारण प्रत्येक कार्य में अनावश्यक दखलन्दाजी व्यापक रूप से हड़ताल इत्यादि बुलाकर अर्थव्यवस्था को क्षति पहुॅचाई जा रही है।


लिंग तथा विभाजन (GENDER AND DIVISION)

पूर्व के अध्यायों में लिंग पर विस्तृत चर्चा प्रस्तुत की जा चुकी है। लिंग और इसके विभाजन का कार्य स्वैच्छिक रूप से न तो कोई स्त्री और न ही कोई पुरुष कर सकता है। हाँ, इतना अवश्य है कि आज विज्ञान तकनीकी के बढ़ते कदमों के द्वारा लिंग परिवर्तन करवाया जाना सम्भव हो चुका है, जैसे कोई लड़का लड़की का लिंग और लड़की लड़के के लिंग के रूप में अपने लिंग का परिवर्तन करा सकता है। लिंग विभाजन के आधार निम्न प्रकार है


1. प्राकृतिक या जैविक, 

2. कृत्रिम 


1. प्राकृतिक या जैविक प्राकृतिक या जैविक आधार लिंग का अधिक महत्वपूर्ण होता है जिसमे आनुवंशिकता का महत्वपूर्ण योगदान होता है। प्राकृतिक या जैविक आधार पर लिंग दो प्रकार के होते हैं-(i) बालक और (ii) बालिका।


बालक तथा बालिका के मिश्रित गुणों से युक्त लिंगी को तृतीय लिंग के रूप में मान्यता प्रदान की गयी है। इसे ट्रांस जेण्डर नाम प्रदान किया गया है। लिग के निर्धारण में मनुष्य की स्वैच्छिकता का योगदान न होकर अनैच्छिक क्रिया का योगदान होता है। स्त्री तथा पुरुष दोनों में 23-23 गुणसूत्र होते हैं, जिनमें उनके माता-पिता इत्यादि के आनुवंशिक गुण होते हैं। स्त्री में गुण XX तथा पुरुष में XY गुणसूत्र होते हैं। स्त्री-पुरुष के XX गुणों के मिलने से बालिका और स्त्री-पुरुष के XY गुणसूत्रों के मिलने से बालक के लिंग का निर्धारण होता है। प्राकृतिक रूप से लिंग में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाले गुणों में जो अधिक प्रभावी होते हैं, हस्तान्तरित होते हैं।


2. कृत्रिम — कृत्रिम रूप से आज विज्ञान की प्रगति के कारण लिंग परिवर्तन कराना सम्भव हो गया है, जैसे कोई स्त्री अपने शारीरिक अंगों में परिवर्तन कराकर पुरुष और कोई पुरुष कराकर स्त्री के लिंग को कृत्रिम रूप से धारण कर सकता है। परिवर्तन लिंग की अवधारणा में स्त्री तथा पुरुष दोनों ही लिंगों का अत्यधिक महत्व रहा है, परन्तु कुछ कारणों से आज बालिकाओं को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है, जिसके कारण इस लिंग की निरन्तर अवहेलना की जा रही है। इस अवहेलना और उपेक्षा के कारण लिंगानुपात में निरन्तर कमी आ रही है, जिसके कारण लिंगीय असन्तुलन हो रहा है।


निष्कर्ष (CONCLUSION)

इस प्रकार निष्कर्ष रूपेण यह कहा जा सकता है कि समाज की प्रकृति गतिशील है। इसी कारण हमारी सामाजिक धाराओं में भी एक प्रकार का बहाव है, परन्तु इस बहाव में अवांछित तत्व भी आ जाते हैं जिनकी समाप्ति के लिए समाज से कोई आगे बढ़कर आता है और इन अवांछित तत्वों के खिलाफ आवाज उठाता है। समाजवादी नारीवादियों ने भी नारियों के अधिकारों के लिए आवाज उठायी। समाज में नित्यप्रति सूक्ष्म गति से परिवर्तन आ रहा है। आज हमारे समाज में जाति की रूढिबद्ध व्यवस्था के स्थान पर धीरे-धीरे वर्ग आ रहे हैं जिन्होंने सामाजिक व्यवस्था को एक नये प्रकार की ही गति प्रदान की है तथा लिंगीय विभाजन के आधार भी आज तकनीकी युग में जैविक से कृत्रिम रूप में व्यापक हो गये हैं जो सामाजिक व्यवस्था के समक्ष नई चुनौतियाँ तथा नये आयाम उपस्थित कर रहे हैं।

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