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लैंगिकता हेतु शिक्षा तथा जाति की भूमिका ROLE OF EDUCATION AND CASTE FOR GENDER

लैंगिकता हेतु शिक्षा तथा जाति की भूमिका (ROLE OF EDUCATION AND CASTE FOR GENDER)


जाति सामाजिक स्तरीकरण तथा सामाजिक नियन्त्रण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। अतः जाति स्त्रियों की दीन-हीन दशा को सुधारने, उनके प्रति होने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहार को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकती है। जाति का सम्प्रत्यय भारत में स्थायी है अतः संविधान ने अपने प्रावधानों के द्वारा जाति के आधार पर किये जाने वाले किसी भी भेदभाव का निषेध किया है। निम्न तथा पिछड़ी जातियों की स्थिति तो और भी चिन्ताजनक है, उन्हें आये दिन अपमानजनक शब्दों, व्यवहारों, टिप्पणियों तथा भेदभावपूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ता है, जिससे उनकी स्थिति दिनोंदिन और भी बुरी होती जा रही है। लैंगिक भेदभावों के सन्दर्भ में जाति की भूमिका का आकलन निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत दृष्टव्य है:-


1. लैंगिक भेदभावों को समाप्त करने के लिए प्रत्येक जाति को चाहिए कि स्त्रियों में आत्मविश्वास भरे और प्रत्येक क्षेत्र में आगे आने हेतु प्रेरित करे। 

2. जातिगत आरक्षणों का लाभ महिलाओं तक पहुँचाया जाये जिससे उनकी स्थिति के सुधार हो सके।

3. बालिका शिक्षा तथा बालिकाओं के प्रति सकारात्मक सोच का विकास। 

4. सुरक्षात्मक वातावरण प्रदान करना बालिकाओं को।

5. महिलाओं का आदर करना केवल अपनी ही जाति की नहीं अपितु सभी जातियों की। 

6. कन्या भ्रूणहत्या, दहेज, बाल-विवाह, डायन-बिसाही इत्यादि महिलाओं से जुड़ी कुरीतियों, जिससे उनकी प्रतिष्ठा को आघात पहुँचता है, का निरोध करना।

7. महिलाओं को व्यापार तथा रोजगार और श्रम में सहभागी बनाकर उनको पुरुषों के समकक्ष लाना। 

8. महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त करने हेतु महिला स्वयं समूहों का निर्माण।

9. संगठित होकर महिलाओं की उन्नति के लिए व्यापक योजनाओं तथा उनको धरातल पर उतारने की मांग करना।

10. महिलाओं से सम्बन्धित सरकारी तथा निजी स्तर पर चलायी जाने वाले योजनाओं में यथासम्भव सहायता देना।

11. महिलाओं की स्थिति से सम्बन्धित सर्वेक्षणों में समुचित जानकारी प्रदान करना। 

12. बालको तथा पुरुषों में महिलाओं के प्रति समुचित दृष्टिकोण तथा अभिवृत्ति का निर्माण करना।

13. प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम को सफल बनाने में योगदान देना।

14. जाति विशेष अपनी व्यवस्था में व्याप्त रूढ़िवादी तथा महिलाओं को ठेस पहुँचाने वाली परम्पराओं का त्याग कर लैंगिक भेदभावों को कम कर सकती है।

15. महिलाओं को उनके पिछड़ेपन की मनोवैज्ञानिक स्थिति से बाहर निकालने के लिए अग्रणी महिलाओं के विषय में बताना तथा मुख्य धारा में लाने हेतु प्रयास करना। 

16. महिलाये इसलिए भी पीछे रह जाती है क्योंकि उन्हें पारिवारिक दायित्व और चूल्हा-चौका सँभालना होता है। ऐसी स्थिति में कुछ जातियों में महिलाओं को घर में सजावट के सामान की भाँति स्थापित कर दिया जाता है और उनकी प्रतिभा तथा ज्ञान का समुचित उपयोग नहीं हो पाने से वे पिछड़ जाती है, अतः पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति में महिलाओं को पारिवारिक सदस्यों द्वारा सहयोग दिये जाने का आह्वान करना चाहिए।

17. बन्द जातियों में खुली स्तरीकरण की अपेक्षा अन्धविश्वास, रूढ़ियाँ तथा स्त्रियों पर अधिक पाबन्दी होती है जिसके कारण इस जाति विशेष की स्त्रियाँ पुरुषों से कहीं पीछे रह जाती हैं, अतः सामाजिक गतिशीलता को अपनाना चाहिए।

18. प्रत्येक व्यक्ति को जाति को एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखना चाहिए न कि ऊँच-नीच के रूप में तथा स्त्रियों के प्रति विशेष ध्यान और संरक्षण का भाव रखना चाहिए।

19 सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक दायित्वों और इनके संरक्षण में स्त्रियों की भूमिका महत्वपूर्ण है। अतः स्त्रियों को आगे बढ़ने हेतु यथासम्भव मदद देना 20. महिलाओं को दी जाने वाली विशेष सुविधाओं के विषय में जानकारी प्राप्त करना तथा उससे लाभ उठाना।

21. महिलाओं को पुरुषों के समान ही संवैधानिक अधिकार प्राप्त है. अतः उनके प्रति किसी भी प्रकार का भेदभाव असंवैधानिक है, इस बात को प्रसारित करना । 22. सभायें, मेलों, नुक्कड़ नाटको, कठपुतली नृत्य तथा गीतों इत्यादि के द्वारा महिलाओं की समानता हेतु प्रयास करना।

23. उत्साही महिलाओं, बालिकाओं तथा युवकों को संगठित कर महिला उत्थान और समानता हेतु कार्य कराना।

24. जातिगत आँकड़े देश में जारी किये जा चुके हैं, अतः प्रत्येक जाति को अपनी तथा राष्ट्रीय उन्नति हेतु महिलाओं की समानता, स्वतन्त्रता तथा न्याय के सिद्धान्त का पालन करना आवश्यक होगा।

25. विद्यालयों की स्थापना कर विभिन्न जातियों को शिक्षा तथा विशेषतः स्त्रियों की शिक्षा की स्थापना का प्रयास करना चाहिए।

26 जातियों को चाहिए कि वे प्रौढ़ शिक्षा तथा बालिकाओं की शिक्षा के लिए रात्रि पाठशालाओ का संचालन कराये।

27. परस्पर जातियों से वार्ता तथा सहयोग की स्थापना कर लैंगिक भेदभावों को समाप्त करने के प्रयास करना। 28. सरकार तथा प्रशासन पर लैंगिक भेदभावों की समाप्ति हेतु दबाव डालना।


जाति को लैंगिकता की शिक्षा का प्रभावी उपकरण बनाने हेतु सुझाव

जाति को लैंगिक विभेदों की समाप्ति करने में प्रभावी अभिकरण बनाया जा सकता है, क्योंकि जाति के नियमों द्वारा ही उस जाति विशेष के व्यक्ति संचालित होते हैं। यदि जातिगत नियमों, आदर्शो परम्पराओं और प्रथाओं में स्त्रियों को महत्व दिया जाने लगे तो वे पुरुषों के समानान्तर स्थिति में आ जायेगी। इस हेतु कुछ सुझाव निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं

1. समानता

2. न्याय

3. स्वतन्त्रता

4. कर्म की महत्ता

5. कुप्रथाओं का अन्त

6. स्त्रियों के महत्व से परिचय

7. जातिगत उन्नति

8. सामाजिक सुव्यवस्था

9. जातिगत रीति-रिवाज तथा स्त्रियाँ

10. आर्थिक उन्नति

11. शिक्षा एवं जागरूकता का प्रसार


इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है

1. समानता–संविधान ने जब प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो या पुरुष समानता का अधिकार प्रदान किया है तो फिर किस आधार पर स्त्रियों से इतने वर्षों से भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता रहा है और पुरुषों की अपेक्षा उन्हें हीन समझा जाता है। यदि ऐसा ही होता रहा तो जातियों को यह समझना होगा कि जब उनके साथ अत्याचार हुए और उनके अधिकारों का हनन किया गया तो उसका दुष्परिणाम सम्पूर्ण मानवता को भोगना पड़ा। अतः स्त्रियों को सिर्फ इसलिए दबाना और अधिकारविहीन कर देना कि वे स्त्रियाँ हैं, उचित नहीं है। अतः प्रत्येक जाति को यह संकल्प होना चाहिए कि स्त्री-पुरुष दोनों को ही समानता का अधिकार है। इससे स्त्रियों की स्थिति में सुधार आयेगा। आज भी जिन जातियों में लिंगीय भेदभाव न होकर समानता का भाव है वे अधिक उन्नतिशील तथा गत्यात्मक है।


2. न्याय स्त्रियों को निरन्तर शोषित किया जाता है और यदि वे शोषण के विरुद्ध आवाज उठाती हैं तो प्रतिष्ठा तथा मान का झूठा दिखावा कर उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है। ऐसी कम ही जातियाँ है जहाँ स्त्रियों और पुरुषों दोनों को समान न्याय प्राप्त हो। इसी हेतु भारतीय संविधान स्त्रियों तथा पुरुषों दोनों के लिए समान न्याय की व्यवस्था करता है। अतः अपने को अग्र श्रेणी और सभ्य समझने वाली जातियों को स्त्री-पुरुष हेतु समान न्याय की प्रणाली को अंगीकार करना चाहिए. जिससे स्त्रियों की स्थिति में सुधार हो सके।


3. स्वतन्त्रता आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक आदि क्षेत्रों की कई प्रकार की स्वतन्त्रताये स्त्रियों को पुरुषों की ही भाँति प्राप्त है, परन्तु व्यवहार में कुछ जातियों में ऐसे नियम है कि जहाँ स्त्रियों स्वेच्छा से जीवनसाथी चुन ले तो झूठी मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा के लिए उनकी हत्या कर दी जाती है। आज भी स्त्रियों को पैतृक सम्पत्ति में उनका भाग देना तथा माँगना उचित नहीं समझा जाता, अभिव्यक्ति कहीं आने-जाने इत्यादि, स्वतन्त्रताओं का उपभोग भी स्त्रियाँ अपनी इच्छा से नहीं कर पाती है, जिससे वे दब्बू बनकर रह जाती है, अतः प्रत्येक जाति को यह पहल करनी होगी कि वह स्त्रियों को संविधान द्वारा प्राप्त स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करें।


4. कर्म की महत्ता स्त्री तथा पुरुष में से किसी की श्रेष्ठता इस बात पर निर्भर न होकर उसकी श्रेष्ठता और योग्यता का मापक उसके कर्म होने चाहिए। कर्म की महत्ता के द्वारा स्त्रियों को घर तथा बाहर के कार्यों में भी पुरुष तथा समाज के समक्ष अपनी प्रतिभा और कौशल दिखाने का अवसर प्राप्त होगा, जिससे उनकी स्थिति में सुधार आयेगा जनजातियों भले ही कुछ मामलों में पिछड़ी हो, परन्तु वहाँ स्त्री तथा पुरुष दोनों की कर्म व श्रम में समान सहभागिता है, अतः वहाँ स्त्रियों में असुरक्षा और असमानता का भाव न्यून है।


5. कुप्रथाओं का अन्त प्रत्येक जाति की अपनी प्रथायें और परम्परायें होती हैं जो कुछ समय पश्चात् रूदियों का रूप धारण कर लेती है। स्त्रियों की स्थिति निम्न समझकर उन पर ही इस कुप्रथाओं के बोझ को लाद दिया जाता है, जैसे विदेशी आक्रमणकारियों इत्यादि के सम्पर्क में आने पर स्त्रियों की स्थिति गिरी और बाल विवाह, सती प्रथा, पर्दा-प्रथा तथा दहेज प्रथा का प्रचलन बढ़ने लगा। इन कुप्रथाओं के कारण भी स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा हीन समझा जाता है। अतः समय-समय पर जाति में व्याप्त कुप्रथाओं को समाप्त कर स्वस्थ परम्पराओं के निर्माण द्वारा स्त्रियों को समुचित स्थान प्रदान कर सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि की जानी चाहिए।


6. स्त्रियों के महत्व से परिचय प्रत्येक जाति को अपने इतिहास को देखकर उस जाति की उन्नति जिसमें सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक इत्यादि सम्मिलित है, देखना चाहिए तथा अपनी भावी पीढ़ियों को उनके योगदान और मानवता की रक्षा, परोपकार, दया, मातृत्व, स्नेह इत्यादि सहनीय दायित्वों से अवगत कराकर उनकी सक्रिय सहभागिता को दर्शाना चाहिए। यह बात सत्य है और इतिहास साक्षी है कि जिन जातियों ने स्त्रियों को यथोचित स्थान तथा सम्मान प्रदान किया, वे उन्नति के शिखर तक पहुंची और जिन्होंने स्त्रियों को उपेक्षित किया, वे अन्ततः उपेक्षा की स्वय ही शिकार हो गयीं।


7. जातिगत उन्नति स्त्रियों को दबाकर भले ही कोई जाति स्वयं को श्रेष्ठ तथा पौरुष सम्पन्न माने, परन्तु अधिक दिनों तक यह कार्य नहीं चलता है, क्योंकि स्त्रियाँ यदि सही अवस्था तथा समुचित मनोदशा में नहीं है तो न वे योग्य सन्ताने उत्पन्न कर सकेंगी और न ही उनकेभरण-पोषण के उत्तरदायित्वों को भली प्रकार निर्वहन कर सकेंगी। अत जातिगत उन्नति के कार्य हेतु भी स्त्रियों को समुचित स्थान तथा सम्मान प्रदान किया जाना चाहिए।


8. सामाजिक सुव्यवस्था इस बात की कल्पना तथा उसके दुष्परिणामों की भी कल्पना सरल रूप से की जा सकती है कि यदि स्त्रियों न हो तो समाज का क्या होगा, स्वयं को श्रेष्ठ कहने वाले व्यक्तियों और जातियों का क्या होगा, सृष्टि का क्या होगा ? निश्चय ही स्त्रियाँ नहीं होगी तो सामाजिक व्यवस्था और उसका ताना-बाना निष्फल हो जायेगा। जाति तथा पुरुष का अस्तित्व ही न सम्पूर्ण सृष्टि का अस्तित्व दोलायमान हो जायेगा। अतः सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रखने के लिए जातिगत प्रयासों के द्वारा स्त्रियों की स्थिति उन्नत करने हेतु प्रयास करने होंगे।


9. जातिगत रीति-रिवाज तथा स्त्रियाँ प्रत्येक जाति की अपनी प्रथायें, रीति-रिवाज तथा परम्परायें होती हैं। स्त्रियों को मजबूत स्थिति प्रदान करने के लिए इन रीति-रिवाज तथा नियमों को परिष्कृत करने की आवश्यकता है। जिन जातियों में पुरुषों की ही प्रधानता है, उन कार्यों में उनको भी चाहिए कि स्त्रियों को आगे करें, जिससे न कि स्त्रियाँ ही उन्नति करेंगी, अपितु वह जाति भी उन्नति करेगी। जातिगत आँकड़ों तथा स्त्रियों की स्थिति में घनिष्ठ सम्बन्ध है। जिन जातियों की उपेक्षा होती आ रही है, वर्षों से उन जाति की स्त्रियों की दशा और भी दीन-हीन है। इस प्रकार जातिगत रीति-रिवाजों में स्त्रियों को प्रमुखता देकर उनकी स्थिति में सुधार किया जा सकता है।


10. आर्थिक उन्नति कुछ जातियों में श्रम के प्रति समुचित दृष्टिकोण का अभाव है तथा स्त्रियों को घर से बाहर कार्य करने तथा श्रम में सहयोग देने के कार्य को हेय दृष्टि से देखा जाता है। इससे स्त्रियों पुरुषों की अपेक्षा आर्थिक अनुत्पादकता की प्रतीक बन जाती है और उनकी स्थिति कमजोर हो जाती है। अतः स्त्रियों की स्थिति में सुधार करने के लिए आर्थिक जीवन में उनकी सहभागिता सुनिश्चित कराना अत्यधिक महत्वपूर्ण कार्य है। उससे स्त्री ही नहीं, जाति, समुदाय और देश का भी हित होगा।


11. शिक्षा एवं जागरूकता का प्रसार जातियों को चाहिए कि वे स्त्री शिक्षा तथा जनसामान्य में शिक्षा और जागरूकता के प्रसार के लिए संगठित होकर व्यक्तिगत प्रयासों को बढ़ावा दें। प्रत्येक जाति के लोग मूर्त तथा अमूर्त रूप से परस्पर जुड़े होते हैं। अतः उन्हें संकल्प लेना चाहिए कि वे अपनी जाति के उत्थान के लिए स्त्रियों की दशा में सुधार लायें, जिसके लिए सरकारें तो कार्य कर ही रही है, परन्तु वे छोटे-छोटे व्यक्तिगत प्रयासों के द्वारा शिक्षा तथा जागरूकता लाकर स्त्रियों की समानता हेतु कार्य करेंगे।

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