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किशोरावस्था में शारीरिक परिवर्तन और उनका मनोवैज्ञानिक महत्व PHYSICAL CHANGES AND THEIR PSYCHOLOGICAL SIGNIFICANCE IN ADOLESCENCE

किशोरावस्था में शारीरिक परिवर्तन और उनका मनोवैज्ञानिक महत्व (PHYSICAL CHANGES AND THEIR PSYCHOLOGICAL SIGNIFICANCE IN ADOLESCENCE)


किशोरावस्था में विकास की गति तीव्र होने से तथा शारीरिक विकास और यौन परिपक्वता आने से बालक के मानसिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। 8 वर्ष की आयु में बालक और बालिका लगभग पूर्णतया परिपक्व हो जाते हैं। अधिकांशतया लड़कियाँ चौदह वर्ष में और लड़के सोलह वर्ष की आयु में शारीरिक परिपक्वता प्राप्त कर लेते हैं। विकास में होने वाले तीव्र गति के परिवर्तन बालकों के मानसिक व संवेगात्मक विकास को प्रभावित करते हैं-इस अवस्था में होने वाले परिवर्तनों को निम्न प्रकार से बाँटा जा सकता है:-

1. यौन सम्बन्धी मुख्य परिवर्तन 

2. यौन सम्बन्धी गौण परिवर्तन

3. लम्बाई 

4. भार

5. शारीरिक अंगों का अनुपात

6. आंतरिक अंगों का विकास (Development of Internal Organs)


1. यौन सम्बन्धी मुख्य परिवर्तन- यौन सम्बन्धी मुख्य परिवर्तनों से आशय जननेन्द्रियों के विकास व परिक्वता से है। किशोरावस्था के प्रारम्भ होने पर बालकों की जननेन्द्रियाँ कार्य करने लगती हैं और धीरे-धीरे परिपक्व हो जाती हैं। चौदह वर्ष की आयु में पुरुष जननेन्द्रियों में केवल दस प्रतिशत परिपक्वता होती है। बाद के दो वर्षों में इतनी तेजी से विकास होता है कि पुरुष जननेन्द्रिय उत्तर किशोरावस्था की समाप्ति तक पूरी तरह परिपक्व हो जाती है, अण्डग्रंथियों में परिपक्व शुक्राणुओं का निर्माण होने लगता है जिससे बालकों में स्वप्नदोष होने लगते हैं।

    बालिकाओं में भी बारह से सोलह-सत्रह वर्ष की आयु तक यौन अंगों का विकास तीव्र गति से होता है। बीस से इक्कीस वर्ष की आयु में स्त्री का प्रजनन तंत्र संतानोत्पत्ति के लिये पूरी तरह तैयार हो जाता है जिसका प्रमुख लक्षण मासिक धर्म का प्रारम्भ होना है।

2. यौन सम्बन्धी गौण परिवर्तन- बालकों में होने वाले यौन सम्बन्धी गौण परिवर्तनों में मुख्य हैं, दाढ़ी-मूँछ निकलना, हाथ-पैर बगल तथा शरीर के गुप्तांगों में बाल निकलना, कन्धों का चौड़ा होना, वक्षस्थल का विकास, वाणी में परिवर्तन, त्वचा में परिवर्तन, मुँहासे निकलना, बगल को स्वेद ग्रंथियों के सक्रिय होने से विशेष गंध युक्त पसीना निकलना, बालिकाओं के आभामण्डल पर चमक आना तथा स्तनों का विकास होना शरीर का चौड़ा और गोल होना, वाणी में कोमलता आना आदि यौन सम्बन्धी गौण परिवर्तन है, जो किशोरावस्था की यौन परिपक्वता की ओर इंगित करते हैं। यौन परिपक्वता पर पिट्यूटरी ग्रंथि का बहुत प्रभाव होता है। इस ग्रंथि से उत्पन्न गोनाडोट्रापिक हार्मोन गोनड ग्रन्थि की क्रियाशीलता को बढ़ा देता है जिससे हार्मोन का स्राव बढ़ जाता है। फलस्वरूप ज्ञानेन्द्रियों का विकास होता है और यौन सम्बन्धी परिवर्तन दिखायी देने लगते हैं। 

3. लम्बाई- इस अवस्था में लम्बाई में तेजी से वृद्धि होती है। बालिकाओं की लम्बाई लगभग 16 वर्ष की आयु तक तथा बालकों की लम्बाई 18 वर्ष की आयु तक बढ़ती है। पिट्यूटरी ग्रंथि के हार्मोन का प्रभाव लम्बाई के विकास पर पड़ता है। 

4. भार-अस्थियों और माँसपेशियों के विकास के कारण इस अवस्था में पहले लम्बाई तथा फिर भार में वृद्धि होती है। 10 से 15 वर्ष की आयु में लड़कियाँ, लड़कों की तुलना में अधिक वजन प्राप्त कर लेती हैं परन्तु बाद में लड़के लड़कियों की अपेक्षा अधिक भारी हो जाते हैं। 

5. शारीरिक अंगों का अनुपात-किशोरावस्था में शरीर के समस्त अवयव सिर, मुखमण्डल, घड़, पैर तथा भुजायें सभी समुचित अनुपात में आ जाते हैं। जहाँ बाल्यावस्था में शरीर का ऊपरी भाग बड़ा होता है वहीं किशोरावस्था में निचला भाग ऊपरी भाग की तुलना में अधिक लम्बा हो जाता है। नाक, कान, माथा, आँखें तथा शरीर के अन्य अंग भी उपयुक्त आकार में आ जाते हैं जिससे बालक प्रौढ़ आकृति प्राप्त कर लेते हैं, त्वचा चिकनी और कोमल हो जाती है। सिर के बाल पहले की तुलना में अधिक घने व काले हो जाते हैं। किशोरों की वाणी में परिवर्तन होने लगता है। बालकों को आवाज में भारीपन तथा बालिकाओं की आवाज में कोमलता आ जाती है, मुखाकृति में भी परिवर्तन होते हैं। बालिकाओं के मुख पर निखार आ जाता है तथा बालकों का चेहरा दाढ़ी-मूंछ आ जाने से भद्दा लगने लगता है। अस्थि विकास भी पूर्ण हो जाता है। वे अब पहले की तुलना में अधिक दृढ़ हो जाती हैं। सिर व मस्तिष्क का विकास भी पूर्ण हो जाता है। इस अवस्था में मस्तिष्क का भार 1200 से 1400 ग्राम के बीच होता है। माँसपेशियों के गठन में दृढ़ता आ जाती है। किशोर बालक शारीरिक सुन्दरता के लिये व्यायाम द्वारा अपनी माँसपेशियों को और अधिक सुडौल बनाने का प्रयास करते हैं।

6. आंतरिक अंगों का विकास (Development of Internal Organs)

(i) पाचन तंत्र- पाचन तंत्र का विकास पूर्व किशोरावस्था में तेजी से होता है किन्तु उत्तर बाल्यावस्था के अंत तक इसकी गति मंद हो जाती है। आमाशय की लम्बाई व गोलाई बढ़ जाती है। आर्त भी लम्बी और मोटी होने लगती हैं। पाचन शक्ति बढ़ जाती है तथा यकृत का भार भी बढ़ जाता है। पाचन शक्ति बढ़ने पर भी अपनी शरीराकृति को बनाये रखने के लिये लड़कियाँ कम खाना खाती है।

(ii) रक्त परिसंचरण तंत्र - किशोरावस्था में हृदय के भार में भी तीव्र गति से वृद्धि होती है। सत्रह-अठारह वर्ष की आयु में हृदय का भार जन्म के भार का बारह गुना अधिक हो जाता है। रक्त बाहिनियों की दीवारें मजबूत हो जाती हैं और उनकी लम्बाई बढ़ जाती है।

(iii) श्वसन तंत्र- किशोरावस्था में फेफड़ों का विकास भी पूर्ण हो जाता है। लड़कों में यह विकास लड़कियों की तुलना में देर से होता है। क्योंकि लड़कियों के सीने की अस्थि जल्दी विकसित हो जाती है जबकि लड़कों के सीने की अस्थि का विकास अपेक्षाकृत देर से होता है। 

(iv) नलिकाविहीन ग्रंथियाँ-किशोरावस्था में गोनेड ग्रंथियों का विकास तीव्र गति से होता है। इसी कारण तरुणावस्था के लक्षण प्रकट होते हैं और यौन परिपक्वता आती है। 

(v) पेशीय ऊतक-पेशीय ऊतकों का विकास किशोरावस्था में अपनी चरम सीमा पर होता है इसी कारण किशोरों का शारीरिक गठन अच्छा दिखायी देता है। पेशीय ऊतकों का विकास किशोरावस्था के बाद भी चलता रहता है। किशोर बालक व्यायाम द्वारा अपने पेशीय ऊतकों का विकास करते हैं।


किशोरावस्था के शारीरिक परिवर्तनों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव (PSYCHOLOGICAL IMPACT OF PHYSICAL CHANGES)

किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों का किशोर बालक-बालिकाओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। किशोरों में इस आयु में अपने शारीरिक अंगों की पूर्णता की चेतना विकसित होने लगती है अत: वे अपने शरीर को सुन्दर वस्त्रों से अलंकृत करने, अलग-अलग तरीके से केश सँवारने में अपना अधिक समय व्यतीत करते हैं। वस्त्रों के चुनाव में वे अपनी एक अलग राय रखते हैं वे प्रचलित फैशन के अनुरूप वस्त्रों का चुनाव करते हैं। वे अपने शिक्षकों व वयस्कों को ध्यान से देखते हैं और उनकी अच्छी चीजों का अनुकरण करते हैं। अपनी स्वचेतना के विकास में वे वयस्कों का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते हैं। वे अपने धार्मिक विचारों, महत्वाकांक्षाओं, मित्रों के चुनाव, वस्त्रों की पसंद, सौन्दर्य प्रसाधनों के प्रयोग तथा अन्य गतिविधियों में पूर्ण स्वतंत्रता चाहते हैं। पूर्ण आंगिक विकास और शारीरिक व यौन परिपक्वता के आने से बालक तथा बालिकाओं में आत्मविश्वास आता है, समायोजन अच्छा होता है। सामाजिक अन्तःक्रियायें बढ़ जाती हैं और सामाजिक सम्बन्ध अच्छे रहते हैं।

    लेकिन जिन बालकों में यौन परिपक्वता विलम्ब से आती है और शारीरिक अंगों का विकास आयु के अनुसार नहीं हो पाता है वे हीनता की भावना से पीड़ित रहते हैं और अन्तर्मुखी हो जाते हैं। यदि किसी बालक में चेहरे का निखार, वाणी में कोमलता तथा यौवन के लक्षण विलम्ब से आते हैं तो यह उसके लिए चिन्ताजनक हो जाता है। इसी प्रकार यदि बालकों में दाढ़ी मूँछ देर से निकलती है, वाणी में प्रौढ़ता नहीं आती है। शारीरिक गठन तथा माँसपेशियों में दृढ़ता नहीं आती है तो वह भी स्वयं को समूह के साथियों से भिन्न समझने लगता है। इसके विपरीत यदि बालकों में यौन परिपक्वता जल्दी आ जाती है तो वे अवांछित आचरणों का प्रदर्शन करने लगते हैं या लज्जा व संकोच का विकासक्रम में जिन बालकों की लम्बाई व भार सामान्य से अधिक हो जाता है, शरीर पर बालों की अनुभव करने लगते हैं। सामूहिक क्रियाओं में भाग नहीं लेते हैं प्रायः अन्तर्मुखी हो जाते हैं। अधिकता हो जाती है उनके साथ भी समायोजन समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं।

    इसके अतिरिक्त सामान्य विकास होने पर भी प्रारम्भ में बालक लज्जा व संकोच का अनुभव करते हैं। सामाजिक सम्बन्धों में वे अपने विपरीत लिंग के सदस्यों के निकट आने में हिचकते है जबकि उत्तर बाल्यावस्था के अंत में इसी परिवर्तन के कारण एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं जबकि माता-पिता इस समय उन्हें विपरीत लिंग के साथ सम्बन्ध बनाने से रोकते हैं इससे भी समायोजन सम्बन्धी समस्यायें उत्पन्न होती है। अतः किशोरावस्था में शारीरिक परिवर्तनों का अभाव या प्रादुर्भाव दोनों ही बालकों के सम्मुख समस्यायें उत्पन्न कर देते हैं।

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