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पितृसत्तात्मकता एवं पितृसत्तात्मकता की विशेषताएँ PATRIARCHY AND ITS CHARACTERISTICS

पितृसत्तात्मकता (PATRIARCHY)

पितृसत्तात्मकता शब्द दो शब्दों के योग से निष्पन्न है

पितृ + सत्तात्मकता = पिता की सत्ता

इस प्रकार पितृसत्तात्मकता से तात्पर्य ऐसी व्यवस्था से जहाँ पिता की सत्ता पुत्र को प्राप्त होती है। पितृसत्तात्मकता में पिता के पश्चात् पुत्र के पास अधिकारों का हस्तान्तरण होता है न कि पुत्री के पास।


विशेषताएँ (Characteristics)

पितृसत्तात्मकता की विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं

1. पुत्र का महत्व

2. पुरुष प्रधान समाज

3. पुरुषों के अधिक विस्तृत होते हैं। 

4. शक्ति तथा अधिकारों का हस्तान्तरण पिता से पुत्र की ओर होता है न कि पुत्री की ओर

5. पितृसत्तात्मक समाज में निर्णय शक्ति पुरुषों में निहित होती है।

6. पितृसत्तात्मकता में विवाह के पश्चात् आने वाली स्त्रियों पति और पुत्र तथा अविवाहित बालिकायें पिता तथा भाई के संरक्षण में रहती है।

7. स्त्री के पास सम्पत्ति तथा उत्तराधिकार सम्बन्धी अधिकार नहीं होते हैं।


अन्तःक्रिया तथा पहचान की आवश्यकता तथा महत्व (NEED AND IMPORTANCE OF INTERACTION AND IDENTITY)

पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियाँ चाहे जिस भूमिका में हों, उन पर किसी पुरुष का नियन्त्रण होता है, चाहे वह पुरुष पिता, पुत्र, पति, भाई इत्यादि रूपों में हो। पुरुष यहाँ पर स्त्रियों से जुड़े विषयों पर निर्णय लेते हैं, उनकी सुरक्षा का दायित्व वहन करते हैं, परन्तु स्त्रियों का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व और व्यक्तित्व होता है, जिसकी रक्षा प्रत्येक समाज को करनी चाहिए। स्त्रियों को आवश्यकता से अधिक पराश्रित कर देने से उनकी तर्क, निर्णय तथा विवेक क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. अतः समाज को गतिशीलता के पथ पर अग्रसर कराने हेतु स्त्रियों की समाज के संगठनों के साथ अन्तक्रिया आवश्यक है। तभी यह अपनी पहचान और उपस्थिति को दर्ज करा सकेंगी। समाज तथा सामाजिक संगठनों में परिवार, धर्म, जाति इत्यादि आते हैं। वर्तमान में विद्यालय को समाज का लघु रूप माना जाता है और सामाजिक शिक्षा प्रदान करने का यह प्रभावी अभिकरण बन गया है। समाज और सामाजिक संगठनों के साथ स्त्रियों की पितृसत्तात्मक समाज में अन्त क्रिया और अलग पहचान की आवश्यकता तथा महत्व का आकलन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है:-

1. सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने हेतु

2. उन्नति तथा विकास हेतु

3. सार्वभौमिक शिक्षा हेतु

4. प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना हेतु 

5. अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों की समाप्ति हेतु

6. स्त्रियों की सुरक्षा हेतु

7. आत्म-प्रकाशन हेतु

8. निर्णय क्षमता के विकास हेतु

9. सर्वांगीण विकास हेतु 

10. समाजीकरण हेतु


1. सामाजिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने हेतु-समाज स्वयं में एक व्यवस्था है और यह व्यवस्था तभी है जब स्त्री-पुरुष दोनों का अस्तित्व है। स्त्रीविहीन सामाजिक व्यवस्था की बात तो दूर है, हम समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार स्त्रियाँ समाज की अभिन्न अंग है और उन्हें सामाजिक संगठनों, परिवार, धर्म, जाति, समुदाय तथा विद्यालय आदि के सम्पर्क में आने की पूर्णरूपेण छूट होनी चाहिए, जिससे वे अपनी अलग पहचान स्थापित कर सकें। सामाजिक संगठनों को और सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में इनकी अन्तक्रिया परमावश्यक है जिससे इनकी महत्ता और शक्तियों का परिचय प्राप्त कर उसका सदुपयोग किया जा सके।


2. उन्नति तथा विकास हेतु सम्पूर्ण विश्व की आबादी का आधा भाग स्त्रियों का है और स्त्री होने के कारण यदि इनको उन्नति और विकास की प्रक्रिया से पृथक् रखा जाये तो यह किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार महत्वपूर्ण मानवीय संसाधन का उपयोग परिवार, समाज और राष्ट्र की उन्नति तथा विकास में नहीं किया जा सकता है, जबकि देश में चारों ओर गरीबी है। ऐसे में एक-एक व्यक्ति को अपनी पूर्ण शक्ति का सदुपयोग व्यक्तिगत रूप से राष्ट्रीय हितों के लिए करना चाहिए। स्त्रियाँ तभी अपना पूर्ण रूप से योगदान प्रदान कर सकेंगी जब वे सामाजिक संगठनों और संस्थाओं के सम्पर्क में आने के अवसर प्राप्त करेंगी, उनके साथ अन्त क्रिया कर सकेंगी। तब वे समाज के लिए महत्वपूर्ण और उपयोगी बन जायेंगी तथा उनकी पृथक् पहचान बन सकेगी। इस प्रकार उन्नति और विकास का पथ प्रशस्त करने के लिए सामाजिक अन्त क्रिया और पहचान की आवश्यकता अत्यधिक है।


3. सार्वभौमिक शिक्षा हेतु लोकतन्त्र में स्त्री हो या पुरुष, सभी को समान अधिकार प्राप्त हैं। लोकतांत्रिक सुदृढ़ता को सुनिश्चित करने के लिए संविधान द्वारा बिना किसी भेदभाव के 7 से 14 आयु वर्ग के सभी बालक-बालिकाओं की सार्वभौमिक शिक्षा की व्यवस्था की गयी है। सार्वभौमिक शिक्षा का यह स्वप्न पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण अवरोधित हो रहा है, क्योंकि लोगों का मानना है कि स्त्रियाँ पढ़-लिखकर क्या करेंगी जब उनका कार्यक्षेत्र घर-परिवार है, स्त्रियाँ घर की चारदीवारी के भीतर ही रहें तथा पढ़-लिखकर स्त्रियाँ अपना समय व्यर्थ करती है। अतः उनको पढ़ाना-लिखाना नहीं चाहिए। प्रसिद्ध प्रकृतिवादी रूसो भी स्त्रियों की शिक्षा को प्लेग के समान अहितकारी मानते हैं। इस प्रकार समाज और सामाजिक संगठनों के साथ स्त्रियों की अन्तक्रिया और पहचान के निर्माण की आवश्यकता सार्वभौमिक शिक्षा के लिए अत्यधिक है।


4. प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना हेतु प्रजातान्त्रिक मूल्यों, जैसे- समानता, स्वतन्त्रता और न्याय इत्यादि की स्थापना स्त्रियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करके कदापि सम्भव नहीं है। पुरुष प्रधान और पितृसत्तात्मक व्यवस्था में तो कदम-कदम पर स्त्रियों के हितों की अवहेलना की जाती है। प्रजातांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से स्त्री-पुरुष के मध्य कोई भेदभाव नहीं है, अपितु स्त्रियों को तो उनकी दयनीय स्थिति में सुधार हेतु कुछ विशिष्ट सुविधायें भी प्रदान की गयी है। स्त्रियों को सभी प्रकार की स्वतन्त्रता, समानता तथा न्याय प्राप्त है। अतः उन्हें अपने अस्तित्व की पहचान और सामाजिक संगठनों के साथ अन्त क्रिया हेतु पर्याप्त अवसर प्रदान करने चाहिए। तभी वास्तविक रूप से प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना और उनकी रक्षा हो सकेंगी।


5. अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों की समाप्ति हेतु स्त्रियों को सामाजिक संस्थाओं और संगठनों के साथ अन्तक्रिया स्थापित करने के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करने चाहिए। तभी वह अपनी पहचान बना सकेगी। स्त्रियों से सम्बन्धित अन्धविश्वास तथा कुरीतियाँ हमारे समाज में सर्वाधिक है, क्योंकि पुरुष सामाजिक व्यवस्था के केन्द्र में हैं. समर्थ हैं और सामर्थ्यवान को कोई दोष नहीं दिया जाता है। बड़ी मछली सदैव ही छोटी मछली को निगल जाती है, वही कार्य पितृसत्तात्मकता में स्त्रियों के साथ किया जा रहा है। स्त्री विधवा हो जाये तब उसी का दोष, वह पुत्री को जन्म दे तब भी दोषी, विशेष प्रकार की पूजा-पाठ, व्रत-विधान के लिए वही उत्तरदायी, सामाजिक नियम-कानून उसी पर लागू होते हैं तथा डायन, बाँझ, कुलटा इत्यादि आत्मा को हनित करने वाले शब्द उसी पर लागू होते हैं, क्योंकि स्त्रियों को अपनी बात कहने और समाज के समक्ष खुलकर आने के अवसर प्रदान नहीं किये गये और वे नारकीय जीवन को अपनी नियति मान बैठी है। ऐसी सामाजिक परिस्थितियों में अन्धविश्वासों तथा वर्षों से चली आ रही कुरीतियों की समाप्ति से सशक्त पहचान हेतु स्त्रियों की सामाजिक संगठनों के साथ अन्तःक्रिया परमावश्यक है।


6. स्त्रियों की सुरक्षा हेतु स्त्रियों को सामाजिक संगठनों से अन्त क्रिया और अपनी पहचान स्थापित करने के लिए बाहर निकलना होगा, क्योंकि घर की चारदीवारी में रहकर ये अपनी पहचान नहीं बना सकेंगी। स्त्रियों को सुरक्षात्मक दृष्टि से भी सामाजिक संगठनों के साथ अन्त क्रिया नहीं करने दी जाती है, परन्तु इस तरह तो समाज में इनके प्रति विकृत मानसिकता, विभेदात्मक व्यवहार और भावना ग्रन्थियों का जन्म होगा। अतः स्त्रियों की सुरक्षा के लिए सामाजिक संगठनों के साथ इनकी अन्तक्रिया आवश्यक है।


7. आत्म प्रकाशन हेतु मनुष्य में अपने विचारों तथा भावों को दूसरों के समक्ष प्रकाशित करने की तीव्र उत्कण्ठा होती है। इसे आत्माभिव्यक्ति या आत्म प्रकाशन कहते हैं। सामाजिक संगठनों के साथ पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों को ही वैचारिक आदान-प्रदान और मिलने के अवसर प्रदान किये जाते हैं, जिसके कारण वे तो अपने विचार प्रकट कर देते हैं, परन्तु ये अवसर और अपनी पहचान तथा अस्तित्व के लिए संघर्ष करने के लिए स्त्रियों को अवसर और स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की जाती है। ऐसे में सामाजिक संगठनों के साथ स्त्रियों को अन्तः क्रिया की स्थापना करने में सहयोग प्रदान कर इन्हें अपने विचारों और अन्तर्निहित शक्तियों के प्रकाशन का अवसर देना चाहिए। आत्म-प्रकाशन के अवसर प्रदान न करने के कारण स्त्रियों में हीनता और कुण्ठा की भावना व्याप्त हो जाती है और पितृसत्तात्मकता का चक्र चलता ही रहता है।


8. निर्णय क्षमता के विकास हेतु पितृसत्तात्मक और पुरुष प्रधान समाज में आज भी निर्णय लेने का अधिकार पुरुषों को होता है और स्त्रियों से सदैव यह अपेक्षा की जाती है कि वे उसे मानेंगी। ऐसे में समाज के साथ उनकी अन्त क्रिया और पहचान किस रूप में होगी, इसका निर्णय भी पुरुष ही करते हैं। लम्बे समय से ऐसी सामाजिक व्यवस्था के चलते रहने से स्वयं स्त्रियाँ भी होन मनोविज्ञान से ग्रस्त होकर यह मानने लगती है कि उनके भीतर निर्णय लेने की क्षमता नहीं है। वस्तुतः स्त्रियों को समाज के साथ संवाद स्थापित करने, अपनी पहचान स्थापित करने के अवसर यदि दिये जाये तो वे प्रत्येक क्षेत्र में विवेकपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम है।


9. सर्वागीण विकास हेतु वर्तमान शिक्षा व्यक्ति के एकांगी विकास की पक्षधर न होकर सर्वांगीण विकास की पक्षधर है। महात्मा गाँधी ने भी शिक्षा को मनुष्य के मन, आत्मा और शरीर का सर्वोत्तम विकास माना है। शरीर को जिस प्रकार स्वस्थ रहने के लिए सन्तुलित आहार की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मनुष्य के मन का आहार सद्विचार है। सद्विचारों द्वारा सकारात्मकता और जीवन में गतिशीलता आती है, परन्तु स्त्रियों को समाज के संगठनों के साथ अन्त क्रिया स्थापित करने के अवसर प्रदान न किये जाने के कारण उनके मस्तिष्क को खुराक नहीं मिल पाती है और उनका सर्वागीण विकास नहीं हो पाता। स्त्रियों का जब तक सर्वतोन्मुखी विकास नहीं होगा तब तक वे स्त्रियों से सम्बन्धित समाज, राष्ट्र तथा विश्व के घटनाक्रमों तथा समस्याओं से न तो अवगत हो पायेगी और न ही उस पर कोई राय कायम कर पायेंगी। ऐसी स्थिति में उनका उपयोग नहीं किया जा सकेगा और उनकी पहचान नहीं बन पायेगी। इस प्रकार सर्वांगीण विकास हेतु समाज और उसके अन्य संगठनों के साथ इनकी अन्तः क्रिया अत्यावश्यक है।


10. समाजीकरण हेतु मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसके समाजीकरण की प्रक्रिया बाल्यावस्था से ही प्रारम्भ हो जाती है तथा यह प्रक्रिया जितना अधिक व्यक्ति, समाज और समाज की संस्थाओं और संगठनों के सम्पर्क में आता है, वृद्धि होती है। स्त्रियों को समाज तथा उसके संगठनों से अन्त क्रिया और अपनी पहचान स्थापित करने के अवसर पुरुष प्रधान समाज में न के बराबर प्राप्त होते हैं। ऐसे में इनका समाजीकरण प्रभावित होता है जिसका प्रभाव व्यक्तिगत रूप से इन पर तो पड़ता ही है, साथ ही साथ परिवार और समूचे समाज पर भी पड़ता है। सुयोग्य सन्तानों को तैयार करना और सभ्य समाज के निर्माण का उत्तरदायित्व पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं पर अधिक होता है और ऐसे में यह कार्य समाजीकरण की प्रक्रिया पूर्ण रूप से न होने के कारण सम्भव नहीं हो पाती है। समाज और उसकी संस्थाओं, संगठनों से अन्त क्रिया और पहचान की आवश्यकता समाजीकरण हेतु अत्यधिक है।

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