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Biodiversity? Discuss its Importance, types and conservation of biodiversity in India

प्रश्न. जैव विविधता से आप क्या समझते हैं ? इसके महत्त्व एवं प्रकार की विवेचना करें। (What do you understand by biodiversity? Discuss its Importance and types.) 



उत्तर- 'जैव विविधता' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1986 में वाल्टर जी. रॉसेन (Walter G Rosen) ने किया एवं जैव विविधता को निम्नलिखित शब्दों में समझाया—"पादपों ने (Plants), जन्तुओं (Animals) एवं सूक्ष्म जीवों (Micro-organisms) के विविध प्रकार (variety) और विभिन्नता (variability) ही जैव विविधता है। " निश्चित ही जैव विविधता जातियों की विपुलता (पादपों, जन्तुओं और सूक्ष्म जीवों) है, जो एक अन्योन्य क्रिया तन्त्र की तरह एक निश्चित आवास में उत्पन्न होते हैं।

पृथ्वी पर विभिन्न जीव समुदाय को विभिन्न जातियाँ पायी जाती है। स्थानिक अवस्थिति के बदलते ही पारिस्थितिक तंत्र को प्रकृति भी बदल जाती है जिससे जातियों में विविधता आ जाती है। इन जातियों को संख्या एवं विभिन्नता हो जैव विविधता कहलाती है। पिछले 25 वर्षों में मनुष्य में विश्व के पौधे और जीव-जन्तुओं के संरक्षण में गहन रूचि लेना प्रारम्भ कर दिया है। इसके अन्तर्गत पृथ्वी सम्मेलन सन् 1992 अति महत्त्वपूर्ण रहा, जिसके अन्तर्गत 1993-94 से 2003-04 को अन्तर्राष्ट्रीय जैव विविधता दशक मनाये जाने का निर्णय लिया और विभिन्न महत्त्वपूर्ण संगठनों ने अपना कार्य प्रारम्भ किया। सन् 2002 में जोहान्सबर्ग में जैविक सतत् विकास पर विश्व सम्मेलन (World Summit on Sustainable Development) जैव विविधता और महत्वपूर्ण विषय हो गया है। लाखों वर्षों में उत्पन्न हुआ समुदाय, आधुनिक मानव द्वारा संसाधनों के शोषण के कारण नष्ट हो रहा है। जैव विविधता हास का मुख्य कारण जीवों के आवासीय क्षेत्र की क्षति की जा रही है; यथा-वन संसाधनों का शोषण (वन भूमि का घटता क्षेत्र) चारागाहों तथा घास के मैदानों पर कृषि भूमि का दबाव, जन्तु जगत और वनों का अत्यधिक शोषण (शिकार) एवं वृक्षों की कटाई एवं पशुचारण आदि हैं।


जैव विविधता समस्त पारिस्थितिक तन्त्र के संचालन के लिए अपरिहार्य हैं । जैव विविधता अपने मुख्य दो कार्यों के कारण समस्त पारिस्थितिक तन्त्र को पुष्ट करती है। 

1. जैवमण्डल का स्थायित्व (Biosphere sustainability) जैव विविधता पर निर्भर करता है। ये जल, मृदा, वायु की रासायनिक संरचना को स्थिर रखती है। इस प्रकार जैव मण्डल के सम्पूर्ण स्वास्थ्य को दृढ़ता प्रदान करती है।

2. जैव विविधता उन वस्तुओं का भी स्त्रोत है जिन पर जीव अपने भोजन (Food), चारा (Fodder), ईंधन (Fuel) तथा औषधि आदि के लिए निर्भर होती है। “जैव विविधता जातियों की विपुलता (जन्तुओं, सूक्ष्म जीवों और पौधों) है जो एक अन्योन्याश्रित क्रिया तन्त्र की तरह एक-दूसरे से सम्बद्ध है और एक निश्चित आवास में उत्पन्न होते हैं। "


अथवा


"पर्यावरण में जीव-जन्तु, पौधों और सूक्ष्म जीवों के बीच आनुवंशिक (Genetic) जातिगत (Species), और पारिस्थितिक (Ecological) स्तर पर पायी जाने वाली विविधता को जैव विविधता कहते हैं। "

U.S. Office of technology Assessment (1987) के अनुसार जैव विविधता को निम्न प्रकार से परिभाषित किया गया है "The variety and variability among living organisms and the ecological complexes in which they occur is called Biodiversity."

सरल शब्दों में, हम यह कह सकते हैं कि पृथ्वी पर विद्यमान प्रत्येक जाति के जीवों में विविधता, जातियों के मध्य विविधता तथा पारिस्थितिक तंत्रों की विविधता ही जैव विविधता है।

Biodiversity शब्द Biological Diversity का संक्षिप्त रूप है जो पृथ्वी पर जीवन के विविध रूपों को व्यक्त करता है। वर्तमान में पृथ्वी पर जीवों को जो भी जातियाँ पायो जाती हैं, उनके अस्तित्व का कारण लम्बे समय से परिवर्तित होती आ रही दशाओं में स्वयं को अनुकूलित करते रहना है। ये जातियाँ परस्पर क्रियाशील तथा एक-दूसरे से सम्बन्ध रखतौ हैं। जीवों की जातियों का परस्पर सम्बन्ध तथा जातियों एवं पर्यावरण का परस्पर सम्बन्ध पारिस्थितिक तंत्र को गति एवं दृढ़ता प्रदान करता है।

किसी भी क्षेत्र में पायी जाने वाली जीवों की जातियाँ एक जैविक समुदाय बनाती है जो विभिन्न जातियों के जटिल खाद्य जालों के रूप में होता है। जैविक समुदाय के किसी भी हिस्से में आये व्यवधान से समुदाय के सभी भागों के सदस्यों पर प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार पारिस्थितिक तन्त्र को सुचारू रूप से चलाने एवं उसकी दृढ़ता बनाए रखने के लिए जैव विविधता का होना अत्यन्त आवश्यक है।

जैव विविधता एक ऐसा संसाधन है, जिसे पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता है अर्थात् जो जातियाँ विलुप्त हो जाती हैं उन्हें पुनः उत्पन्न नहीं किया जा सकता है। जातियों के विलुप्तीकरण के अनेक कारण हैं; जैसे—प्राकृतिक आवासों का नष्ट होना, विदेशी जातियों का अनियोजित प्रवेश, पादप तथा जन्तु संसाधनों का अधिक मात्रा में उपयोग तथा प्रदूषण ऐसा अनुमानित किया गया है कि प्रतिदिन जीवों की कई जातियाँ विलुप्त हो रही हैं। यह विलुप्तीकरण एक गम्भीर विषय है। इस सन्दर्भ में सन् 1992 में रियो डि जेनेरियो (ब्राजील) में पृथ्वी सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में भारत सहित 168 देशों ने जैव विविधता पर प्रस्तावित समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इस समझौते में जैव विविधता के संरक्षण तथा उसकी वृद्धि करने के प्रयासों पर जोर दिया है। 


जैव विविधता के प्रकार

जैव विविधता के प्रकार को प्रायः तीन तथा दो गौण स्तरों में बाँटा जा सकता है 

(I) आनुवंशिक विविधता (Genetic Diversity)—आनुवंशिक स्तर पर एक जाति के सदस्यों में पायी जाने वाली विविधता आनुवंशिक विविधता कहलाती है। यह विविधता एक स्थान पर एक जाति की जनसंख्या के व्यक्तिगत जीवों में या इसी जाति के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में वितरित जनसंख्या में हो सकती है; यथा—गेहूँ, धान, कपास की विविध किस्में अपने रूप, रंग, आकार, स्वाद में मिले होते हुये भी एक ही जीन्स या जाति के हैं।

(2) जातिगत विविधता (Species Diversity)– पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी प्रकार के जीवों (बैक्टीरिया से लेकर बड़े पौधों एवं जन्तुओं तक) की जातियों की विविधता, जातिगत विविधता कहलाती है। जैसे—घोड़ा, बकरी, भैंस, शेर, कुत्ता विभिन्न जातियों के जीव हैं।

(3) पारिस्थितिक विविधता (Ecological Diversity)-बड़े स्तर पर जैव विविधता के अन्तर्गत पारिस्थितिक तन्त्र के जैविक समुदायों में पायी जाने वाली विविधता पारिस्थितिक विविधता कहलाती है। एक पारिस्थितिक तन्त्र एक विशेष प्रकार के जीव-जन्तुओं के प्रारूप को बनाता है। इसलिए पारिस्थितिक तन्त्र की विविधता भी जैव विविधता को जन्म देती है; यथा विभिन्न भौगोलिक प्रदेशों के जीवों में विविधता मिलती है। यथा- भू-रेखीय प्रदेशों या मरुस्थलीय प्रदेशों के जीव-जन्तु। 


गौण प्रकार

(4) घरेलू विविधता (Domesticated Biodiversity)- पालतू पशु एवं घरेलू पेड-पौधों के जीन्स में मानवीय हस्तक्षेप से अलग तरह के जीव एवं फसलों में विविधता आ रही है। यथा—मुर्गियों, बकरियों, गायों आदि की विभिन्न न्सलें या तिलहन, धान, गेहूँ आदि की विभिन्नतायें मानवीय हस्तक्षेप जीन्स में होने से विविधता दिखती है। 

(5) सूक्ष्मजीवीय विविधता एक सुई की नोंक पर 3-4 करोड़ जीवाणु होना, जैव विविधता समृद्धि ही उल्लेखनीय है।


प्रश्न. भारत में जैव संरक्षण पर प्रकाश डालें। (Throw light on the conservation of biodiversity in India.) 

उत्तर-जैव विविधता के संरक्षण की आवश्यकता इस बात से स्पष्ट हो जाती है। यदि कल्पना करें कि पैनिसिलियम या सिनकोना (Pennicillium or Cinchona) का विलुप्तीकरण इनके महत्त्व के आविष्कार से पहले ही हो गया होता तो क्या होता ? इसलिये सभी जातियों चाहे वे आर्थिक रूप से उपयोगी हों या न हों, पारिस्थितिकी तन्त्र की उन्नति के लिये उपयोगी हैं क्योंकि वन्य पौधे एवं जन्तु (Wild Plant and Animals) पारिस्थितिक तन्त्र की उन्नति के लिये आनुवंशिक पदार्थ (Genetic Material) प्रदान करते हैं। भारत के जंगली तरबूज (Wild Melon) से कैलीफार्निया (यू. एस. ए.) में तरबूज फसल (Melon crop) पर होने वाले मिल्ड्यू (Mildew) रोग के प्रतिरोध (resistance) के लिए जीन्स (Genes) प्राप्त की गयी हैं। इसी प्रकार 1963 में उत्तर प्रदेश में वन्य चावल (Wild rice) एकत्र किया गया जिससे प्राप्त जीन ने ग्रासी स्टण्ट वायरस (Grassy Stunt Virus) से होने वाले 30 मिलियन धान की फसल वाले खेत (Paddy) को संक्रमित होने से बचाया। इण्डोनेशिया की कांस घास (Kans-grass-Saccharum) से गन्ने के रैड रॉट रोग (Red Rot disease) के प्रतिरोध की जीन्स प्राप्त की जाती हैं।

वर्तमान में कुछ प्रमुख फसल किस्मों के अत्यधिक उपयोग ने किस्मों की विविधता या फसल की विविधता को कम कर दिया है। एक आंकलन के अनुसार 1950 में भारतीय किसान चावल की लगभग 30 हजार किस्मों को उगाता था। सन् 2000 तक यह संख्या घटकर 50 रह गई और आगे केवल 10 किस्में ही 75 प्रतिशत कृष्य क्षेत्र (75% Cultivated area) को आच्छादित करेंगी। अब फसलों की रूढ़िवादी एवं भूमि प्रजातियों (Traditional and land races) की कृषि अब अधिकांश जनजातियाँ समाज तक ही सीमित रह गयी हैं। अतः स्पष्ट है कि संरक्षण की अति आवश्यकता है। संरक्षण के दृष्टिकोण से इसे दो भागों में बाँट सकते हैं: 


जाति का संरक्षण उसके मूल आवासों (Original habitats- Means in situ or on sit) में ही किया जाता है। एक्स सीटू संरक्षण के अन्तर्गत जाति का संरक्षण उनके मूल आवासों से दूर ले जाकर (Away from their original natural habitat means ex-situ or off situ) किया जाता है। दोनों ही प्रकार के संरक्षण एक-दूसरे के पूरक (Complementary) हैं।


(अ) संस्थितिक संरक्षण (In-Situ Conservation) 

देश में वन्य जीवन नीतियों के निर्धारण हेतु 1952 में इण्डियन बोर्ड ऑफ वाइल्ड लाइफ (Indian Board of Wild Life) की स्थापना की गयी। इसकी पहली मीटिंग में भारत में वन्य जीवन के संरक्षण के लिये एक एकीकृत कानून बनाने की अनुशंसा की गयी। 1972 में वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्सन एक्ट लागू किया गया जिसे सभी राज्यों द्वारा माना गया। 15वीं मीटिंग में 1982 में स्व. प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के समय वैज्ञानिक रूप से प्रवन्धित सुरक्षित क्षेत्रों की स्थापना पर बल दिया गया। जैसे- राष्ट्रीय उद्यान (National Park), अभ्यारण्य (Sanctuaries), जीवमण्डल रिजर्व (Biosphere Reserve) और अन्य क्षेत्र वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट को ठीक तरह से लागू करने के लिए चार क्षेत्रों नई दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता और चेन्नई में एक-एक उपनिदेशक (Deputy Director) नियुक्त किये गये। ये कन्वेन्सन ऑन इन्टरनेशनल ट्रेड इन एनडेन्जर्ड स्पीशीज CITES (Convention on International Trade in Endangered Species) के लागू करने के लिये उत्तरदायी होते हैं। CITE राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संकटापन्न जातियों के आयात/निर्यात पर रोक लगाती है। ये चारों स्थानीय अधिकारियों (Local Officers) की वन्यजीवन संरक्षण में सहायता भी करते हैं।


1. विश्व स्तर पर विश्व बैंक (World Bank) और संयुक्त राष्ट्र एजेन्सी द्वारा प्रत्येक वर्ष 1.5 बिलियन अमरीकी डॉलर विश्वव्यापी पर्यावरण (Global Environment) के लिये दिये जाते हैं। 1989 में WCMC ने पूरे विश्व में 4,545 संरक्षित क्षेत्र चुने हैं जो 4,846,300 Km क्षेत्र को घेरे हुए हैं जो पृथ्वी के भू-तल का 3.2% क्षेत्र हैं। जिसमें से केवल 2% क्षेत्र राष्ट्रीय उद्यानों और (वैज्ञानिक रिसर्च) बायोस्फीयर के रूप में दृढ़ता से संरक्षित (Strictly Protect) है। विश्व का सबसे बड़ा उद्यान "ग्रीनलैण्ड" है जो 7,00,000Km' को घेरे हुए हैं। 1970 में संरक्षित क्षेत्र में सबसे अधिक वृद्धि हुई थी।

भारत में 1981 में केवल 19 राष्ट्रीय पार्क और 202 अभ्यारण्य थे। वर्तमान में भारत में 75 राष्ट्रीय पार्क, 421 अभ्यारण्य हैं जो लगभग 1.4 लाख वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र घेरते हैं। यह मैन एण्ड बायोस्फीयर समिति (Natural Man and Biosphere Committee, MAB) ने ले लिया। MAB 1979 ने भारत में 13 पारिस्थितिकी तन्त्रों को बायोस्फीयर रिजर्व के रूप में सुरक्षित करने की योजना बनायी है।

2. राष्ट्रीय उद्यान (National Park) प्राकृतिक सौन्दर्य, वन्य जीवन, लोगों के मनोरंजन तथा ऐतिहासिक महत्त्व के कारण आरक्षित किया जाने वाला एक विशेष क्षेत्र है। जहाँ किसी विशेष जानवर (Genetic Orientation) जैसे टाइगर (Tiger), शेर (Lion), रिहनो (Rhino) आदि को उनके आवासों में सुरक्षित किये जाते हैं। इनकी सीमा कानून द्वारा निर्धारित होती है। बफर क्षेत्र (Buffer zone) के अतिरिक्त राष्ट्रीय उद्यान में कभी भी जैव हस्तक्षेप (Biotic interference) नहीं होता। यहाँ पर्यटन की आज्ञा है। इसमें जीनपूल (Genepool) और इसके संरक्षण पर ध्यान दिया जाता है। वर्तमान में 75 राष्ट्रीय उद्यान हैं। इसमें से मध्य प्रदेश में 9 हैं।



3. अभ्यारण्य या शरणस्थली (Sanctuaries)
विशेष जाति (Species Oriented) से सम्बन्धित होते हैं। जैसे—सिट्स, पिचर प्लाण्ट, इण्डियन बस्टर्ड सामान्यतः विशेष आनुवंशिक पदार्थों और लक्षणों (Specific, Genetic Material and Characters) वाले पौधों को सुरक्षित रखा जाता है। अतः किसी एक संकटापन्न जाति या जातियों के समूह के लिए अभ्यारण्यों का निर्माण सबसे अच्छा होता है। जैसे—मेघालय की खासी पहाड़ियों में नेपेन्थीस (Nepenthes) के लिए, सिक्किम में रोडोडेन्ड्रोन (Rhododendron) व प्रिंमूलस के लिये, मेघालय में सिट्स पौधे के लिये अभ्यारण्य स्थापित किये हैं। यहाँ सीड बैंक तथा जीन बैंक की स्थापना भी की जाती है। भारत में 421 अभ्यारण्य स्थापित किये जा चुके हैं।

4. बायोस्फीयर रिजर्व (Biosphere Reserve)- वे प्राकृतिक क्षेत्र होते हैं जो किसी भी प्रकार के शोरगुल से पूर्णतः मुक्त होते हैं और ये पारिस्थितिक तन्त्र (Ecosystem oriented) से सम्बन्धित होते हैं। इसमें चार चीजों को शामिल किया गया है—(1) संरक्षण (Conservation), (2) अनुसंधान (Research), (3) शिक्षण (Education), (4) स्थानीय सहभागिता (Local Involvement)। 1985 में विश्व के 65 देशों में 243 बायोस्फीयर रिजर्ववायर बनाने का लक्ष्य था जिसमें से 90 स्थापित हो चुके हैं शेष बचे 103 का निर्माण होना है। भारत में 13 बायोस्फीयर रिजर्ववायर हैं। भारत में सबसे पहला बायोस्फीयर 1986 में नीलगिरी बायोस्फीयर स्थापित किया गया है जो कर्नाटक, केरल व तमिलनाडु में फैला है। मध्य प्रदेश में सबसे पहले कान्हा राष्ट्रीय उद्यान को बायोस्फीयर के रूप में चिह्नित किया।



पिछले कुछ वर्षों में भृंगुर पारिस्थितिक तन्त्रों (Fragile Ecosystem) जैसे 16 वैटलैण्ड, 15 मैंग्रूव क्षेत्र और 4 कोरल रीफ के लिए भी सुरक्षा कार्यक्रम बनाये गये हैं। 


(ब) असंस्थितिक संरक्षण (Ex-Situ Conservaton) 

जब इन-सीटू (In-situ) संरक्षण में किसी जाति के पौधे के बने रहने की सम्भावना कम हो जाती है और उसके विलुप्त होने की आशंका होती है तो ऐसी स्थिति में उसके संरक्षण की विधि संयुक्त एक्स-सीटू (Ex. Situ) होती है अर्थात् मूल आवास से दूर ले जाकर (Away from their Original natural habitat means ex-situ or off situ) करते हैं। इसमें जाति की DNA पदार्थ या उसके genetic पदार्थ का संरक्षण किया जाता है। इसकी मुख्यतः तकनीक है-(i) जीन बैंक (Gene banks), (ii) सीड बैंक (Seed Bank), (iii) इनविट्रों तथा इन-विवो (Invitro and in vivo) में संरक्षण, (iv) ऊतक सम्बन्धी आनुवंशिक बैंकों की स्थापना, (v) आनुव वर्धन केन्द्रों की स्थापना, (vi) चिड़ियाघर तथा बगीचों (Botanical gardens) में वृद्धि, (vii) कारावासी बीडिंग (Captive beeding) की जाती है। इसे मोटे तौर पर निम्न प्रकार से वर्णित कर सकते हैं—

(1) जीन बैंक (Gene Bank) — जीवित जन्तुओं या पौधों को जब चिड़याघरों (Zoo) या वानस्पति बगीचों में बीच के साथ-साथ DNA को भी एकत्रित कर रखा जाता है तो इसे जीन बैंक कहते हैं। साथ ही कारावासी (Captive) के रूप में उनको रखकर उकनी ब्रीडिंग (Breeding) कराते हैं। उपरोक्त परिस्थिति आने पर इन्हें पूर्व मूल निवास स्थान पर छोड़ा जाता है। भारत में 33 वनस्पति उद्यान और 33 विश्वविद्यालयों में जैव विज्ञानी उद्यान, 107 चिड़ियाघर, 49 मृग उद्यान, 24 प्राकृतिक प्रजनन केन्द्र हैं।

(2) बीज बैंक (Seed Bank)– ऐसे पौधे जिनके बीजों को दीर्घ अवधि तक संरक्षित कर रखा जा सकता है उनके लिए बीज बैंक बनाये गये हैं। यहाँ बीज का लेन-देन (Exchange) तथा वितरण किया जाता है। इन्हें जीवन क्षम (Vibal) बनाये रखने के लिये NBPGR के ग्रीन बैंक में संचित (Stored) किया जाता है। भारत में इस प्रकार के चार केन्द्र स्थापित किये गये हैं

1. शिमला–भारत के उत्तरी भाग के पहाड़ी स्थानों से जर्मप्लाज्म या बीज को इकट्ठा (Collect) कर संरक्षित किया जाता है। 

2. अमरावती-भारत के केन्द्रीय क्षेत्रों से प्राप्त जर्मप्लाज्म, पादप पदार्थ या बीज को संग्रहित कर संरक्षित किया जाता है।

3. जोधपुर-इस केन्द्र पर शुष्क प्रदेशों के जर्मप्लाज्म, पादप पदार्थ या बीच को संचय कर संरक्षित किया जाता है। 

4. शिलांग-उत्तर-पूर्वी भारत के विभिन्न क्षेत्रों के पादप पदार्थ या बीच को संचय कर संरक्षित किया जाता है।


(3) निम्नताप संरक्षण (Cryopreservation) कुछ पौधों के बीज ऊष्मा और ठण्डक (Cooling) को सह नहीं पाते इसलिये इसके लिये बीज बैंक उपयुक्त नहीं होता है। इन्हें दु:शय बीज कहते हैं। जब हसमें व्यापारिक महत्त्व के पौधे आ जाते हैं; जैसे—चाय (Tea) और नारियल (Coconut) के पौधे इसके In-situ संचय को बढ़ावा दिया जाता है और पौधे के बीज के स्थान पर उनके परागकण (Pollen grains) और स्पोर (Spore) का संचय निम्न ताप पर किया जाता है।

अतः संक्षेप में कह सकते हैं कि संकटापन्न जीवों के संरक्षण में अप्राकृतिक (Ex-Situ) संरक्षण की तुलना में प्राकृतिक संरक्षण (In-Situ) अधिक उपयुक्त होता है। इसलिए जीवों में को उनके पर्यावरण में संरक्षित करना चाहिए क्योंकि यदि उन्हें कैप्टिव (कैद कर जैसे चिड़ियाघर या प्रयोगशाला में) बीडिंग कर उनकी संख्या बढ़ाकर उन्हें पुनः उनके आवास में स्थापित करना कठिन होता है। इसका कारण है कि वे जंगली जीवों से अपनी रक्षा नहीं कर पाते हैं और अपना भोजन भी नहीं ढूंढ; पाते हैं। इस कारण से अधिकांश की मृत्यु हो जाती है। साथ ही अप्राकृतिक संरक्षण (Ex-situ) में अत्यधिक लागत आती है। इसलिए हमें अधिक से अधिक प्राकृतिक (In-Situ) संरक्षण को बढ़ावा देना चाहिए।

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